किराये पर किचकिच

room rent

महानगरों की सीमा के पार स्थित गांव, कस्बों और छोटे शहरों के लाखों बच्चों का सपना होता है कि वह महानगर में आकर अपनी पढ़ाई-लिखाई कर भविष्य के रास्ते संवारे. इनमें से अधिकांश युवाओं का सपना राजधानी दिल्ली से होकर गुजरता है. हर साल लाखों की संख्या में छात्र-छात्राएं अपना भविष्य बनाने दिल्ली की ओर कूच करते हैं. मगर दिल्ली जैसे महानगरों की हकीकत कुछ और है. यहां आने के बाद उनके जीवन का सफर संघर्ष में बदल जाता है. किराये का मकान खोजने से इस संघर्ष की शुरुआत होती. फिर किराया और मकान मालिकों के चंगुल में वे ऐसा फंसते हैं कि निकलना मुश्किल होता है.

 राजधानी वजीराबाद में रहकर यूपीएसी की तैयारी करने वाले संतोष कुमार आजमगढ़ से हैं. वे बताते हैं, ‘जब दिल्ली आया तो मेरे एक जानने वाले यहां पहले से तैयारी कर रहे थे. पहले सोचा था कि मुखर्जी नगर में रहूंगा, लेकिन यहां कमरा बिना प्रॉपर्टी डीलर के नहीं मिलता है. प्रॉपर्टी डीलर से यहां के महंगे किराये के बारे में पता चला. किसान परिवार से मेरे जैसे आए लड़कों का यहां रहना काफी मुश्किल है. फिर कुछ लोगों ने बताया कि बाइपास की दूसरी तरफ वजीराबाद है. वहां सस्ता मकान मिल जाता है.’

 वजीराबाद की कहानी ये है यहां सभी सुविधाएं नहीं मिलती हैं. नोट्स भी लेना हो तो उसके लिए मुखर्जी नगर आना होता है. इस वजह से काफी समय बर्बाद होता है. इसके अलावा वजीराबाद में बिजली और पानी की भी काफी दिक्कत होती है. सारा समय इन दिक्कतों से निपटने में ही खत्म हो जाता है. इसके इतर मुखर्जी नगर जैसे इलाकों में रहने वाले के लिए 12 हजार से लेकर 16 हजार रुपये तक किराया है. वहीं दिल्ली के दूसरे इलाकों में पांच से छह हजार रुपये में कमरे आसानी से मिल जाते हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय में आसपास के इलाकों में कमरों का किराया दिन-ब-दिन आसमान छू रहा है. हाल ये है कि तमाम इलाकों में नियम-कानून को परे रख मनमाना किराया वसूला जा रहा है. इस वजह से छात्र-छात्राओं को मजबूर होकर सड़क पर उतरना पड़ा. इसके लिए छात्र-छात्राएं दिल्ली रूम रेंट कंट्रोल मूवमेंट संगठन के बैनर तले पिछले कुछ दिनों से आंदोलन कर रहे हैं. इतना ही नहीं संगठन ने गांधी जयंती पर अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल करने का फैसला लिया है.

दिल्ली विश्वविद्यालय के लक्ष्मीबाई कॉलेज की छात्रा श्वेता सिंह हॉस्टल न मिलने की वजह से गांधी विहार में रहती है. श्वेता बताती हैं, ‘मैं बिहार के सहरसा के एक गांव से 12वीं करने के बाद दिल्ली पढ़ने आई. हॉस्टल के अलावा कहीं और रहना काफी महंगा पड़ता है. मेरे कमरे का किराया 12 हजार है. इसमें मेरे अलावा दो लड़कियां और रहती हैं. घर से सात से आठ हजार रुपये ही मिलते हैं. अचानक कोई खर्च आ जाए तो उतने पैसों में गुजारा करना मुश्किल हो जाता है.’

आंदोलन कर रहे छात्र-छात्राओं की मांग है कि दिल्ली किराया नियंत्रण अधिनियम, 1958 लागू किया जाए ताकि किराये की दर हर जगह समान हो

 दिल्ली रूम रेंट कंटोल मूवमेंट से जुड़कर आंदोलन कर रहे छात्र-छात्राओं की मांग है कि दिल्ली किराया नियंत्रण अधिनियम, 1958 लागू किया जाए ताकि किराये की दर हर जगह समान हो. एक जगह तीन हजार तो दूसरी जगह 13 हजार रुपये का किराया न वसूला जाए. संगठन का आरोप है कि राजधानी में मकान मालिक किराये की रसीद तक नहीं देते हैं. इसके अलावा किरायेदारों से ढंग से पेश भी नहीं आते हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय और उसके दूसरे कॉलेजों में चल रही दाखिले की प्रक्रिया के चलते राजधानी में इन दिनों कमरों के किराये में आग लगी हुई है और छात्र-छात्राएं मकान मालिकों के मनमाने किराये पर कमरा लेकर रहने को मजबूर हो रहे हैं. किराये पर कमरा लेने की प्रक्रिया कितनी जटिल और महंगी है इसे ऐसे समझा जा सकता है. हालात इतने बुरे हैं कि कुछ मकान मालिक खुद अपने मकान के एजेंट या प्रॉपर्टी डीलर बन जाते हैं या अपने किसी पड़ोसी को बना देते हैं. प्रक्रिया ये है कि किराये का कमरा दिलाने के एवज में एजेंट या प्रॉपर्टी डीलर 15 दिन का किराया अपने मेहनताने के तौर पर वसूलता है. इसके बाद छात्र-छात्राओं को मालिक को सिक्योरिटी मनी यानी एक महीने का किराया और एक महीने का किराया बतौर एडवांस चुकाना पड़ता है. मान लीजिए एक कमरे का किराया 10 हजार है. ऐसे में आपको पांच हजार यानी 15 दिन का किराया एजेंट को, 10 हजार रुपये सिक्योरिटी मनी और कमरे का एडवांस किराये के रूप में 10 हजार और देने पड़ते हैं. यानी 10 हजार कमरा लेते वक्त आपको कुल 25 हजार रुपये चुकाने पड़ते हैं, जो किसी छात्र के लिए अदा करना खासा मुश्किल होता है. इन परिस्थितियों में मकान मालिक खुद या उसका कोई करीबी एजेंट बन जाए तो उसे इस जटिल प्रकिया के चलते पांच हजार रुपये सीधे-सीधे मिल जाते हैं.

 दिल्ली रूम रेंट कंटोल मूवमेंट के संयोजक प्रवीण कुमार बताते हैं, ‘दिल्ली किराया नियंत्रण अधिनियम, 1958 में, वर्ष 1995 में संशोधन किया गया, लेकिन उस पर फिर कभी कोई बात नहीं की गई. दिल्ली सरकार ने भले ही बिजली-पानी की दर सस्ती कर दी हो लेकिन छात्र-छात्राओं से अब भी पुरानी दरों पर बिल वसूला जा रहा है.’ इन मांगों के समर्थन में अब तक 30,000 से अधिक लोगों ने मांगपत्र पर हस्ताक्षर किया है. दिल्ली विश्वविद्यालय के अध्यापक संघ भी इसके समर्थन में नजर आ रहे हैं.

 दिल्ली यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन (डूटा) की अध्यक्ष नंदिता नारायण कहती हैं, ‘दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए हर साल लाखों की संख्या में छात्र-छात्राएं आते हैं. मैं छात्रों की हर मांग का समर्थन करती हूं. गरीब छात्रों के लिए रियायती दरों पर भोजन, पानी और आवास उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेदारी है. विश्वविद्यालय और इसके हॉस्टलों के बाहर भी इसे लागू करना चाहिए.’

दिल्ली यूनिवर्सिटी स्टूडेंट यूनियन (डूसू) के उपाध्यक्ष परवेश मलिक कहते हैं, ‘हम लोग विश्वविद्यालय से लगातार हॉस्टल की संख्या बढ़ाने का लेकर बात कर रहे हैं. विश्वविद्यालय प्रशासन ने हमें आश्वासन दिया है कि जल्दी ही हॉस्टलों की संख्या बढ़ाई जाएगी. इसे लेकर हम दिल्ली सरकार से भी मिल चुके हैं. दिल्ली किराया नियंत्रण अधिनियम, 1958 छात्रहित में लागू होना चाहिए. दिल्ली विश्वविद्यालय में आइसा के अध्यक्ष अमन नवाज कहते हैं, ‘आइसा इस मामले को काफी समय से विश्वविद्यालय प्रशासन के सामने उठाती रही है, लेकिन डूसू में आइसा का प्रतिनिधित्व न होने के कारण प्रशासन हमारी बातों को सही तरह से नहीं सुनता है. आइसा दिल्ली रूम रेंट कंट्रोल मूवमेंट केे साथ है.’

दिल्ली विश्वविद्यालय अधिनियम की धारा 33 में हर छात्र-छात्रा के लिए अनिवार्य रूप से आवास की व्यवस्था करना विश्वविद्यालय की जिम्मेदारी बताई गई है. दिल्ली विश्वविद्यालय में हॉस्टल की संख्या काफी कम है, जिसकी वजह से छात्रों को मजबूरी वश बाहर कमरा लेकर रहना पड़ता है और मकान मालिक का अत्याचार सहना पड़ता है.

दिल्ली के वैसे तो लगभग सभी इलाकों में छात्र-छात्राएं रहते हैं, लेकिन मुख्य तौर पर मुखर्जी नगर, दिल्ली विश्वविद्यालय के आसपास के इलाकों में, लक्ष्मी नगर के आसपास और जेएनयू के आसपास रहते हैं. कमरा लेते वक्त किरायेदार उनसे तमाम तरह के सवाल पूछते हैं, फिर तमाम दस्तावेज मांगे जाते हैं.

देवघर झारखंड के मूल निवासी सौरभ पांडे लक्ष्मी नगर में रहकर सीए की तैयारी कर रहे हैं. उनका कहना है, ‘किरायेदार का पुलिस की ओर से सत्यापन होने के बाद और तमाम दस्तावेज जमा होने के बाद भी मकान मालिक किरायेदार को शक की निगाह से देखता है कि ये किराया देगा या भाग जाएगा. किराया देने में अगर एक दिन की भी देरी हो जाए तो मकान मालिक बेचैन होने लगता है और सामान तक बाहर फेंकने की बात करने लगता है.’

‘छात्र-छात्राएं घर वालों से किराये के लिए समय से पैसा लेते हैं, पर हमें समय से नहीं देते. समय पर हमें पैसा नहीं मिलेगा तो हम अपना काम कैसे करेंगे?’

दिल्ली विश्वविद्यालय के नजदीक ही क्रिश्चियन कॉलोनी है. मणिपुर के मांगचा यहां रहकर लॉ की पढ़ाई कर रहे हैं. पांच साल पहले वह डीयू में पढ़ाई करने के लिए आए थे. हॉस्टल न मिलने की वजह से उन्हें बाहर रूम लेकर रहना पड़ रहा है. उन्होंने डीयू से ही स्नातक किया है. जब पढ़ने आए तो तीन दोस्तों ने मिलकर विजय नगर में दो रूम का एक मकान 8000 रुपये महीने की दर से किराये पर लिया. लेकिन एक साल बाद ही मकान मालिक ने किराया बढ़ाकर 12 हजार रुपये कर दिया. वे बताते हैं, ‘इस वजह से कमरा छोड़ना पड़ा. क्रिश्चियन कॉलोनी में काफी दिक्कत है. कमरा थोड़ा सस्ता है मगर छोटा है. कॉमन वॉशरूम हैं, घर की हालत भी बहुत जर्जर है. पर किराया कम होने से लोग यहां रहने को मजबूर हैं.’

कमोबेश यही हाल दिल्ली के लाडो सराय में रहने वाली मेघा का है. वह एक साल पहले ही टोंक स्थित बनस्थली विद्यापीठ से बीटेक करने के बाद यहां गेट  की तैयारी करने आई हैं. वह बताती हैं, ‘मकान मालिक मकान देने से पहले दो महीने का सिक्योरिटी मनी मांगते हैं. एडवांस नहीं देने पर पीजी मिलना मुश्किल होता है. किराया देने में एक-दो दिन देरी हो जाए तो मकान मालिक काफी गंदे तरीके व्यवहार करते हैं.’

rent cntrl

 इन परिस्थितियों से दिल्ली आने वाले हर छात्र-छात्राएं रूबरू हो रहे हैं. इन सब दिक्कतों की मुख्य वजह दिल्ली किराया नियंत्रण अधिनियम, 1958 का लागू न होना है. इस कानून का मुख्य उद्देश्य किरायेदारों के हितों की रक्षा करना है. यह कानून मकान मालिक को किरायेदारों से ज्यादा किराया वसूलने और जबरदस्ती मकान से निकालने से प्रतिबंधित करता है. विश्व के लगभग 40 देशों में किराया नियंत्रण कानून मौजूद है. इस कानून के लागू होने के 30 साल बाद इसमें संशोधन कर दो बदलाव किए गए. पहला 3500 रुपये से ज्यादा किराया चुकाने वालों को इस कानून के दायरे से बाहर कर दिया गया. दूसरा, हर तीन साल पर 10 प्रतिशत तक किराया बढ़ाने का प्रावधान किया गया. इसके बाद 1995 में भारत सरकार ने दिल्ली किराया अधिनियम पास कर दिया. इसके तहत बाजार भाव के हिसाब से किराया तय करने और जरूरत पड़ने पर किरायेदार को मकान से बेदखल करने का प्रावधान कर दिया गया. किरायेदारों ने इसका विरोध किया तो सरकार को इसे वापस लेना पड़ा.

पढ़ाई करने के लिए दिल्ली आने वाले छात्र-छात्राओं के प्रति मकान मालिकों का नजरिया भी ठीक नहीं होता. मकान मालिकों का ये मानना है कि जो बच्चे यहां आते हैं उनके परिवार वालों के पास इतना तो पैसा होता है कि वे 10,000 या 12,000 रुपये तक किराया चुका सकंे. तभी वह इतने महंगे शहर में पढ़ने के लिए अपने बच्चों को भेजते हंै. इसे मकान मालिक सुखबीर मल्होत्रा की नजर से समझा जा सकता है. वे कहते हैं, ‘अगर इतना किराया नहीं दे सकते तो यहां क्यों पढ़ने आते हैं? हमने भी तो अपनी मेहनत के पैसे से घर बनाया है. अगर हमें समय से किराया न मिले तो हम अपने घर में इन्हें क्यों रहने दें? छात्र-छात्राएं अपने घर वालों से किराये के लिए समय से पैसा ले लेते हैं, लेकिन हमें समय से नहीं देते. अगर सही समय पर हमें पैसा नहीं मिलेगा तो हम अपना काम कैसे करेंगे? ये जब हमारे यहां रहने आते हैं तो काफी सभ्य बनकर आते हैं, बाद में कमरे पर पार्टी और हुल्लड़बाजी करते हैं.’ इस तरह की सोच वाले मकान मालिकों का मानना है दिल्ली किराया नियंत्रण कानून नहीं लागू होना चाहिए क्योंकि इससे सभी मकान मालिकों को दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा और छात्र-छात्राएं मनमानी करने लगेंगे.

2009 में दिल्ली में हाउस टैक्स संबंधी नियमावली बनाई गई थी, जिसके तहत हाउस टैक्स संपत्ति के क्षेत्रफल के हिसाब से तय किया जाता है. पहले यह संपत्ति पर मिलने वाले किराये पर तय किया जाता था, लेकिन क्षेत्रफल के हिसाब से हाउस टैक्स तय किए जाने के वजहों से मकान मालिक अब मनमाने तरीके से किराया वसूलने के साथ टैक्स की चोरी करता है. 2005 में शहरी क्षेत्रों के विकास के लिए जवाहर लाल नेहरू शहरी नवीकरण मिशन (जेएनएनयूआरएम) लागू किया गया था. इसके तहत शहरी क्षेत्रों में सात जरूरी सुधार होने थे. इनमें किराया अधिनियम में भी सुधार किया जाना था. दिल्ली की एक स्वयंसेवी संस्था पीआईएल वाच ग्रुप ने इस मिशन और इसके तहत किराया कानून से संबंधित किराया कानूनों की पड़ताल कर एक रिपोर्ट प्रकाशित की है. इसमें बताया गया कि जेएनएनयूआरएम के शुरू होने के बाद किसी भी एक राज्य में किराये से संबंधित कानून में कोई बदलाव नहीं हुआ है. खैर, दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच छिड़ी जंग में छात्र-छात्राओं से जुड़ा ये अहम मुद्दा कहीं खो सा गया है.