दिल्ली के अंतिम मुगल शासक बहादुरशाह जफर ने अंग्रेजी शासन के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद किया था और जब वे अंग्रेजों की पकड़ में आए तो उन्हें सजा के तौर पर म्यामार (तत्कालीन वर्मा) की राजधानी यंगून (रंगून) में जेल की काल कोठरी में गुजारनी पड़ी थी. उनका इंतकाल जेल में हो गया था. अपनी बेदिनी और बेवतनी पर जफर ने एक गजल लिखी थी जिसका अंतिम अशआर कुछ इस तरह था, ‘कितना बदनसीब जफर दफ्न के लिए, दो गज जमीं भी न मिली कुए यार में.’ इतिहास के पन्नों में दर्ज जफर के संघर्ष और उसकी पीड़ा से गुजरते हुए किसी की भी आंखें नम हो जाती होंगी. लेकिन हकीकत आज भी यही है कि भारत की लाखों की आबादी वाली कालबेलिया जनजाति को दफ्न के लिए दो गज जमीन की खातिर मारा-मारा फिरना पड़ रहा है. प्रशासनिक अधिकारियों से शिकायत दर्ज कराने पर भी ज्यादातर समय उन्हें न्याय नहीं मिलता हो तब स्वभाविक है कि पीड़ित समुदाय कुछ इस तरह ही खुद को अभिव्यक्त करना चाहेगा- ‘हम सारी जिंदगी भटकते रहते हैं और नसीब ऐसा कि मरने के बाद भी मिट्टी नहीं मिलती है.’
इस हकीकत को टटोलने के लिए हम भीलवाड़ा जिले के कुछ गांवों में पहुंचे. हम सबसे पहले ज्ञानगढ़ ग्राम पंचायत पहुंचे. इस गांव में कालबेलिया समुदाय के लगभग 15 घर हैं. भीलवाड़ा जिले का यह गांव गुर्जर बहुल है. यहां हम कालबेलिया समुदाय के एक परिवार के घर गए जिनके यहां दो सदस्यों की मृत्यु पिछले कुछ वर्षों में हुई और जब उन्हें दफनाने के लिए गांव की सामूहिक शमशान भूमि पहुंचे तो दूसरी जातियों के लोगों ने शव को दफ्न नहीं करने दिया. अंततः स्वादी देवी ने घर के आंगन में पहले अपने ससुर और बाद में घर से दो किलोमीटर दूर अपने पति को समाधि दे दी. भीलवाड़ा जिले के कलेक्टर रवि कुमार सुरपुर से कालबेलिया समाज के लोगों का दूसरी जातियों द्वारा किए जा रहे उत्पीड़न और उन्हें मृतकों को दफन करने के लिए भूमि आवंटन नहीं किए जाने की बात पूछी तो उनका जवाब था-‘जिस भी गांव में इस तरह की दिक्कत हो, उस गांव के लोग आवेदन दें, हम कार्रवाई करेंगे. ‘इस इलाके में सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय रहनेवाले मजदूर किसान शक्ति संगठन के महत्वपूर्ण सदस्य भंवर मेघवंशी को हमने जिला कलेक्टर की बात बताई और कहा कि आप पीड़ित गांव के लोगों के लिए आवेदन दीजिए. भंवर मेघवंशी ने बीच में टोकते हुए कहा है, ‘कालबेलिया समुदाय का उत्पीड़न भीलवाड़ा के सिर्फ तीन-चार गांव में नहीं हो रहा है. कालबेलियों का उत्पीड़न भीलवाड़ा के ज्यादातर गांवों में हो रहा है. यह समस्या राज्य के दूसरे जिलों मसलन बाड़मेर, पाली, जोधपुर, अजमेर, बांसवाड़ा, राजसमंद आदि में भी है.’
रोजी-रोटी के लिए भिक्षावृत्ति
स्वादी देवी की उम्र 50 के करीब है. लगभग तीन वर्ष पूर्व इनके ससुर नैनूनाथ कालबेलिया की मौत हो गई थी और जाट समुदाय के लोगों ने उनकी लाश को गांव के खेत-खलिहान और सरकारी जमीन में भी दफ्न नहीं करने दिया। हाल ही में उनके पति की भी मौत हो गई. स्वादी देवी ने बताया, ‘हम घुमंतू जाति से आते हैं. जिंदगीभर हम रोजी-रोटी के लिए भटकते रहते हैं. हमारे पास रहने को कोई ठिकाना नहीं. सरकार द्वारा बीपीएल, राशन कार्ड सहित कोई सुविधा नहीं. पानी भी खरीदना पड़ता है. घर है तो उसका पट्टा, गांव के एक दबंग भैरों सिंह के पास है.’ स्वादी देवी के चार बेटे हैं. दो बेटों की शादी हो चुकी है. घर में एक ही मिट्टी का कमरा है जिसमें इतनी जगह नहीं है कि हाल ही में मां बनी बहू को सोने की जगह मिल सके. दोनों बहुएं खुले में सोती हैं. पूरा परिवार खुले में शौच निपटान के लिए जाते हैं. आर्थिक उपार्जन के नाम पर परिवार के पास कुछ बकरियां और कुछ मुर्गियां बची हैं. पिछले महीने ओला गिरने से छह बकरियां मर गईं.
स्वादी देवी का बड़ा बेटा उगमनाथ कालबेलिया कुछ महीने पहले जोधपुर से बहुत बीमार हालत में घर लौटा है. 23 वर्षीय उगमनाथ जोधपुर में एक फार्म हाउस में बंधुआ मजदूर के बतौर काम करता था. उगम छठी जमात पास है और अपने गांव के कालबेलिया समाज का वह सबसे ज्यादा पढ़ा-लिखा लड़का है. उगमनाथ समेत राज्य की कई लाख आबादीवाले कालबेलिया समाज के बारे में घुमंतू, अर्द्घ-घुमंतू एवं विमुक्त जाति परिषद के प्रदेश अध्यक्ष रत्ननाथ कालबेलिया चिंता भरे स्वर में कहते हैं- ‘इस समाज का पारंपरिक पेशा सांप पकड़ना, बीन बजाना, मनोरंजन करना, हाथ चक्की चलाना आदि खत्म सा हो चला है. इनके पास भीख मांगने और बीन बजाने जैसे काम ही बचे हैं. भीख मांगने के पेशे को न अपनाना पड़े इसलिए उगमनाथ बंधुआ मजदूरी करने जोधपुर चला गया था लेकिन तीन साल के दौरान ही उसका स्वास्थ्य पूरी तरह चौपट हो गया. अब मुश्किल से उसकी जान बच पाई है.’
गांव भीतर गांव
ज्ञानगढ़ में सार्वजनिक पानी पर दबंग जातियों के लोगों का अधिकार है. यहां एक सरकारी हैंडपंप था, जो कई साल से रूठा हुआ है और उसकी सुध लेने भी कोई नहीं आता. कालबेलिया समाज के लिए पीने का पानी तो छोड़िए नहाने और धोने तक के लिए भी पानी नहीं है. हर घर में पानी की एक हौज है, जिसे भरवाने का खर्च 300 रुपये आता है. 10 लोगों का पूरा परिवार इस हौज के पानी से महीने-डेढ़ महीने गुजारा करता है. हमने हौज का ढक्कन हटाकर नंगी आंखों से देखा तो वहां छोटे-छोटे जलचर अपनी दुनिया बसा चुके नजर आए. कमोबेश यही स्थिति भीलवाड़ा जिले के एक दूसरे गांव उप-ग्राम ‘नायकों का खेड़ा’ में भी देखने को मिली. ‘नायकों का खेड़ा’ अपने मूल गांव गोरखिया से थोड़ी दूरी पर बसा हुआ है. गोरखिया गांव, भीलवाड़ा जिले के करेड़ा तहसील में पड़ता है. एक ही गांव के भीतर दो गांव इसलिए बसे क्योंकि बड़ी और समृद्घ जाट और गुर्जर आबादी को एक साथ गुजर करना कभी भी मंजूर नहीं रहा. मेघवंशी जी की मानें तो कालबेलिया समुदाय का शोषण करने में बड़ी और अगड़ी जातियां तो आगे हैं ही लेकिन अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में शामिल जातियां भी इनके शोषण के मामले में किसी से पीछे नहीं हैं.
‘नायकों का खेड़ा’ गांव में कालबेलियों के 10 परिवार रहते हैं जबकि मूल गांव गोरखिया की आबादी कुछ हजार से भी ज्यादा की है. ‘नायकों का खेड़ा’ गांव तक पहुंचने के लिए एक कच्चा और संकरा रास्ता है. रास्ते के दोनों ओर बबूल और थोर के कांटों की झाड़ें लगी हुई हैं. रास्ते इतने तंग हैं कि आप बच-बचाकर ही गांव में पहुंच सकते हैं. जरा सी चूक हुई नहीं कि आपका पांव बुरी तरह से छलनी हो जा सकता है. मुख्य सड़क से लगभग तीन किलोमीटर दूर स्थित इस गांव में पहुंचने पर पहला घर श्रवणनाथ कालबेलिया का है. एक छोटे से प्लॉट पर श्रवणनाथ के दो भाइयों का परिवार शांति और सुकून से कई वर्ष से रह रहा था. श्रवणनाथ की मौत तीन महीने पहले हो गई तो उन्हें दफनाने की मुसीबत पेश आई. गांव की दबंग जातियों के लोगों ने उनके शव को दफनाने की छूट सरकारी जमीन तक पर नहीं दी. अंततः उन्हें रात के निपट अंधेरे में चुपके से घर से कोई 50 कदम दूर सरकारी जमीन में दफनाया गया. दूसरे दिन जब मूल गांव गोरखिया के जाट और गुर्जर आबादी को इसकी खबर लगी तो वे इसकी शिकायत करने थाना पहुंच गए. उन्होंने पत्थरों से बनी श्रवणनाथ की समाधि को हटाने के लिए हरसंभव दबाव बनाने की कोशिश की. थानेदार ने गांववालों से जब इस बारे में पूछा कि ऐसा क्यों किया और अब लाश को जमीन से निकालना पड़ेगा, इसके जबाव में श्रवणनाथ के गांव के लोगों ने कहा कि हमारे पास अपने मृतकों को दफनाने की जगह नहीं है तो हम क्या करें? कालबेलिया समाज के लोग जब इस मुद्दे पर गोलबंद होते दिखे तो पुलिस ने मामला गंभीर होता देख गोरखिया के लोगों को किसी तरह शांत किया. श्रवणनाथ और उनके भाई के घरों के चूल्हे और दरवाजे पर लगे तालों को देखकर हमें यह साफ-साफ समझ में आया कि इस घर में पिछले कुछ सप्ताह से कोई आया-गया नहीं है. पड़ाेस के दो-तीन घरों में हमें छोटी उम्र के कुछ बच्चे मिले जो इस बारे में कुछ भी बता पाने में असमर्थ दिखे. हम गांव के दूसरे सिरे से निकलने लगे तब कालबेलिया समुदाय की तीन औरतें खेतों में काम करती दिखीं और जब उनसे इस बारे में पूछताछ की तो उन्होंने दोनों हाथ हवा में उठाए और इनकार में सिर हिलाया. कई बार पूछने और उकसाने पर भी उनके मुंह पर श्रवणनाथ के घर पर लटके तालों की तरह ही कोई हरकत नहीं हुई. दोनों परिवार के लोगों के घर में मौजूद नहीं होने के बारे में लौटने की वजह दबंग जातियों का खौप था या रोजी-रोटी के जुगाड़ में यहां-वहां दर-ब-दर होने की बेबसी, इसका अनुमान भर ही लगाया जा सकता था.
हमें ज्ञानगढ़ के उगमनाथ ने भीलवाड़ा जिले की रूपाहेली ग्राम पंचायत के पोंडरास गांव की किस्सा सुनाया जिसकी पुष्टि प्रसिद्घ सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा रॉय और रतननाथ ने भी का. पोंडरास में घुमंतू कालबेलिया समुदाय के करीब 30 परिवार रहते हैं. इनके पास रिहाइश और खेती के लिए थोड़ी बहुत जमीनें हैं लेकिन मुर्दों को दफनाने के लिए जमीन नहीं है. नतीजन इन्हें अपने मृत परिजनों के शरीरों को घरों में या खेतों की मेड़ाें पर दफनाना पड़ रहा है. इस इलाके के निवासी नारायणनाथ ने बताया कि बीते साल के दिसंबर महीने में गीता बाई कालबेलिया की मृत्यु हो गई थी.
गांव के लोग जब गीता के शव को अन्य समुदायों की शमशान भूमि के पास खाली पड़ी जमीन पर दफनाने के लिए ले जाने लगे तो गांव के ही लोहार समुदाय के लोगों ने आपत्ति जताई और वहां शव को दफनाने नहीं दिया. इसी गांव में कालबेलिया परिवार के एक सदस्य की मौत बीते साल नवंबर में हो गई थी और उसका मृत शरीर दो दिन तक घर में पड़ा रहा था. इस गांव में 2013 की जनवरी की एक रात को 62 वर्षीय नाथूनाथ कालबेलिया की मृत्यु हो गई. इस बार समुदाय के लोगों ने मांग की कि उन्हें शमशान के लिए भूमि दी जाए. वे शमशान भूमि की मांग को लेकर मृतक के घर के बाहर ही बैठ गए और कहा कि वे लाश का अंतिम संस्कार तब ही करेंगे जब उनके समुदाय के लिए जमीन आवंटित की जाएगी. कालबेलिया अधिकार मंच, राजस्थान के प्रदेश संयोजक रतननाथ ने इस घटना के बारे में बताया, ‘हमने स्थानीय विधायक रामलाल जाट से संपर्क किया लेकिन उन्होंने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.
फिर हमने भीलवाड़ा के कलेक्टर को फोन किया और कहा कि हम शव कहां दफन करें? कलेक्टर महोदय ने कहा कि हम क्या करें, जहां मर्जी हो कर लो. इसके बाद मैंने अरुणा रॉय से संपर्क किया. अरुणा जी ने मुख्यमंत्री कार्यालय (सीएमओ) में संपर्क किया. सीएमओ से कलेक्टर को फोन आया तब पटवारी गांव पहुंचा और किसी तरह इस इलाके में एक नदी बहती है उसके किनारे उस व्यक्ति को दफनाया जा सका.’ दो दिन बीत जाने के बाद प्रशासन की ओर से पटवारी राजेश पारीक व वार्ड पंच राजू जाट (वार्ड पंच एवं सरपंच पति) मृतक के घर पहुंचा था. उन्होंने मामले की गंभीरता को देखते हुए अन्य समुदायों की शमशान भूमि के पास ही खाली पड़ी जमीन को कालबेलिया समुदाय के लिए शमशान आवंटित करने का आश्वासन देते हुए मृतक का अंतिम संस्कार वहीं पर करने को कहा लेकिन कालबेलिया समुदाय के लोगों ने उस जमीन को बस्ती से बहुत दूर होने की बात कहते हुए वहां दफनाने से इंकार कर दिया. कालबेलिया की मान्यता यह भी है कि वे अपने मृतकों का शव गांव से बहुत दूर भी दफनाना नहीं चाहते हैं.
कालबेलिया को लेकर राज्य सरकार और जिला प्रशासन के असंवेदनशील रुख के बारे में अरुणा रॉय ने बताया, ‘कालबेलिया समुदाय के लोगों के पास बीपीएल और राशन कार्ड भी नहीं हैं. इनके बच्चों के लिए स्कूल नहीं है. यह सही है कि कालबेलिया घुमंतू जनजाति हैं. रोजीरोटी के लिए इन्हें दर-ब-दर होना पड़ता है लेकिन राज्य सरकार को इनके शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजी-रोटी आदि के लिए गंभीरता से पहल करनी चाहिए.’