कश्मीर के राजवंशों का विस्तृत वर्णन करने वाले कल्हण के महाकाव्य राजतरंगिणी में एक दिलचस्प किस्सा मिलता है. यहां आठवीं सदी में हुए राजा ललितादित्य पीड़ चाहते थे कि राजधानी को श्रीनगर से हटाकर इससे कुछ आगे झेलम किनारे ही स्थित एक इलाके परिहासपुर ले जाया जाए. दरअसल कभी श्रीनगर को राजधानी बनाने की वजह यह थी कि एक तो यह राज्य के केंद्र में था और दूसरे, एक विशाल दलदली जमीन पर होने के कारण इसमें दर्जनों जलमार्ग थे जिनसे नावों के जरिये सुगमता से व्यापार हो सकता था. लेकिन पानी की प्रचुरता का दूसरा पक्ष यह था कि बाढ़ के खतरे के चलते यहां एक निश्चित सीमा से ज्यादा आबादी नहीं बसायी जा सकती थी. फिर भी जब आबादी बढ़ने लगी तो ललितादित्य को लगा कि जान-माल की तबाही से बेहतर है कि राजधानी कहीं और ले जाई जाए. लेकिन लोग इसके लिए खास इच्छुक नहीं थे. इससे क्षुब्ध ललितादित्य ने एक दिन मदिरा के नशे में अपने मंत्री को आदेश दिया कि वह राजधानी को आग लगा दे ताकि इससे डरकर लोग शहर छोड़ दें. मंत्री चतुर था. उसने घास के एक विशाल ढेर में आग लगाकर राजा को बताया कि आदेश का पालन हो गया है. यह अलग बात है कि अगले दिन सुबह नशा उतरने पर राजा को बहुत ग्लानि हुई, लेकिन जब उसने श्रीनगर को सुरक्षित देखा तो वह मंत्री की चतुराई से बहुत खुश हुआ.
यह किस्सा बताता है कि कश्मीर घाटी में बाढ़ का खतरा एक ऐसा मुद्दा है जो नया नहीं है. यह अलग बात है कि इसके समाधान के मामले में स्थिति कमोबेश वही है जो सदियों पहले ललितादित्य के समय में थी.
कश्मीर में आई विनाशकारी बाढ़ को एक महीना हो चुका है. पानी धीरे-धीरे श्रीनगर की कालोनियों, गलियों और सड़कों से उतर रहा है. घरों के भीतर घुस आई गाद को साफ करने में लगे लोग अपने जीवन को फिर से पटरी पर लाने की कोशिशें कर रहे हैं. इसी के साथ बहुत से सवालों पर भी बहस शुरू हो चुकी है. पूछा जा रहा है कि अगर जरूरी उपाय किए गए होते और लोगों को वक्त रहते चेतावनी दे दी गई होती तो क्या बाढ़ का विनाशकारी असर कम किया जा सकता था.
भूविज्ञानी शकील रामशू ने 2010 में ही भविष्यवाणी कर दी थी कि कश्मीर अपने इतिहास की सबसे भयानक बाढ़ के मुहाने पर खड़ा है और अगर नीति बनाने वालों ने युद्धस्तर पर अतिरिक्त पानी निकालने वाले एक वैकल्पिक चैनल का निर्माण नहीं किया तो श्रीनगर ऐसी बर्बादी देखेगा जैसी उसने पहले कभी नहीं देखी होगी. रामशू कहते हैं, ‘लोगों को यह पता ही नहीं था कि वे ऐसी बाढ़ की जद में आ सकते हैं. जागरूकता के अभाव ने अतिआत्मविश्वास पैदा किया और यही सबसे बड़ी वजह थी कि सरकार ने बिल्कुल आखिरी वक्त पर शहर के कुछ इलाकों को खाली कराने की सोची.’
रामशू आगे कहते हैं, ‘बारिश का ठीकरा तो आप मौसम में आ रहे बदलाव पर फोड़ सकते हैं, लेकिन शहर को जो नुकसान हुआ उसमें तो साफ तौर पर इंसानों की ही भूमिका है. इस विनाश को टाला भले ही न जा सकता हो, लेकिन कम तो किया ही जा सकता था. सरकार ठीक से काम करती तो लाल चौक तक पानी पहुंचता ही नहीं.’
हालांकि राज्य सरकार इस आरोप को सिरे से खारिज करती है. सत्ताधारी नेशनल कॉनफ्रेंस के नेता तनवीर सादिक कहते हैं, ‘हमारे यहां बाढ़ के खतरे का जो निशान बना हुआ है उसकी अधिकतम ऊंचाई 28 है. इस बार पानी की ऊंचाई 34 तक पहुंच गई. और पानी डाइवर्ट करते भी तो कहां? कश्मीर के दक्षिणी हिस्से में तो पहले से ही बाढ़ आई हुई थी और ऊपर से झेलम के साथ इतना सारा पानी श्रीनगर की तरफ आ रहा था.’
क्या हो सकता था और क्या नहीं, इस पर बहस अभी लंबे समय तक जारी रहेगी. हो सकता है कि इसकी आधिकारिक जांच की प्रक्रिया भी जल्द शुरू हो जाए. लेकिन यह निष्कर्ष निकालने के लिए किसी भारी कवायद की जरूरत नहीं कि अनियोजित विकास और पानी के प्राकृतिक रास्तों में अतिक्रमण ने कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी थी कि श्रीनगर इस बाढ़ से बच पाता.
‘बारिश का ठीकरा तो आप मौसम में आ रहे बदलाव पर फोड़ सकते हैं, लेकिन शहर को जो नुकसान हुआ उसमें तो साफ तौर पर इंसानों की ही भूमिका है’
1989 में जब घाटी में अलगाववादी आंदोलन शुरू हुआ तो श्रीनगर में अवैध निर्माण की प्रक्रिया ने काफी गति पकड़ ली. इसके साथ शहर की आखिरी सांसें भी उखड़ने लगीं. एक के बाद एक अवैध आवासीय कालोनियां बनती गईं जिन्होंने शहर के चप्पे-चप्पे को भर दिया. इन्हें बनाने वालों ने श्रीनगर नगर निगम से इसके लिए कोई अनुमति नहीं ली थी. वे नगर निगम के अधिकारियों को रिश्वत देते और निर्माण चलता रहता. जहां बगीचे थे, खेत थे, दलदल थे या नहरें थीं वहां मकान बन गए. लोगों ने डल झील को भी नहीं बख्शा. उसे भी पाटकर इमारतें खड़ी कर दी गईं. इन कालोनियों के पीछे वे जमीन माफिया थे जिन्हें किसी भी कीमत पर सिर्फ मुनाफे से मतलब था. श्रीनगर के पश्चिम में स्थित बेमीना का ही उदाहरण लें. इस पॉश इलाके को एक दलदली जमीन पर बसाया गया. इसमें कुछ सरकार की भी भूमिका रही जिसने इस जमीन को पाटा, फिर इसमें प्लॉट काटे और फिर इन्हें लोगों को बेचा. यही नहीं, इस इलाके में सरकारी इमारतें तक बनवा दी गईं. हज हाउस, झेलम वैली मेडिकल कॉलेज, भू अभिलेख विभाग की इमारतें यहां पर बनीं. यहां तक कि शहर के व्यवस्थित विस्तार का जिम्मा संभालने वाले श्रीनगर विकास प्राधिकरण ने भी बेमीना में अपना दफ्तर बना लिया. बाढ़ ने इन इमारतों को 10 फीट पानी के भीतर खड़ा कर दिया. सात सितंबर को पानी आने तक भी इलाके में भरी जेब और खाली समझ को साफ-साफ दर्शाती दर्जनों इमारतों के निर्माण का काम चल रहा था. ऐसे कई उदाहरण हैं. झेलम के बहाव के साथ लगता इसका जो बायां किनारा था वह कभी खाली हुआ करता था. झेलम का जलस्तर बढ़ता तो तटबंध पर बने निकास खोलकर अधिकारी अतिरिक्त पानी वहां छोड़ देते थे. लेकिन बीते कुछ समय में इस जगह भी अवैध बस्तियां बस गईं. तो ऐसे में झेलम का पानी वहां छोड़ना भी मुश्किल हो गया. सोइतांग एक ऐसी ही कालोनी थी. यहां स्थानीय विधायक जावेद मुस्तफा कई हजार निवासियों के साथ चौकसी कर रहे थे ताकि तटबंध से पानी छोड़ने का सरकार का कोई भी प्रयास असफल किया जा सके. यह अलग बात है कि श्रीनगर को डुबाने के बाद तटबंध खुद ही टूट गया.
श्रीनगर की इस समस्या का राज्य में चल रहे राजनीतिक टकराव से भी गहरा सबंध है. स्थानीय जानकार बताते हैं कि निर्माण के मामले में यहां अराजकता 1975 से शुरू हुई. यह वही साल था जब शेख अब्दुल्ला और इंदिरा गांधी के बीच एक समझौता हुआ था जिसके बाद कश्मीरियों को आत्मनिर्णय का अधिकार देने के अब्दुल्ला के 23 साल पुराने अभियान का अंत हो गया था. अब्दुल्ला का राजनीतिक लक्ष्य पूरा नहीं हो पाया इसलिए उन्होंने पार्टी कार्यकर्ताओं को दूसरे तरीके से संतुष्ट करने की सोची. ऐसा उन्होंने उनके लिए नियमों में ढील देकर किया. इसका नतीजा शहर के व्यावसायिक इलाकों में खुल्लमखुल्ला अतिक्रमण के रूप में सामने आया और इसके चलते ही बेमीना जैसे इलाके वजूद में आए.
पिछले 25 साल के अलगाववाद ने इस समस्या को और विकराल किया. 90 के दशक में जब सरकारी तंत्र ढह गया था तो उसी दौरान राज्य के ग्रामीण इलाकों से से लोग बड़ी संख्या में श्रीनगर की तरफ पलायन कर रहे थे. इन लोगों में एक बड़ी संख्या उनकी थी जो पैसे वाले थे और आतंकवाद और इसके चलते हो रही परेशानियों के चलते गांव छोड़ना चाहते थे. इस पलायन के चलते मकानों की जरूरत काफी बढ़ गई. इस जरूरत को भूमाफियाओं ने पूरा किया. जल्द ही बिल्डरों और प्रॉप्रटी डीलरों के एक नेटवर्क ने खाली जमीनों को कंक्रीट के जंगल में तब्दील करना शुरू कर दिया. इनमें से ज्यादातर जमीनें उन इलाकों में पड़ती थीं जो कभी झेलम का विस्तार संभालते थे. लेकिन ये महंगे दामों पर बिकने लगीं और कइयों के दाम तो साल भर में दोगुने हो गए. बाद में सरकारी तंत्र में थोड़ी जान लौटी भी तो अधिकारी और नेता इस नेटवर्क के साथ मिल गए. इसके एवज में उन्हें अकूत मुनाफा जो मिलने वाला था. रियल एस्टेट पिछले एक दशक के दौरान घाटी में सबसे प्रमुख कारोबार बन गया और इसने श्रीनगर के हर खाली हिस्से को पाटकर आपदा को न्यौतने जैसा काम कर दिया.
पीडीपी नेता नईम अख्तर कहते हैं, ‘देखा जाए तो नया श्रीनगर की प्लानिंग सरकार ने नहीं बल्कि भूमाफिया ने की है. पिछले 20 साल के दौरान जो भी कॉलोनियां बनीं उन्होंने श्रीनगर का गला घोंटने का काम किया और इस बाढ़ से हुए विनाश की भूमिका लिखी.’ अख्तर बताते हैं कि 1975 से पहले राज्य सरकार ने श्रीनगर में दो आवासीय कॉलोनियां बसाई थीं और दोनों इस बाढ़ से अछूती रहीं. इनमें पहली शहर के उत्तर में स्थित सौरा इलाके में है और दूसरी दक्षिणी हिस्से में स्थित संतनगर और रावलपुरा में. 1947 से पहले महाराजा हरि सिंह ने कर्णनगर बसाया था. आज यह एक भव्य बाजार है. यह इलाका भी बाढ़ से अछूता रहा.
लेकिन बाढ़ से अपना भविष्य सुरक्षित करने के ऐसे प्रयासों में क्या यह भी शामिल होगा कि पिछले 25 साल की गलतियों को सुधारा जाए?
1903 की भयानक बाढ़ के समय हरि सिंह के चाचा महाराजा प्रताप सिंह का शासन था. इस बाढ़ के बाद उन्होंने आगे इससे बचने के रास्ते सुझाने के लिए अंग्रेज इंजीनियरों को श्रीनगर बुलाया था. 1902 में भी श्रीनगर में भारी बाढ़ आई थी. तब भी वह श्रीनगर के एक बड़े हिस्से को निगल गई थी और हर तरफ तबाही का मंजर हो गया था. इन इंजीनियरों ने शहर में छोटी और बड़ी नहरों का एक नेटवर्क बनाया जो बाढ़ की स्थिति में अतिरिक्त पानी को शहर से बाहर ले जाता था. प्रताप सिंह ने कई जगहों पर झेलम के तल की खुदाई भी करवाई थी. इससे नदी की गहराई और नतीजतन ज्यादा पानी आने की सूरत में भी खतरा न होने की संभावना बढ़ गई थी. श्रीनगर में कोई निर्माण करवाते हुए भी काफी ध्यान रखा जाता था कि वह पानी के स्वाभाविक रास्ते में न हो. नहरों के नेटवर्क और दूरदर्शिता से बना यह एक तंत्र था जो श्रीनगर शहर को बाढ़ से बचाए रखता था.
लेकिन बीते दो दशक के दौरान इस तंत्र की धज्जियां उड़ा दी गईं. अराजक तरीके से हुए निर्माण ने आपदा का असर काफी बढ़ा दिया. बाढ़ में कई पुलों का बह जाना साफ संकेत है कि लोग भूल चुके थे कि यह पानी का रास्ता है. रामशू कहते हैं, ‘2014 की इस भयानक बाढ़ का सबसे अहम कारण यही है कि झेलम से उसकी जगह छीन ली गई. पानी के रास्तों पर हुए अतिक्रमण, नदियों में जमी गाद और नदी के किनारों पर सड़क निर्माण ने झेलम घाटी में बाढ़ का खतरा बढ़ा दिया था.’
बांबे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी का भी मानना है कि कि आपदा की प्रमुख वजह दलदली जमीन (वेटलैंड्स) पर हुआ अतिक्रमण था. सोसायटी के निदेशक डॉ. असद रहमानी कहते हैं, ‘पिछले 30 सालों के दौरान कश्मीर घाटी में वेटलैंड्स में करीब 50 फीसदी की कमी आई है. इसका कारण है अंधाधुंध निर्माण जिसमें पर्यावरण के लिए कोई सम्मान नहीं है. यह निर्माण मुख्यत: व्यावसायिक गतिविधियों के चलते हुआ है.’ वे आगे कहते हैं, ‘अगर इन वेटलैंड्स को सुरक्षित रखा जाता तो जान-माल को हुए इस भयानक नुकसान को कम से कम किया जा सकता था.’
इस आपदा ने राज्य सरकार के लिए मुश्किल में डालने वाले कुछ सवाल पैदा कर दिए हैं. लोग पूछ रहे हैं कि आखिर क्यों प्रशासन ने उस जगह को बचाने के लिए सारे जरूरी कदम नहीं उठाए जो राज्य की राजधानी होने के साथ-साथ प्रशासन और आर्थिक गतिविधियों का केंद्र भी है.
सवाल यह भी उठ रहे हैं कि इन वजहों को देखते हुए श्रीनगर को राजधानी बनाए रखना कितना व्यावहारिक है. अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण शहर हमेशा ही बाढ़ के खतरे की जद में है. ऊपर से अंधाधुध और बेतरतीब निर्माण के बाद यह खतरा और बढ़ गया है. शहरों की योजना में विशेषज्ञता रखने वालीं अनीस द्रबू कहती हैं, ‘हकीकत यह है कि श्रीनगर और इसके आसपास का इलाका बाढ़ के लिहाज से खतरनाक है. मौसम में आ रहे बदलावों के चलते ग्लेशियरों का पिघलना इस खतरे को और बढ़ा रहे हैं. शहर के लिए पानी की निकासी का एकमात्र रास्ता झेलम है जिसमें गाद भरी होने के चलते उसका दम फूल रहा है. निकासी के लिए जब तक तत्काल गंभीर प्रयास नहीं किए जाते तब तक ऐसी बाढ़ भविष्य में आम हो सकती है.’
श्रीनगर स्थित शेरे कश्मीर यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज एंड टेक्नॉलॉजी का एक अध्ययन बताता है कि 2031 तक श्रीनगर में एक इंच भी जगह खाली नहीं बचेगी. राज्य के मुख्य सचिव इकबाल खांडे कह रहे हैं कि भविष्य में ऐसी किसी भी आपदा को रोकने के लिए झेलम दरिया में स्पिल चैनल निर्माण के लिए 22 हजार करोड़ की योजना का प्रस्ताव है और उन्हें उम्मीद है कि केंद्र सरकार इसे मंजूरी दे देगी. उनके मुताबिक दक्षिण कश्मीर में संगम के निकट झेलम दरिया के पास से ही एक स्पिल चैनल अथवा फ्लड चैनल बनाया जाएगा. यह नहर उत्तरी कश्मीर में वुल्लर झील तक होगी और जब भी झेलम का जलस्तर बढ़ेगा, यह नहर बढ़े हुए पानी को वुल्लर तक पहुंचाएगी.
लेकिन बाढ़ से अपना भविष्य सुरक्षित करने के ऐसे प्रयासों में क्या यह भी शामिल होगा कि पिछले 25 साल की गलतियों को सुधारा जाए? लालच, भ्रष्टाचार और हिंसा के जिस गठजोड़ ने बादशाहों, यात्रियों, कवियों और सूफियों को लुभाने वाले श्रीनगर को बदसूरत बना दिया है, वह खत्म हो.
जो हालात हैं उनमें फिलहाल तो ऐसा होना संभव नहीं लगता.