छह महीने पुरानी बात है. प्रधानमंत्री पद पर नरेंद्र मोदी की ताजपोशी के अगले दिन यानी 27 मई को एक खबर आई जो बहुत चर्चा में रही. यह खबर प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव की नियुक्ति को लेकर थी. खबर के मुताबिक इस पद पर भारतीय दूरसंचार नियामक आयोग (ट्राई) के पूर्व चेयरमैन नृपेंद्र मिश्र को नियुक्त करने की बात चल रही थी. लेकिन उनकी नियुक्ति में एक बड़ी कानूनी बाधा थी. दरअसल नृपेंद्र मिश्र जिस ट्राई के मुखिया के पद से रिटायर हुए थे उसके प्रावधान कहते थे कि ट्राई का अध्यक्ष या सदस्य रह चुका व्यक्ति रिटायर होने के बाद कोई अन्य सरकारी पद ग्रहण नहीं कर सकता है. लेकिन नृपेंद्र मिश्र के प्रति नरेंद्र मोदी का अनुराग कुछ ऐसा था कि वे हर हाल में उन्हें अपना प्रमुख सचिव बनाना चाहते थे. ऐसे में केंद्र सरकार ने अध्यादेश लाकर ट्राई के प्रावधानों में संशोधन किया और उनकी नियुक्ति का रास्ता साफ कर दिया. आज नृपेंद्र मिश्र पीएमओ के सबसे ताकतवर अधिकारी हैं.
इस पूरे घटनाक्रम से एक बात साफ होती है कि सरकार यदि चाहे तो संवैधानिक पदों पर लोगों को नियुक्त करने या हटाने के रास्ते में आनेवाली कानूनी अड़चनों से आसानी से निपट सकती है. सरकार के सामने एक बार फिर इसी तरह की स्थिति उत्पन्न थी लेकिन इस बार सरकार ने एकदम जुदा रवैया अपनाया. वह कानूनी दिक्कतों का हवाला देकर इस मामले से पल्ला झाड़ गई. यह मामला देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी मानी जाने वाली सीबीआई से जुड़ा था. फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के कठोर रुख और एक्टिविस्ट अधिवक्ता प्रशांत भूषण की याचिकाओं के चलते इस संस्था और उसके मुखिया की प्रतिष्ठा धूमिल हुई है.
सुप्रीम कोर्ट ने बीते 20 नवंबर को सीबीआई के मुखिया रंजीत सिन्हा के आचरण को उनके पद की मर्यादा के अनुरूप न पाने के कारण उन्हें 2जी मामले की जांच से अलग होने का आदेश दिया था. सुप्रीम कोर्ट की इस कार्रवाई को जानकार कई मायनों में असाधारण और ऐतिहासिक मानते हैं. इस आदेश के आधार पर एक तबका सीबीआई प्रमुख के इस्तीफे की मांग करने लगा. लेकिन केंद्र सरकार दूसरी दलील दे रही है. उसका कहना है कि सीबीआई निदेशक का पद एक निश्चित समय सीमा के लिए होता है इसलिए वह इस मामले में कुछ नहीं कर सकती. इस तरह से केंद्र सरकार उनके रिटायरमेंट का इंतजार करती रही. हालांकि जिस दिन सुप्रीम कोर्ट ने सिन्हा को 2जी मामले से हटाने का आदेश दिया तब उनके कार्यकाल के सिर्फ बारह दिन शेष रह गए थे. लिहाजा उनके इस्तीफा देने या न देने का कोई बहुत महत्व बचता नहीं है. लेकिन नैतिकता की अपनी परिभाषा है जिसे इस देश में हर व्यक्ति अपने हिसाब से तय करता है. बड़े-बड़े घोटालों में फंसनेवाले राजनेता भी बिना किसी झिझक के अपने पदों और मंत्रालयों से चिपके रहते हैं. इस लिहाज से नैतिकता अपना अर्थ खो चुकी है वरना सिन्हा स्वयं ही पदमुक्त हो जाते.
नृपेंद्र मिश्रा की तर्ज पर ही सरकार सुप्रीम कोर्ट के कड़े बयान के बाद सीबीआई निदेशक के खिलाफ कोई कार्रवाई कर सकती थी. लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया. इस रिपोर्ट के पाठकों तक पहुंचने से पहले शायद वे सेवानिवृत हो चुके होंगे, लेकिन केंद्र सरकार की जवाबदेही फिर भी बनी रहेगी. सुप्रीम कोर्ट का आदेश आने से लेकर रंजीत सिन्हा के रिटायर होने तक इन 12 दिनों की छोटी-सी समयावधि में इतना कुछ घटित हो चुका है, जिससे भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकार की मंशा पर सवाल उठाये जा सकते हैं.
वरिष्ठ अधिवक्ता और आम आदमी पार्टी के नेता प्रशांत भूषण ने इसी साल दो सितंबर को सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी. इस याचिका में उन्होंने सीबीआई प्रमुख रंजीत सिन्हा पर 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के आरोपितों से सांठगांठ का आरोप लगाया था. गैर सरकारी संगठन सेंटर फॅर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन की तरफ से दायर की गई याचिका में अदालत को बताया गया कि पिछले एक साल के दौरान अनिल अंबानी के स्वामित्ववाले रिलायंस ग्रुप के दो अधिकारियों सहित कई ऐसे लोगों ने सीबीआई प्रमुख से उनके घर पर मुलाकात की है. अपने आरोपों के पक्ष में प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट के सामने रंजीत सिन्हा के दो जनपथ स्थित सरकारी आवास की एक विजिटर्स डायरी बतौर सबूत पेश की थी. इस डायरी में उन लोगों के नाम, घर आने की तारीख, आने-जाने का समय और उनकी गाड़ियों के नंबर आदि दर्ज थे जो उनसे मिलने पहुंचे थे. 2जी घोटाले में जांच का सामना कर रहे ऐसे अधिकारियों के साथ सीबीआई प्रमुख की मुलाकात को अनैतिक बताते हुए प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट से मांग की थी कि सिन्हा को इस मामले की जांच से अलग कर दिया जाना चाहिए. इसी याचिका पर सुनवाई करने के बाद 20 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने सिन्हा को 2जी मामले की जांच से हटने का आदेश दिया था. अदालत ने इस घटना को पूरी संस्था की विश्वसनीयता के लिए चिंताजनक बताया.
राष्ट्रीय सहारा अखबार के समूह संपादक रणविजय सिंह कहते हैं, ‘सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद सिन्हा को या तो इस्तीफा दे देना चाहिए था या फिर छुट्टी पर चले जाना चाहिए था. लेकिन ऐसा कुछ भी उन्होंने नहीं किया.’ इस मामले में रणविजय सरकार की मंशा को और बड़ा खतरा मानते हैं, ‘अदालत की कठोर टिप्पणी के बाद सरकार को एक संदेश देना चाहिए था लेकिन वह ऐसा करने में नाकाम रही.’ इस मामले में मीडिया से बात करते हुए याचिकाकर्ता प्रशांत भूषण का कहना था कि सिन्हा के हटने से सीबीआई की गिरती साख को बचाने में मदद मिलेगी और इस संस्था के प्रति लोगों के गिरते विश्वास को बहाल किया जा सकेगा.’ 2जी और कोयला घोटाले के आरोपितों के साथ सीबीआई निदेशक की मुलाकातों का खुलासा होने के कुछ ही दिन बाद सीएसडीएस के संपादक और राजनीतिक विश्लेषक अभय कुमार दुबे ने भी कुछ ऐसी ही राय जाहिर की थी. तहलका से बातचीत में उनका कहना था, ‘यह सरकार की परीक्षा होगी कि वह इस मामले पर क्या रुख अपनाती है, क्योंकि यह मामला प्रथम दृष्टया कई तरह की आशंकाओं को जन्म देती है.’
सीबीआई की धूमिल प्रतिष्ठा में जितना योगदान उसके मुखिया का है उससे ज्यादा उस व्यवस्था का है जो लंबे समय से इस संस्था की बांह तोड़ती-मरोड़ती रही है
हालांकि इस पूरे प्रकरण पर रंजीत सिन्हा के बचाव के अपने तर्क हैं. वे कहते हैं, ‘मैं कोर्ट के आदेश का पालन करते हुए इस जांच से हट रहा हूं. लेकिन मुझे कोई अफसोस नहीं है क्योंकि कोर्ट ने मेरे खिलाफ व्यक्तिगत रूप से कुछ नहीं कहा है.’ थोड़ा अतीत में झांके तो रंजीत सिन्हा का पूरा करियर कई तरह के विवादों से भरा रहा है. साल 2012 में सीबीआई के निदेशक के रूप में इनका दो साल का कार्यकाल भी इसी कड़ी का हिस्सा है. सबसे बड़ा विवाद उनकी नियुक्ति को लेकर ही था. तत्कालीन यूपीए सरकार ने सेंट्रल विजिलेंस कमीशन की आपत्तियों को दरकिनार करते हुए उन्हें सीबीआई निदेशक पद पर नियुक्त किया था. उस वक्त विपक्ष में रहनेवाली भारतीय जनता पार्टी ने सिन्हा की नियुक्ति का विरोध भी किया था. प्रख्यात वकील और आम आदमी पार्टी के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ चुके एचएस फूल्का कहते हैं, ‘आम आदमी पार्टी ने सिन्हा की नियुक्ति का उसी वक्त विरोध किया था, जब केंद्र सरकार उन्हें सीबीआई निदेशक बनाने का फैसला ले रही थी. हमारी आशंका सही साबित हुई है.’ इस मामले से इतर भी कई ऐसी चीजें हंै जिनमें सिन्हा की भूमिका विवादित रही है.
एक मामला इसी साल अप्रैल महीने के आखिरी दिनों का है. 2जी मामले में आरोपी और पूर्व दूरसंचार मंत्री दयानिधि मारन तथा उनके भाई के खिलाफ सीबीआई, एयरसेल-मैक्सिस सौदे में हुई गड़बड़ियों की जांच कर रही थी. यह बात सामने आ रही थी कि सीबीआई के पास मारन और उनके भाई के खिलाफ पुख्ता सबूत थे. सीबीआई उनके खिलाफ आरोपपत्र तैयार करने की प्रक्रिया में थी. इसी बीच सीबीआई प्रमुख का एक बयान आया कि मारन बंधुओं के खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं हैं, लिहाजा उन्हें इस मामले में आरोपी बनाना मुश्किल होगा. यह बयान मामले की जांच कर रहे अधिकारियों के बयान से विरोधाभास पैदा कर रहे थे. जांच अधिकारियों तथा सीबीआई मुखिया के इन विरोधाभासी बयानों के बाद इस मामले को अटॅर्नी जनरल के पास भेज दिया गया. तब तक देश में आम चुनावों का परिणाम सामने आ चुका था और एनडीए को बहुमत मिल चुका था. ऐसे में अटॅर्नी जनरल ने नई सरकार को इस पर फैसला लेने की बात कह कर अपनी राय देने से इंकार कर दिया. नई सरकार बन जाने के बाद नये अटॅर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने सीबीआई के जांच अधिकारियों की बात को सही माना और राय दी कि मारन बंधुओं के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए सीबीआई के पास पर्याप्त सबूत हैं. रोहतगी के इस बयान ने सीबीआई प्रमुख की स्थिति को कमजोर किया. सीबीआई ने इस मामले में मारन बंधुओं को आरोपी बनाते हुए आरोप पत्र दायर कर दिया है.
विवादों से सिन्हा का नाता 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान भी रहा. कथित तौर पर लोकसभा चुनाव के ठीक पहले वे चारा घोटाले से जुड़े तीन मामलों में लालू के खिलाफ आरोप हटवाना चाहते थे. उनका तर्क था कि इन तीनों मामलों में भी लालू के खिलाफ वही सारे सबूत हैं जिनके आधार पर लालू एक मामले में पहले ही पांच साल की सजा भोग रहे हैं. इस मामले में भी सीबीआई के एक अधिकारी ने उनकी राय के विपरीत विचार दिए. बाद में सॉलीसिटर जनरल ने राय दी कि इस बात का फैसला ट्रायल कोर्ट के हाथों में छोड़ दिया जाना चाहिए. जब वे बिहार में डीआईजी के पद पर थे तब भी चारा घोटाले की जांच में लालू यादव को मदद के आरोपों उन पर लगे थे. उस समय लालू बिहार के मुख्यमंत्री थे और सिन्हा पटना में सीबीआइ के डीआइजी थे. लालू के पक्ष में रिपोर्ट तैयार करने के आरोप में तब पटना हाई कोर्ट ने सिन्हा को जांच से हटाने का आदेश दिया था.
विवादों से सिन्हा का नाता लंबा रहा है लेकिन पिछले साल अप्रैल में हुए कोयला घोटाले की स्टेटस रिपोर्ट के लीक होने का मामला उल्लेखनीय है. इस मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को ‘पिंजरे में बंद तोता’ की उपमा से नवाजा. तब सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में सीबीआई कोयला आवंटन घोटाले की जांच कर रही थी. इसी दौरान कोर्ट ने सीबीआई से इस मामले की स्टेटस रिपोर्ट जमा करने को कहा. कायदे के मुताबिक सीबीआई को यह रिपोर्ट सीधे सुप्रीम कोर्ट को दिखानी चाहिए थी, लेकिन ऐसा न करके इस रिपोर्ट को कानून मंत्री अश्विनी कुमार के साथ ही कोयला मंत्रालय के अधिकारियों को न सिर्फ दिखाने की बात अदालत में स्वीकार की बल्कि उन्होंने सरकार के निर्देश पर इनमें बदलाव भी किए. सीबीआई प्रमुख के इस कदम को बेहद गंभीर और गलत माना गया. सीबीआई के पूर्व निदेशक त्रिनाथ मिश्रा ने तब सीबीआई के आचरण को गलत बताते हुए कहा था, ‘स्टेटस रिपोर्ट देखने के लिए कानून मंत्रालय द्वारा सीबीआई के अधिकारियों को अपने कार्यालय में बुलाया गया, यह गलत परंपरा की शुरुआत है.’
सीबीआई की लगातार गिरती प्रतिष्ठा में जितना योगदान उसके मुखिया का है उससे कहीं ज्यादा योगदान उस राजनीतिक व्यवस्था का है जो लंबे समय से इस संस्था की बांह तोड़ती-मरोड़ती आ रही है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2जी घोटाले की जांच से हटाए जाने का दाग ताउम्र रंजीत सिन्हा के साथ रहेगा लेकिन उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि मौजूदा माहौल में इस संस्था से उठ चुके विश्वास की बहाली का जिम्मा जिन लोगों के ऊपर है वे भी किसी तरह की उम्मीद नहीं जगाते हैं.