वो ग्रेजुएशन के दूसरे साल के इम्तिहान के दिन थे. हर विषय की परीक्षा के बीच कुछ दिन की छुट्टी होने के कारण जिस दिन परीक्षा होती थी उसके बाद का समय मौज-मस्ती के नाम होता था. यह शादियों का सीजन था. संयोग से उस रोज गांव में कई शादियां थीं. शाम ढलते ही बारात लेकर कई दूल्हे सड़कों पर निकल चुके थे. बैंड-बाजे की धुन पर थिरकते लोगों को देखने के लिए हम भागकर घर की छत पर पहुंच जाते. हमारे पुरुष प्रधान समाज में जब कहीं बारात जाती है तो बाराती अपने पौरुष का प्रदर्शन करते हुए चलते हैं. बारात के साथ और वर-वधू के फेरों के समय हमारे यहां फायरिंग आम बात है.
बारात में खुद को अलग दिखाने और अपने पौरुष का प्रदर्शन करने लिए कुछ युवा हथियार से बेहतर माध्यम किसी को नहीं समझते हैं. हालांकि ये शौक कई बार उनके साथ-साथ दूसरों के लिए भी घातक साबित होता है. इसके बावजूद ये ‘प्रथा’ हमारे समाज में बदस्तूर जारी है. पौरुष दिखने की पुरातन परंपरा से भइया भी अछूते नहीं थे. वो भी हथियार चलाने का शौक रखते थे. उनके पास भी एक पिस्तौल थी, इसकी जानकारी उस दिन के पहले तक घर में किसी को नहीं थी.
उस रोज भइया एक शादी में गए थे. मैं और छोटी बहन सोफे पर बैठकर टीवी पर फिल्म देखने में मशगूल थे. रात के तकरीबन दस बज चुके थे. तभी भइया दनदनाते हुए कमरे में दाखिल हुए और फिल्मी खलनायक की तरह बोले, ‘जल्दी से बताओ पहले किसको मरना है!’ यह कहकर उन्होंने हम दोनों पिस्तौल पर तान दी.
मुझसे छह साल बड़े भाई शादी से लौटने के बाद उसी खुमारी में थे. बारात के समय शायद उन्होंने भी फायरिंग की थी. घर लौटने पर भी फायरिंग का उनका भूत नहीं उतरा था. हम दोनों बहनें उनकी इस बात से चौंक गए क्योंकि उन्होंने इससे पहले इस तरह का मजाक नहीं किया था. हालांकि अगले ही पल जहां छोटी बहन खिलखिला कर हंस दी वहीं मैंने ये दिखाने की कोशिश कि मुझे कोई फर्क नहीं पड़ा. मेरे मुंह से निकल पड़ा, ‘टीवी के सामने से हटो, हवा आने दो.’ लेकिन इस बात का उन पर कोई असर नहीं हुआ. उन पर जैसे कोई भूत सवार था. उन्होंने कहा, ‘सच कह रहा हूं, मैं गोली चला दूंगा.’ इसके बाद छोटी बहन ने ‘चलाकर दिखाओ’ बोलकर उन्हें चुनौती दे डाली. कमरे में कुछ देर तक सन्नाटा था कि अगले ही पल गोली चलने की आवाज ने रात के सन्नाटे को चीर कर रख दिया. गांव में सनसनी फैल गई. गोली मेरे हाथ पर लग चुकी थी. दर्द इतना भयानक था कि मेरी चीख भी दबकर रह गई थी. गोली लगने की वजह से हाथ की नसें कट गईं थीं, जिसकी वजह से असहनीय दर्द हो रहा था. दर्द से आंखें बंद हो गई थीं और भीतर से जितनी तेज मैं चीखना चाहती थी उतना ही खुद को अशक्त महसूस कर रही थी. घर के बाहर गांव के लोग जुट गए थे. हाथ खून से लथपथ था.
एक पड़ोसी की मदद से मुझे गांव के पास ही एक नर्सिंग होम में ले जाया गया. उस छोटे से नर्सिंग होम में कोई सर्जन नहीं था जो मेरे बुरी तरह जख्मी हाथ का ऑपरेशन कर पाता. दर्द निवारक का कोई खास असर नहीं हो रहा था. करीब तीन घंटे तक मैं असहनीय दर्द से जूझती रही. रात को 2:30 बजे एक सर्जन को विशेष तौर पर मेरे इलाज के लिए शहर से बुलाया गया.
सुबह होश आने पर भी जेहन में कई सवाल उमड़-घुमड़ रहे थे. दिल और दिमाग भइया के गोली चलाने के पीछे के कारणों को ढूंढने में लगा था. हालांकि इसका किसी के पास कोई जवाब नहीं था. बाद में पता चला कि उस रात नर्सिंग होम के मालिक ने पुलिस न बुलाने के एवज में भइया से अच्छी खासी रकम उगाही थी. इस हादसे के बाद कई दिन तक वह बिल्कुल खामोश रहे. हथियार से कभी किसी का भला नहीं हुआ है, शायद वो ये बात समझ चुके थे. क्षणिक सुख के लिए चलाए गए हथियार कभी भी किसी खुशनुमा माहौल में मातम घोल सकते हैं. उस रोज गोली कहीं और लगी होती तो शायद मैं ये कहानी बताने के लिए जिंदा न बचती.