नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बने छह महीने बीत गए हैं. आप उनके प्रदर्शन को कैसे देखते हैं?
जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के बाद नरेंद्र मोदी ने खुद को सबसे मेहनती प्रधानमंत्री साबित किया है. वह सर्वाधिक सक्रिय भी हैं. उन्होंने ये दो गुण दिखाए हैं. हालांकि उन्हें केंद्र में शासन के तौर-तरीके सीखने हैं. अब उनको नौकरशाही को थामने और फिर गतिशील बनाने के दुरूह काम को अंजाम देना पड़ रहा है. ऐसा इसलिए है क्योंकि पूरी व्यवस्था अपनी प्रकृति में यथास्थितिवादी, निष्क्रिय, भ्रष्ट और असंवेदनशील है. नौकर से लेकर सचिव स्तर तक के सभी कर्मचारी अपनी जिम्मेदारियों को दूसरे के सिर डालने को ही अपने बचाव का सर्वश्रेष्ठ तरीका मानते हैं. इसकी वजह से अनिर्णय का माहौल बनता है जो कि नौकरशाही का एक और गुण है. नई सोच तो बहुत दूर की कौड़ी है. ऐसे में अब मोदी को शासन के इस पहलू का सामना करना पड़ रहा है. यह देखना रोचक होगा कि वह इसका सामना कैसे करते हैं.
इसी तरह, आज आप मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को या फिर पार्टी और सरकार को अलग-अलग करके नहीं देख सकते. फिलहाल वे सब एकमएक हैं. और भविष्य में भी यही क्रम जारी रहेगा क्योंकि शाह को उनसे अलग करके नहीं देख जाएगा. वह मोदी का साया बने रहेंगे.
उन्हें अभी अपनी छाप छोड़नी है. ऐसे माहौल में किसी देवकांत बरुआ के उभर आने की आशंका प्रबल हो जाती है. (बरुआ कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष थे, उन्होंने इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया की प्रसिद्ध उक्ति दी थी). इस तरह का एक ही व्यक्ति पूरी प्रतिष्ठा को धूलधूसरित करने के लिए पर्याप्त है. यह देखना दिलचस्प होगा कि वे इन तमाम पहलुओं से कैसे निपटते हैं.
प्रधानमंत्री की कारोबार समर्थक छवि और उनकी सरकार की कुछ हालिया घोषणाओं, खासतौर पर काले धन से जुड़ी घोषणा को लेकर आप क्या सोचते हैं?
सरकार के इरादों पर किसी तरह का सवाल उठाए बिना मैं कहना चाहूंगा कि सरकार को इन मसलों में और तेजी लानी चाहिए. केवल इच्छा व्यक्त करने से हालात नहीं बदलेंगे, केवल सवाल खड़े करना पर्याप्त नहीं है, उन सवालों के साथ बदलाव के कदम भी उठाने होंगे. राजनीति और कारोबारियों के बारे में हाल ही में मुरली मनोहर जोशी ने भी अपनी राय व्यक्ति की है और मैं उनकी राय से सहमत हूं कि मुकेश अंबानी (रिलायंस इंडस्ट्रीज के चेयरमैन) का प्रधानमंत्री की पीठ पर हाथ रखना पार्टी कैडर के लिए अच्छा संदेश नहीं है. इससे कैडरों के आत्मसम्मान को ठेस पहुंची है.
मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि इस पार्टी में नानाजी देशमुख (भारतीय जनसंघ के संस्थापक) जैसे लोग थे जिनके उद्योगपतियों से मधुर रिश्ते थे लेकिन किसी को उनसे ऐसी नजदीकी हासिल नहीं थी और उनके रहते किसी उद्योगपति को पार्टी की प्राथमिक सदस्यता तक नहीं दी गई. लेकिन पिछले 20 सालों में कारोबारी घरानों ने अपने कुछ अधिकारियों-पूर्वअधिकारियों के लिए राज्यसभा सीट तक हासिल कर ली हैं. राजनीतिक शक्ति और पैसे की ताकत का यह गठजोड़ निश्चित तौर पर नीति निर्धारण को प्रभावित करेगा. इस माहौल में राजनीतिक दलों के लिए ऐसे कदम उठाना मुश्किल होगा जो कारोबारी घरानों के हित के खिलाफ हों. सरकार चला रहे लोगों को इसकी पूरी जानकारी रहनी चाहिए और उन्हें इस बारे में सतर्कता बरतनी चाहिए. एक तरफ मोदी कहते हैं कि काले धन की एक-एक पाई वापस लाई जाएगी, क्योंकि वह गरीबों का पैसा है और दूसरी तरफ उनके कारोबारी घरानों से मेलजोल की तस्वीरंे दिखती हैं जो कि आपस में विरोधाभासी हैं.
कुछ लोग मोदी को तानाशाही प्रकृति का मानते हैं. आप उनकी प्रशासनिक शैली को कैसे देखते हैं?
मोदी बेहद चतुराई से काम कर रहे हैं. कहा जा सकता है कि वह छवि, संदेश, संकेत और राजनीति के मामले में बेहद सधे हुए व्यक्ति हैं. उनकी बराबरी कोई नहीं कर सकता है. उनके जैसा करने के लिए एक समुचित ढांचा, तकनीक और संसाधनों की आवश्यकता होगी. उनमें वे सारे गुण हैं क्योंकि उनका नाता भाजपा और संघ परिवार से रहा है. ऐसे में वह उन तीनों कारकों को मिलाने में सक्षम हैं और यही उनकी काबीलियत है. हमें यह मानना होगा. लेकिन इन बातों को जमीनी स्तर पर उपलब्धियों में बदलना होगा. ऊपर मैंने नौकरशाही को लेकर जो बात कही उसका संबंध इसी से है.
कांग्रेस परेशानी में है. मीडिया का एक धड़ा सरकार की आलोचना करता नहीं नजर आ रहा है. न्यायपालिका में सुधार की आवश्यकता है. इन हालात में आपको क्या लगता है कि विपक्ष की सही भूमिका कौन अदा कर सकता है?
विपक्षी राजनीतिक दल अपनी जिम्मेदारी निभाने में विफल रहे हैं. उनकी अपनी स्थिति खराब है. वे अपनी हार को पचा नहीं पा रहे हैं, वे इस हकीकत को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं कि पार्टी को नए सिरे से खड़ा करने का समय है, उन्हें यह भी पता नहीं है कि यह काम कैसे होगा. उन्हें भी समझ नहीं आ रहा है कि भविष्य की राजनीति क्या होनी चाहिए. विपक्ष तो नजर ही नहीं आ रहा है. मीडिया की बात की जाए तो उसने नई सरकार का आकलन करने या उसकी आलोचना करने के पहले उसे समय देकर सही काम किया है. मुझे लगता है कि मीडिया का काम निष्पक्ष है. जहां तक न्यायपालिका की बात है तो उसने खुलकर काले धन समेत कई विषयों पर कड़ी टिप्पणियां की हैं. वह पर्याप्त मुखर और आक्रामक रही है. मुझे लगता है कि मीडिया और न्यायपालिका अपनी भूमिका निभा रहे हैं. लेकिन विपक्ष के बारे में यह बात नहीं कही जा सकती है.
क्या आम आदमी पार्टी (आप) सरकार के बजाय विपक्ष की भूमिका में अधिक प्रभावी साबित हो सकती है?
उनको लोगों के हितों का संरक्षण करने और उनको आगे बढ़ाने के लिए और अधिक कौशल की आवश्यकता पड़ेगी. जहां तक मुझे लगता है कि आप की अप्रत्याशित सफलता के लिए जनता के मन में तत्कालीन शासन के प्रति व्याप्त निराशा अधिक बड़ी वजह थी. ऐसा उन्होंने खुद भी महसूस किया होगा. उनको खुद को एक राजनीतिक दल के रूप में विकसित करना होगा. उनका आंदोलन सफल जरूर रहा लेकिन उसमें मजबूती नहीं थी. ऐसे में धीमे-धीमे आगे बढ़ने की नीति अधिक बेहतर होती लेकिन अपना आकलन तो वही बेहतर कर सकते हैं.
क्या महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा-शिवसेना का अलगाव टाला जा सकता था?
मुझे लगता है कि मोदी आक्रामक किस्म की राजनीति कर रहे हैं. इसके लिए उनको मिला भारी बहुमत जिम्मेदार है. अमृतसर में नवजोत सिंह सिद्घू को किनारे कर दिया गया, ये किसने किया? भाजपा को उस वक्त यह बात किसी तरह स्वीकार करनी पड़ी. शिवसेना की बात करें तो वहां ऐसा मामला नहीं था लेकिन इस अलगाव की वजह से शिवसेना से जुड़ी हकीकत में बदलाव आया है. अगर भाजपा की बात करें तो उनकी ज्यादा सीट की मांग गलत नहीं थी. शिवसेना ने उस वक्त सही राजनीति नहीं की. यह उसकी गलती है. इसे भाजपा पर थोपा नहीं जा सकता है.
आप भाजपा और शिवसेना के रिश्तों को फिलहाल किस दिशा में जाता देख रहे हैं?
शिवसेना को भी इससे सबक मिलेगा. कोशिशें तो हमेशा की जाती हैं लेकिन जरूरी नहीं कि कोशिश का सही परिणाम ही निकले. मुझे नहीं लगता है कि भाजपा गठबंधन नहीं चाहती या फिर वह दंभी हो गई है. ऐसा कहना गलत होगा. उसे निभाना दोनों पक्षों की जिम्मेदारी है, किसी एक की नहीं. उन्हें समझदारी से काम लेना चाहिए और जमीनी हकीकत में आ रहे बदलाव को समझना चाहिए. ऐसा भी नहीं है कि सबकुछ खत्म हो गया है. उन्हें यह समझना होगा कि यह एक निरंतर प्रक्रिया है. मुझे डर इस बात का है कि राजनीति जनकेंद्रित, नेतृत्व आधारित, मुद्दा आधारित अथवा व्यक्तित्व आधारित होने के बजाय सत्ताकेंद्रित होती जा रही है. राजनीति का अर्थ केवल सरकार या प्रशासन नहीं है. उसका संबंध उस दिशा से है जिसकी ओर देश को अग्रसर होना चाहिए और जिसमें राज्य को अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए. यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप राज्य की भूमिका को कैसे देखते हैं. केवल चुनाव जीतना या आंकड़े जुटा लेना ही सबकुछ नहीं होता. राज्य से उम्मीद की जाती है कि वह उन लोगों की रक्षा करे जो अपनी रक्षा खुद नहीं कर सकते. सभी पक्षों को और अधिक संवेदनशीलता से काम लेना चाहिए. इसमें सत्ताधारी दल भी शामिल है. बाजारवाद के इस युग में गरीबों और वंचितों के मुद्दों को और अधिक उठाया जाना चाहिए और राज्य को चाहिए कि वह उनके पक्ष में खड़ा हो. उसे यह धारणा नहीं बनने देनी चाहिए कि वह कारोबारियों के साथ खड़ी है.
महाराष्ट्र से आई अनुशासनहीनता की कुछ खबरों ने भाजपा को शर्मिंदा किया है…
ऐसा ही होगा. अगर पार्टी केवल चुनावी मशीन में परिवर्तित हो जाए, वह कार्यकर्ताओं की पार्टी न रहकर सत्ताकांक्षियों की पार्टी हो जाए और समग्र विकास के बजाय चुनावी जीत उसका मानक बन जाए तो यह सब तो होना ही है.
सरकार ने आर्थिक मोर्चे पर कुछ कदम उठाए हैं लेकिन ऐसा माना जा रहा है कि देश को अधिक सुधारों की आवश्यकता है और वह भी तेज गति से.
अगले बजट में स्थिति स्पष्ट हो जाएगी क्योंकि पिछला बजट तो केवल पिछली सरकार के अंतरिम बजट का ही विस्तार था. इसमें कोई नया विचार शामिल नहीं था. अगले बजट में निश्चित तौर पर भाजपा की वैचारिक छाप होगी. तब तक हमें आर्थिक विषयों पर इंतजार करना होगा. इसके अलावा देखा जाए तो भूमि अधिग्रहण विधेयक में संशोधन का मसला है, जिसे सरकार संसद के शीतकालीन सत्र में पेश कर सकती है. उसके बाद कुछ नेताओं के खिलाफ फास्ट ट्रैक सुनवाई का मसला है. इन सब में देरी हो रही है. इन मसलों पर मेरी राय है कि लोगों के धैर्य की परीक्षा एक सीमा से अधिक नहीं लेनी चाहिए. छह महीने का समय न बहुत कम होता है और न बहुत ज्यादा, लेकिन सरकार को खुद को देश के गरीब आदमी के करीबी के रूप में पेश करना चाहिए. यह धारणा तो है कि कुछ मसलों पर सरकार देश की आम जनता के करीब है लेकिन यह जुड़ाव नीतिगत स्तर पर भी नजर आना चाहिए. उदाहरण के लिए गोकशी पर प्रतिबंध केवल भावनात्मक मसला नहीं है बल्कि उसका संबंध आर्थिक और पर्यावरण संबंधी मुद्दों से भी है. यह हमारे विकास मॉडल से भी ताल्लुक रखता है. ब्रीडिंग केंद्रों की स्थापना आवश्यक है. कुछ सदी पहले तक पालतू पशुओं और मनुष्यों का अनुपात सात के मुकाबले एक था. आजादी के वक्त यह अनुपात एक-एक हो गया. अब यह उलट गया है, आज प्रति सात मनुष्यों पर एक पालतू पशु है. यह स्थिति बहुत चिंतनीय है. इसका देश के स्वास्थ्य पर असर पड़ेगा और बच्चों में कुपोषण को बढ़ावा मिलेगा. यह अनुपात अगर आगे और बिगड़ा तो हालात और अधिक खराब होंगे. सरकार गोमांस और चारे के निर्यात पर प्रतिबंध जैसे कदम उठा सकती है. ये कदम समस्याओं के निदान में मददगार साबित हो सकते हैं. मैं पालतू पशुओं के मामले में सरकार को एक मेमो जारी करना चाहता हूं. खासतौर पर गायों और उनकी संततियों के मामले में. विकास का ट्रिकल डाऊन मॉडल विफल हो चुका है. ऐसे में बदलाव आवश्यक है. अब यह सरकार क्या कुछ नया करती है यह नए बजट में देखा जाना है.
संभव है कि सरकार भावनात्मक तौर पर भारतोन्मुखी हो, लेकिन मेरा मानना है कि सरकार के गरीब समर्थक रुझान को प्रकट करने के लिए अभी काफी कुछ किया जाना बाकी है. ऐसा करने के क्रम में केवल बातों से काम नहीं चलेगा बल्कि इसके लिए प्रतिबद्धता की जरूरत पड़ेगी. असफल हो चुके ट्रिकल डाउन सिद्धांत पर आधारित अर्थव्यवस्था की बजाय पर्यावरण केंद्रित विकास पर ध्यान देना होगा. ट्रिकल डाऊन सिद्धांत पर हद से ज्यादा निर्भरता उन लोगों के लिए नुकसानदेह साबित हो सकती है जो प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर हैं. उनकी आजीविका पर संकट खड़ा हो जाएगा. ऐसे में समाज के उस तबके के लोगों से संवेदनशीलता और मेलजोल जरूरी है न कि निवेशक सम्मेलन. ट्रिकल डाऊन के विफल विचार को व्यवहार में अपनाने के बजाय उन्हें पर्यावास केंद्रित विकास की ओर रुख करना चाहिए. ट्रिकल डाऊन पर अतिरिक्त निर्भरता का खामियाजा भी उठाना पड़ सकता है क्योंकि यह असमानता और गरीबी को जन्म देती है. समावेशी विकास और सशक्तिकरण करना आवश्यक है. यह काम समाज के पिछड़े तबकों की सक्रिय भागीदारी से ही संभव होगा. सरकार के सभी अंगों को इसके लिए कठिन प्रयास करना होगा. स्मार्ट शहरों को लेकर काफी चर्चा हो रही है लेकिन उनके बनने से सैकड़ों की संख्या में गांव या तो तबाह हो जाएंगे या प्रभावित होंगे. क्या ऐसे में स्मार्ट सिटी प्राथमिकता में होने चाहिए?
लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे भाजपा के दिग्गजों को किनारे लगा दिया गया है. क्या उनसे थोड़ा अलग व्यवहार किया जा सकता था?
अगर चुनावी राजनीति की परिपाटी देखें तो जो कुछ हुआ वह सही था लेकिन अगर राजनीति को समग्रता में देखा जाए तो कुछ अन्य विकल्प मौजूद थे. लेकिन उनका जिक्र करने का कोई फायदा नहीं है.
कुछ लोगों ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) और आधार के भविष्य को लेकर चिंता जताई है. ये दोनों योजनाएं पिछली सरकार ने शुरू की थीं. आप इस मसले पर क्या सोचते हैं?
निरंतरता और बदलाव को एकसाथ मिलाना होता है. जैसा कि हम सुनते आए हैं- पुरानी चीजें बेहतर होती हैं लेकिन यह जरूरी नहीं कि हर नई चीज भी श्रेष्ठ हो. ऐसे में बदलाव और निरंतरता को साथ-साथ चलना होगा. मनरेगा में तमाम सुधारों की आवश्यकता है लेकिन भूमि अधिग्रहण विधेयक में बदलाव कहीं अधिक आवश्यक हैं ताकि कृषि भूमि तथा पशुओं, पक्षियों और जीवों की आजीविकावाली जमीन को संरक्षण दिया जा सके. जल, जमीन, जंगल और जानवरों के हित भी मानवों के समान ही अहमियतवाले होने चाहिए. मुझे लगता है कि अगर विकास को मनुष्य केंद्रित से पर्यावास केंद्रित बनाया जाए तो हालात बेहतर हो सकते हैं.
सरकार की विदेश नीति के बारे में क्या सोचते हैं?
यह सरकार अभी सीखने की प्रक्रिया में है और उसे विदेश नीति की जड़ें समझने में थोड़ा और वक्त लगेगा. मेरे ख्याल से रूस के साथ हमारे बेहतर राजनयिक और आर्थिक संबंध होने चाहिए क्योंकि वह अतीत में हमारा नैसर्गिक भौगोलिक सहयोगी रहा है. चीन दुश्मन नहीं लेकिन प्रतिस्पर्धी हो सकता है. लेकिन हमें यह देखना होगा कि यह प्रतिस्पर्धा कितनी स्वस्थ्य रहती है.