वह कौन-सी बात है जो किसी रचना या रचनाकार को कालजयी बनाती है? शायद उसके द्वारा रचित साहित्य की प्रासंगिकता. हिंदी कविता का कोई कवि अगर पिछले 50 सालों के दौरान हर छोटी-बड़ी घटना पर बार-बार प्रासंगिक बनकर सामने आता रहा है तो वह हैं- गजानन माधव मुक्तिबोध. भरे विश्वास से मुक्तिबोध को सर्वकालिक महान रचनाकारों में शुमार किया जा सकता है. वजह केवल इतनी भर है कि उन्होंने जो भी रचा वह कालातीत हो गया. 11 सितंबर 1964 को नई दिल्ली में इलाज के दौरान जब मुक्तिबोध का निधन हुआ तब वे महज 46 साल के थे.
उस वक्त तक उनका कोई कविता संग्रह प्रकाशित नहीं हो सका था. छत्तीसगढ़ (तत्कालीन मध्य प्रदेश) के राजनांदगांव में रहने वाले मुक्तिबोध को उस दौर के युवा साहित्यकार श्रीकांत वर्मा, हरिशंकर परसाई और अशोक वाजपेयी इलाज के लिए दिल्ली लाए थे. उस वक्त वो कोमा में थे.
मुक्तिबोध का जीवन उतार-चढ़ाव से भरा रहा. वैचारिक धरातल पर अपने समकालीनों के बीच सबसे ऊंचे पायदान पर खड़ा यह कवि भौतिकता के मध्यवर्गीय मानकों के मुताबिक कभी संपन्न नहीं रहा. यहां तक कि साहित्य जगत में गंभीर दस्तक के बावजूद मुक्तिबोध सही मायनों में वह पहचान हासिल नहीं कर सके थे जिसके वह हकदार थे. लेकिन उनके निधन के तत्काल बाद उनकी ख्याति का ऐसा बवंडर उठा जिसने सारे हिंदी साहित्याकाश को ढंक लिया. अगले दो दशक तक हिंदी साहित्य और खासकर कविता जगत मुक्तिबोधमय रहा.
मुक्तिबोध का जीवन उतार-चढ़ाव से भरा रहा. अपने समकालीनों के बीच ऊंचे पायदान पर खड़ा यह कवि भौतिकता के मध्यवर्गीय मानकों के मुताबिक कभी संपन्न नहीं रहा
मुक्तिबोध अपने समय की सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहते थे, लेकिन उनकी कविताओं का पहला संग्रह ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’, उनकी मौत के बाद ही प्रकाशित हो सका. हालांकि उससे पहले तारसप्तक में अज्ञेय उन्हें चिह्नित कर चुके थे. मुक्तिबोध की कविताओं का दूसरा संग्रह ‘भूरी भूरी खाक धूल’ उनके निधन के 15 साल बाद पाठकों तक पहुंचा. इस संग्रह की भूमिका में अशोक वाजपेयी ठीक ही लिखते हैं कि इन 15 वर्षों की अवधि में हिंदी कविता पर मुक्तिबोध छाये रहे हैं. युवतम पीढ़ी अगर किसी बुजुर्ग से खुद को जोड़ती है और प्रामाणिकता और सार्थकता पाने की कोशिश करती है, तो वह मुक्तिबोध ही हैं.
राजनांदगांव जैसी अपेक्षाकृत छोटी जगह पर रहते हुए भी मुक्तिबोध साहित्य में भरपूर सक्रियता रखते थे. आलोचना तथा हंस जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित उनके आलेख देश के तमाम बौद्धिकों के बीच चर्चा का विषय हुआ करते थे. उनके निधन के बाद एक-डेढ़ दशक तक पूरा साहित्य विमर्श मुक्तिबोध पर ही केंद्रित रहा. यहां तक कि उस दौर में नई कविता का कोई भी कवि ऐसा नहीं था जो मुक्तिबोध से प्रभावित न हो.
वे सही मायनों में जनवादी कवि थे, निहायत आम जीवन जीते थे. यही वजह थी कि आम आदमी के जीवन में उनकी गहरी रुचि और आस्था थी. संभवत: इस जीवन ने ही उनको एक व्यक्ति के जीवन संघर्ष, उसकी वैयक्तिकता, उसकी असुरक्षा और अनिश्चितता से रूबरू कराया. ये तमाम चीजें जब उनकी आंतरिक बेचैनी से टकराईं, तो हिंदी कविता को एक से एक नायाब रचनाएं मिलीं.
मुक्तिबोध की कालजयी कविता ‘अंधेरे में’ दरअसल उनके इसी आत्मसंघर्ष तथा उस वक्त के नग्न यथार्थ (दुर्भाग्यवश हालात आज भी वही हैं) का चित्रण करती है. यह लंबी कविता सन 1957 से 1962 के बीच रची गई. सन 1964 में यह ‘आशंका के द्वीप : अंधेरे में’ शीर्षक से प्रकाशित हुई. ‘अंधेरे में’ समेत मुक्तिबोध की तमाम कविताओं में फैंटेसी एक प्रमुख तत्व के रूप में उभरकर सामने आती है. यह दरअसल खांटी देसी जादुई यथार्थवाद का नमूना है. लेकिन ‘अंधेरे में’ केवल फैंटेसी नहीं है.
मुक्तिबोध की दो सबसे प्रखर और प्रसिद्ध रचनाओं की बात की जाए, तो ‘ब्रह्मराक्षस’ और ‘अंधेरे में’ का ही जिक्र आता है. ‘ब्रह्मराक्षस’ कविता में मुक्तिबोध ने ब्रह्मराक्षस के मिथक के जरिये तत्कालीन बौद्धिक वर्ग के द्वंद्व और आम लोगों से उसके अलगाव की नग्न तस्वीर पेश की थी. यह एक ऐसा आईना था, जिसमें अपनी शक्लें झांकने में लोगों को डर लगता था.
मुक्तिबोध की कविताओं के लंबा होने की एक वजह यह थी कि वह कविताओं के जरिये एक पूरी पीढ़ी या पूरी सभ्यता की पड़ताल में लग जाते थे. उन्होंने स्वयं कहा भी है कि उनकी छोटी कविताएं दरअसल अधूरी कविताएं हैं.
मुक्तिबोध की कालजयी कविता ‘अंधेरे में’ दरअसल उनके आत्मसंघर्ष तथा उस वक्त के नग्न यथार्थ (दुर्भाग्यवश हालात आज भी वही हैं) का चित्रण करती है
‘अंधेरे में’ कविता में उन्होंने सत्ता और बौद्धिक वर्ग के बीच के गठजोड़ को बेनकाब किया. शासक वर्ग द्वारा जनता के दमन और नये के सृजन तक इस कविता में भारत का संपूर्ण अतीत और वर्तमान प्रतिध्वनित होता है. अगर हम ‘अंधेरे में’ कविता के रचनाकाल पर गौर करें, तो आजादी को एक-डेढ़ दशक बीत चुके थे. स्वतंत्रता से जुड़े सारे स्वप्न भंग हो चले थे. सामाजिक विषमता, बड़े पैमाने पर व्याप्त बेरोजगारी और उद्योग-धंधों के अभाव और सत्ता के षडयंत्रों और कुत्सित गठजोड़ों ने जनता में गहरी निराशा भर दी थी. उसका पूरी तरह मोहभंग हो चुका था. यह वह दौर था जब वाम दलों का विभाजन तत्काल ही हुआ था. ऐसे वक्त में जब हर ओर संदेह, संशय और विश्वासभंग का माहौल था, मुक्तिबोध ‘पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है’ के खरे जुमले के साथ सामने आए. इस बात को समझने के लिए ‘अंधेरे में’ कविता की कुछ पंक्तियां देखते हैं-
‘ओ मेरे आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धांतवादी मन,
अब तक क्या किया?
जीवन क्या जिया!!
उदरम्भरि बन अनात्म बन गए,
भूतों की शादी में कनात-से तन गए,
किसी व्यभिचारी के बन गए बिस्तर,
दुखों के दागों को तमगों-सा पहना,
अपने ही खयालों में दिन-रात रहना,
असंग बुद्धि व अकेले में सहना,
जिंदगी निष्क्रिय बन गई तलघर,
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया!!
बताओ तो किस-किसके लिए तुम दौड़ गए,
करुणा के दृश्यों से हाय! मुंह मोड़ गए,
बन गए पत्थर,
बहुत-बहुत ज्यादा लिया,
दिया बहुत-बहुत कम,
मर गया देश, अरे जीवित रह गए तुम!!
लो-हित-पिता को घर से निकाल दिया,
जन-मन-करुणा-सी मां को हंकाल दिया,
स्वार्थों के टेरियार कुत्तों को पाल लिया,
भावना के कर्तव्य–त्याग दिए,
हृदय के मंतव्य–मार डाले!
बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया,
तर्कों के हाथ उखाड़ दिए,
जम गए, जाम हुए, फंस गए,
अपने ही कीचड़ में धंस गए!!
विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में
आदर्श खा गए!
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया,
ज्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम
मर गया देश, अरे जीवित रह गए तुम…’
भले ही मुक्तिबोध की कविताओं में कोई गीतात्मकता न हो, लेकिन उसमें एक आंतरिक लय है. वे वास्तव में जनता के एक राजनीतिक कवि थे. मुक्तिबोध को पढ़ना वास्तव में अपने भीतर और बाहर एक लंबी यात्रा से गुजरना है. उन कविताओं को पढ़ते हुए आप अपने आपे में नहीं रहते, निकल पड़ते हैं उन कविताओं के साथ जंगल, पहाड़, अंदर, बाहर की यात्रा पर अपनी पूरी संवेदनाओं के साथ. कभी गौर किया है आपने मुक्तिबोध की कविता पढ़ने के तत्काल बाद बहुत थकान महसूस होती है. उस थकान की वजह यही यात्रा है.