बात शायद 1996-97 की है. हम अविभाजित उत्तर प्रदेश के अल्मोड़ा जिले में सराईखेत नाम के गांव में रहते थे. पिताजी फौज में थे और मां स्वास्थ्य विभाग में कर्मचारी के बतौर वहीं तैनात थीं. ये वो दौर था जब कुमाऊं-गढ़वाल के उस सुदूर इलाके में मेरे माता-पिता का सरकारी नौकरी में होना अपने आप में एक बड़ी बात थी. मूल रूप से उस क्षेत्र का न होने के बावजूद शायद माता-पिता के व्यवहार और सफलता के कारण ही दूर-दूर तक लोग हमारे प्रति अपनत्व और आदर का भाव रखते थे.
उस समय मनोज नाम का मेरा एक मित्र था, उम्र में शायद मुझसे कुछ बड़ा. वह नेपाली मूल का था. उसके माता-पिता मजदूरी करके गुजारा करते थे. उनका हाथ बंटाने के लिए मनोज भी कबाड़ जमा करता था. हम दोनों की सामाजिक पृष्ठभूमि एक-दूसरे के ठीक विपरीत थी. उम्र इतनी छोटी थी कि भेदभाव, ऊंच-नीच, अमीर-गरीब जैसे बड़े शब्दों के मायने समझ से परे थे. हम अक्सर साथ घूमते, साथ-साथ खेलते और कई बार घूमते-घूमते मैं उसके साथ कबाड़ ढूंढने भी निकल पड़ता था. गांव में स्कूल था पर अभी मेरी उम्र अभी स्कूल जाने की नहीं हुई थी.
एक रोज खेल-खेल में ही मनोज ने मुझे बताया कि वह हर शाम बस में झाड़ू लगाता है जिसके बदले में उसे दो रुपये मिलते हैं. दो रुपये उन दिनों गांव के एक तीन-चार साल के एक बच्चे के लिए यह बड़ी रकम हुआ करती थी. दो रुपये में तब शायद 10 कंचे आते थे. उत्साह में आकर मैंने भी बस में झाड़ू लगाने की इच्छा जाहिर की और मनोज के साथ चल पड़ा.
शाम को स्टैंड पर बस पहुंची नहीं कि हम उस पर टूट पड़े. उत्साह इतना था कि अभी सवारी निकली भी नहीं थी कि मैंने झाड़ू लगानी शुरू भी कर दी थी. मेरी उत्सुकता देखकर एक सज्जन ने मुझसे नाम पूछ लिया. मैंने झट से नाम बताया और कहा, ‘मुझे काम में देरी हो रही है.’ यह कहकर उनसे बाहर जाने का आग्रह किया.
चंद मिनटों में बस साफ हो गई और दो रुपये का सिक्का लिए मैं और मनोज अपने दूसरे दोस्तों के साथ खेलने निकल गए. चेहरे पर एक अलग-सी चमक छा गई और सिर गर्व से ऊपर हो गया था. भला हो भी क्यों न… आखिर यह मेरी पहली कमाई जो थी. अपनी मेहनत का पैसा जो था!
घर पहुंचा तो देखा बस में मिले सज्जन सामने कुर्सी पर बैठे चाय पी रहे हैं. मुझे देख मां ने कहा बेटा मामा को प्रणाम करो. मेरी तरफ देख वे चौंककर मां से बोले, ‘ये आपका बेटा है? थोड़ी देर पहले तो ये बस में झाड़ू लगा रहा था! एक और लड़का भी था इसके साथ.’ इसके बाद घर में जो महाभारत हुआ उसके बारे में मैं क्या लिखूं… मुझ पर क्या-क्या कहर बरपा होगा, आप समझ ही गए होंगे.
मनोज से मिलने पर पाबंदी लगा दी गई. मैं गुमसुम रहता था. मां को मेरी बढ़ती हुई बेचारगी की चिंता सताने लगी. नतीजा ये हुआ कि स्कूल के प्रधानाचार्य से बात करके यह इंतजाम कराया गया कि मेरी कम उम्र के बावजूद बिना नाम दर्ज किए कक्षा में बैठने की अनुमति मिल गई. मकसद ये था कि स्कूल में रहूंगा तो बच्चों के साथ कम से कम क, ख, ग तो सीख ही लूंगा. बंद मुट्ठी में रखी रेत की तरह वक्त बीतता गया… गांव में अच्छे स्कूल की कमी के कारण मुझे नैनीताल भेज दिया गया और मनोज की यादें दिनों-दिन धुंधली होती चली गईं.
आज इस घटना को हुए करीब दो दशक बीत गए हैं पर कभी-कभी याद आती है मनोज की, बचपन की बेपरवाही और हमारी निश्छलता की. वह मासूमियत जो तमाम सामाजिक कारकों को दरकिनार करते हुए मन को भेदभाव के अंधेरे से दूर रखती थी. मनोज आज न जाने कहां है. पर जब भी नौकरी और तनख्वाह की चर्चा होती है तब मुझे यकायक बस में मनोज के साथ झाड़ू लगाकर दो रुपये कमाने की वह घटना याद आ जाती है. आशा करता हूं मनोज भी कहीं किसी कोने में मेरे इस लेख या समझिये पत्र को पढ़ रहा होगा.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)