दिल बदलते दल

sonia
फाइल फोटो

परिवर्तन सनातन सिद्धांत है. जितना सच यह भौतिक जगत के लिए है उतना ही खरा यह वैचारिक और सैद्धांतिक धरातल पर भी है. बदलाव की प्रक्रिया दो रूपों में सामने आती है. ज्यादातर मामलों में होता यह है कि परिस्थितियां ऐसी उत्पन्न हो जाती हैं जिनमें लोग बदलाव करने के लिए विवश हो जाते है. जिस तरह के हालात बनते हैं लोग खुद को उसके हिसाब से ढालते रहते हैं. चार्ल्स डार्विन ने इसे सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट यानी योग्यतम की उत्तरजीविता कहा था. कई बार ऐसा भी होता है कि कुछ विलक्षण लोग ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न कर देते हैं जिनमें लोगों को अपने भीतर बदलाव करने पड़ते हैं. भारतीय राजनीति ऐसे दुर्लभ पड़ावों की साक्षी रही है. 1947 में भारत ने पश्चिम द्वारा ईजाद की गई लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनी राजव्यवस्था का हिस्सा बनाया. ये वे लोग थे जिनका उससे पहले लोकतंत्र से दूर दूर तक कोई लेना-देना नहीं था. उस दौर के दूरदर्शी नेतृत्व ने एक और बड़ा काम किया. संविधान के रूप में एक ऐसा दस्तावेज तैयार किया जिसकी मूल आत्मा धर्मनिरपेक्षता थी. आजाद भारत के शुरुआती दिनों में ये कुछ ऐसे कदम थे जिनके सफल-असफल होने की संभावना एक समान थी. पिछले 67 सालों से यह विचार पूरी सफलता के साथ काम करता रहा. देश की राजव्यवस्था धर्म और पंथ के मसलों से खुद को दूर रखते हुए अपना काम बखूबी करती रही है.

अब भारतीय राजनीति में एक नए दौर की आहट है. एक नया नेतृत्व आया है जिसने पिछले 60-65 सालों की स्थापित मान्यताओं को पुनर्परिभाषित करना शुरू किया है. एक आम सोच देखने को मिल रही है कि भारतीय जनता पार्टी को हालिया लोकसभा चुनावों में मिली भारी सफलता के पीछे की तमाम वजहों में से एक वजह गैर भाजपाई दलों की अत्यंत मुसलिम परस्त छवि भी थी. इसकी वजह से बहुसंख्यक हिंदू समाज का बड़े पैमाने पर भाजपा के पक्ष में ध्रुवीकरण हुआ. नतीजों के बाद जो हालात पैदा हुए हैं उनमें गैर भाजपा दल तेजी से खुद में ऐसे बदलाव करते दिख रहे हैं जिनके बारे छह महीने पहले तक सोचना भी मुश्किल था. उदाहरण के लिए कांग्रेस ने अपनी राज्य इकाइयों को निर्देश जारी किया है कि वे आगे से सभी हिंदू त्यौहार मनाएं, समाजवादी पार्टी ने भी अपने मुसलिम हितैषी रुख में नरमी दिखाई है. आजम खान जैसे नेता फिलहाल हाशिए पर डाल दिए गए हैं. सुदूर दक्षिण की सनातन धर्म विरोधी पार्टी डीएमके ने भी पहली बार विनायक चतुर्थी की शुभकामना दी है. साफ है कि चुनावी नतीजों के बाद राजनीतिक फलक पर बदलाव की एक नई इबारत लिखी जा रही है. वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय के शब्दों में, ‘यह भारतीय राजनीति में एक नए चरण की शुरुआत है. पुराने स्थापित मापदंड पिघल रहे हैं. नए मापदंड स्थापित हो रहे हैं. भारत की राजनीति करवट ले रही है.’

लोकसभा चुनाव के नतीजों ने कुछ दिलचस्प तथ्य सामने रखे हैं. 282 सीटें जीतने वाली भाजपा के पास एक भी मुसलिम सांसद लोकसभा में नहीं है. इससे पैदा हुई स्थितियों में बाकी राजनीतिक दल तेजी से अपनी वैचारिक और राजनैतिक जमीन टटोल रहे हैं, उसे ‘रीएडजस्ट’ कर रहे हैं. इसके जो संदेश हैं वे एक ही बात का इशारा करते हैं कि अब देश की राजनीति 16 मई 2014 के पूर्व की स्थापित मान्यताओं के मुताबिक नहीं चलेगी. वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक परंजय गुहा ठाकुर्ता कहते हैं, ‘यह सच है कि भारत एक धर्म प्रधान देश है, लेकिन यह राजनीति में धर्म का नया रूप है. मंदिर आंदोलन के समय भी दूसरे राजनीतिक दल इस तरह से नहीं बदले थे. यह एक खतरनाक ट्रेंड है. धर्म और मेजोरिटेरियन आइडियोलॉजी  यानी बहुसंख्यकवादी विचारधारा का आपस में मिलना बहुत गंभीर बात है. देश की ज्यादातर अशिक्षित और गरीब जनता को समय रहते इस खतरे को समझना होगा.’

‘बाकी पार्टियों को चिंता सताने लगी है कि उन्होंने धर्मनिरपेक्षता पर ज्यादा जोर दिया तो उन्हें चुनावी नुकसान होगा. इसलिए वे अपने पुराने स्टैंड से पीछे हट रही हैं’

सबसे पहले बात देश की सबसे बड़ी और सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की. पिछले 14 अगस्त को पार्टी की दिल्ली इकाई ने एक घोषणा की. इसके मुताबिक 17 अगस्त को पार्टी के दिल्ली स्थित प्रदेश कार्यालय में कृष्ण जन्माष्टमी का उत्सव मनाया जाना था. साथ में भजन संध्या का भी आयोजन किया गया था. दिल्ली इकाई के नेताओं ने इस कार्यक्रम में पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी को भी आमंत्रित किया था. बहरहाल राहुल गांधी इस कार्यक्रम से दूर रहे लेकिन कार्यक्रम निर्धारित योजना के हिसाब से संपन्न हुआ. पूरे देश में महज 44 सीटों पर सिमट गई कांग्रेस के इस कदम को भाजपा के उस आरोप का जवाब माना जा रहा है जिसके मुताबिक कांग्रेस मुसलिम परस्त राजनीति करती है. इन आरोपों को चुनाव से पहले हुई उस घटना से भी बल मिला जब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के घर पर जामा मस्जिद के शाही इमाम सैय्यद अहमद बुखारी मिलने पहुंचे और बाद में उन्होंने मुसलमानों से कांग्रेस के पक्ष में वोट डालने की अपील की. ताजा हालात के मद्देनजर पार्टी ने जो कदम उठाए हैं उसके बारे में पार्टी के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘कांग्रेस पार्टी गैर मुसलिमों को साफ-साफ संदेश देना चाहती है कि वह सबकी आस्था का सम्मान करती है. दिल्ली के बाद पार्टी दूसरे राज्यों और दूसरे त्यौहारों में भी इस प्रयोग को दोहराएगी.’

धर्म का आसरा सपा नेता पवन पांडे एक धार्मिक कार्यक्रम में शिलान्यास करते हुए
धर्म का आसरा सपा नेता पवन पांडे एक धार्मिक कार्यक्रम में शिलान्यास करते हुए

कांग्रेस की दिक्कत यह है कि उसका अपना इतिहास भी भगवा खेमे के आरोपों को बल देता है. पार्टी के राष्ट्रीय मुख्यालय 24 अकबर रोड में जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के जन्म और मृत्यु से संबंधित आयोजनों के अलावा जो एकमात्र आयोजन बड़े पैमाने पर किया जाता है वह है रमजान के दौरान होने वाली ‘इफ्तार पार्टी’. पार्टी के नेता कहते हैं, ‘अब हमें खुद में बदलाव की जरूरत है. इसलिए हमने अब दूसरे त्यौहारों को भी मनाने का फैसला किया है.’ पार्टी के रुख को भांपते ही कांग्रेस की राज्य इकाइयां अपने-अपने स्तर पर हरकत में आ गई हैं. 29 अगस्त को मध्य प्रदेश के भोपाल स्थित कांग्रेस दफ्तर में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव ने एक भव्य गणेश प्रतिमा स्थापित करवाई और गणेश चतुर्थी पर पूजा-पाठ किया. ऐसा पहली बार हुआ. देखादेखी पूरे प्रदेश के कांग्रेस कार्यालयों में गणेश प्रतिमा स्थापित करने की होड़ लग गई. परंजय कहते हैं, ‘अस्सी और नब्बे के दशक में तेजी से भाजपा का कांग्रेसीकरण हुआ था. उतना ही बड़ा सच यह भी है कि हाल के सालों में कांग्रेस का उससे ज्यादा तेजी से भाजपाईकरण हुआ है. जब भाजपा और संघ ने हिंदुत्व को विकास से जोड़ने का काम किया तो दबे-छुपे कांग्रेस ने भी वही काम करना शुरू कर दिया.’

पार्टी के रुख में आए इस बदलाव की एक वजह लोकसभा चुनाव में हुई हार की समीक्षा करने के लिए बनी एके एंटनी कमेटी की रिपोर्ट भी मानी जा रही है. अपनी रिपोर्ट में पूर्व रक्षा मंत्री ने कहा है कि पार्टी के ऊपर जो मुसलिम परस्त होने का ठप्पा लगा हुआ है वह पार्टी को भारी पड़ा है. इस नई परंपरा की बाबत मध्य प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष अरुण यादव का कहना था कि उन्हें नहीं पता कि अब तक ऐसा क्यों नहीं किया गया और न ही वे इस पर कोई टिप्पणी करना चाहते हैं.

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय राजनीति विभाग के प्रोफेसर और वरिष्ठ चिंतक प्रो. तुलसीराम बताते हैं, ‘धर्म निरपेक्ष पार्टियां संघ और भाजपा के व्यूह में फंस गई हैं. भाजपा राष्ट्रवाद के रूप में असल में सांप्रदायिकता को बढ़ा रही है. बाकी राजनीतिक पार्टियों को यह चिंता सताने लगी है कि यदि उन्होंने धर्म निरपेक्षता पर ज्यादा जोर दिया तो उन्हें चुनावी नुकसान होगा. इसलिए वे अपने पुराने स्टैंड से पीछे हट रही हैं. लेकिन तय मान लीजिए कि ऐसा करके बाकी राजनीतिक पार्टियां आने वाले समय में और भी कमजोर होंगी. सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद जैसे विषयों में संघ को महारत है. कोई भी उन्हें उनकी पिच पर जाकर मात नहीं दे सकता. यह बड़े खतरे का समय है और बाकी राजनीतिक दलों को इस समय धर्मनिरपेक्षता पर डटे रहने की जरूरत है.’

जो प्रयोग कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर कर रही है वही रसायन क्षेत्रीय दल राज्यों के स्तर पर तैयार कर रहे हैं. चुनाव के नतीजे उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी के लिए भी बेहद निराशाजनक रहे हैं. इन नतीजों की पृष्ठभूमि में पार्टी ने कुछ ऐसे कदम उठाए हैं जिससे यह लगता है कि पार्टी अपने पुराने रुख में कुछ बदलाव कर रही है. पार्टी के सबसे अहम मुसलिम नेता आजम खान को हाशिए पर डाल दिया गया है. ये वही आजम खान हैं जिन्हें पार्टी अब तक अपने सबसे मुखर मुसलिम चेहरे के तौर पर पेश करती आई है. लोकसभा चुनावों के दौरान आजम खान ने भी माहौल को हिंदू बनाम मुसलिम बनाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी थी. पर नतीजे आने के बाद पार्टी ने आजम खान से लगभग किनारा कर लिया है. पार्टी मुखिया मुलायम सिंह ने आजम खान की कीमत पर उनके सबसे बड़े विरोधी अमर सिंह से रिश्ते सुधारने की पहल की है. पार्टी की अहम बैठकों से फिलहाल उन्हें दूर रखा जा रहा है या शायद वे स्वयं ही उनसे दूर रह रहे हैं.

सपा पर मुसलिम तुष्टिकरण का जो आरोप लगा था उससे निपटने की कोशिश मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अपने स्तर पर भी कर रहे हैं. मुख्यमंत्री ने उस बनारस के घाटों के पुनरोद्धार और सौंदर्यीकरण के लिए करोड़ों की योजना की घोषणा की है. गौरतलब है कि बनारस उनके धुर विरोधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का निर्वाचन क्षेत्र है. इतना ही नहीं, बनारस नगर से सपा का कोई विधायक भी नहीं है. जाहिर है बनारस जैसे धार्मिक नगर से शुरू किए गए किसी कार्यक्रम का अपना राजनीतिक संदेश होता है. वरिष्ठ पत्रकार गोविंद पंत राजू कहते हैं, ‘आजम खान को लेकर पार्टी के रुख में आया बदलाव महत्वपूर्ण है. बाकी घटनाओं के बारे में अभी पूरे विश्वास से कुछ कह पाना मुश्किल है.’

डीएमके नेता एमके स्टालिन द्वारा ट्विटर पर दी गई  बधाई
डीएमके नेता एमके स्टालिन द्वारा ट्विटर पर दी गई  बधाई

बदलाव की सुगबुगाहट सपा के विधायकों और नेताओं में व्यक्तिगत स्तर पर भी देखने को मिल रही है. अयोध्या से विधायक तेज नारायण पांडेय उर्फ पवन पांडे का उदाहरण प्रासंगिक है. लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद पवन पांडे ने अपने क्षेत्र में विकास की गतिविधियों और शिलान्यास की झड़ी लगा दी है. ध्यान देने पर हम पाते हैं कि इनमें से ज्यादातर काम काज हिंदू धार्मिक महत्व से जुड़े हैं न कि सामान्य विकास से. अयोध्या में हर साल लगने वाले सावन मेला, राम विवाह मेला और रामायण मेला को ध्यान में रखते हुए उन्होंने पांच सौ की क्षमता वाले सत्संग भवन की नींव रखी है. इसके अलावा एक करोड़ की लागत से पांच सुलभ शौचालयों का काम भी चल रहा है. सबसे महत्वपूर्ण काम उन्होंने अयोध्या के नया घाट पर 65 लाख रुपये की लागत से मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम द्वार की आधारशिला रखने का किया है. पांडे के इस अतिशय धार्मिक रुझान पर उनकी पार्टी क्या सोचती है? इस बारे मंे पवन पांडे बताते हैं, ‘पार्टी ने मुझे कभी भी नहीं रोका. बल्कि स्वयं मुख्यमंत्रीजी ने हर तरह से मुझे समर्थन और प्रोत्साहन दिया है. मुख्यमंत्रीजी ने अयोध्या में पांच हजार की क्षमता वाले एक ऑडिटोरियम का निर्माण करवाने का आश्वासन भी दिया है.’

बदलाव की बयार उत्तर से लेकर सुदूर दक्षिण तक की राजनीतिक पार्टियों में चल रही है. तमिलनाडु में डीएमके ने 29 अगस्त को एक ऐसा काम किया जिससे देखते ही देखते द्रविड़ राजनीति में भूचाल आ गया. डीएमके के उत्तराधिकारी स्टालिन ने अपने फेसबुक और ट्विटर एकाउंट पर तमिलनाडु की जनता को विनायक चतुर्थी की शुभकामनाएं दी. पेरियार की ब्राह्मणवाद विरोधी विचारधार पर चलने वाली डीएमके ने पहली बार किसी हिंदू धार्मिक त्यौहार की बधाई दी थी. अब तक आम तौर पर पार्टी के मुखिया एम करुणानिधि सनातन धर्म की परंपराओं का विरोध करते ही पाए जाते थे. शुरुआत में स्टालिन के स्टेटस को उनके समर्थकों का जबर्दस्त समर्थन मिला. देखते ही देखते फेसबुक पर 2700 से ज्यादा लाइक आ गए,  200 से ज्यादा कमेंट आ गए और करीब इतने ही लोगों ने इसे शेयर भी कर दिया. इसके बाद विरोध के सुर उभरने शुरू हुए.

MKदरअसल पेरियार की जिस विचारधारा पर डीएमके की राजनीति टिकी है उसमें हिंदू धर्म के तमाम प्रतीकों और स्थापित परंपराओं का विरोध निहित है. इस बात को लेकर स्टालिन की आलोचना शुरू हो गई कि क्या डीएमके अपनी पुरानी विचारधारा से पीछे हट रही है. क्या इसके पीछे तमिलनाडु में भाजपा को मिली सफलता की भी कोई भूमिका है और क्या इसे करुणानिधि का समर्थन भी प्राप्त है. गौरतलब है कि लोकसभा चुनावों में तमिलनाडु की 39 सीटों में से 37 सीटें जयललिता की पार्टी एआईएडीएमके ने जीती हैं जबकि दो सीटें भाजपा और उसके सहयोगी दल पीएमके के खाते में आई हैं. दक्षिण के सूबे में भाजपा को मिली यह सफलता इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि पार्टी की अब तक वहां नाममात्र की भी उपस्थिति नहीं रही है और सूबे की दूसरी महत्वपूर्ण पार्टी डीएमके का सूपड़ा ही साफ हो गया. नतीजा यह हुआ कि शाम होते-होते डीएमके पिछले पांव पर आ गई. पार्टी की तरफ से जारी सफाईनामे में कहा गया कि वह पोस्ट गलतीवश प्रकाशित हुआ है. पार्टी पेरियार की सोच पर कायम है. दोनों पोस्ट डिलीट कर दिए गए. पार्टी समर्थक टेलीविजन नेटवर्क कलाइनार टीवी पर शाम को ही इससे संबंधित कार्यक्रम प्रसारित कर विनायक चतुर्थी की निरर्थकता पर प्रकाश डाला गया.

तो राजनीतिक दलों के रुख में आए इस बदलाव को क्या माना जाय? यह समय की मांग है या राजनीतिक दलों का अवसरवाद है. राम बहादुर राय के शब्दों में, ‘संसदीय राजनीति में वोटरों का रुझान महत्व रखता है. तथ्य इतना भर है कि 2014 में आए नतीजे न तो यह हिंदुत्व को वोट हंै न ही भाजपा को. जिस तरह से नरेंद्र मोदी को निशाना बनाया जा रहा था उनके समर्थकों ने उसी तरह से उसका प्रतिकार भर किया है. मैं इसे राजनीतिक दलों का अवसरवाद नहीं कहूंगा. यह स्थापित सच है कि जो शासक दल होता है वह देश की राजनीतिक संस्कृति को निर्धारित करता है, उसे परिभाषित करता है और उसे पुनर्निर्धारित करता है.’

तो क्या यह सिर्फ मोदी समर्थकों और विरोधियों के बीच का मसला है. जानकारों की राय इस विषय में अलग-अलग है. प्रो. तुलसीराम के शब्दों में, ‘भाजपा की जीत के साथ सांप्रदायिकता व्यवस्था का हिस्सा बन गई है. इससे धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण तेज हुआ है. पहले लोग धर्मनिरपेक्ष विचारधारा को हर फोरम पर मजबूती से रखते थे. इसकी वजह से कम्युनल ताकतें पिछले पांव पर रहती थीं. अस्सी के दशक तक स्थिति यह थी कि जनसंघ और भाजपा यही बयान देते थे कि हमारा हिंदुत्व से कोई लेना-देना नहीं है. पिछले दो दशकों में आरएसएस और भाजपा ने अपनी स्थिति मजबूत की है और दूसरी पार्टियों ने अपना रुख तेजी से बदला है. इन राजनीतिक पार्टियों के लचर रवैये के कारण ही नरेंद्र मोदी आज इस रूप में हमारे सामने उभरे हैं वरना अगर धर्मनिरपेक्ष पार्टियां अपने रुख पर मजबूती से कायम रहती तो 2002-03 में ही नरेंद्र मोदी का राजनीतिक अस्तित्व समाप्त हो जाता.’

बदली हवा के हिसाब से खुद ढालने में राजनेताओं का कोई सानी नहीं होता. यह बात साफ है कि इस समय राजनीतिक दलों के रुख में आ रहे बदलाव के पीछे कुछ हद तक भाजपा की प्रचंड जीत की भूमिका है. पर बहती हवा के साथ बह जाने का नाम लोकतंत्र नहीं है. वैचारिक विभिन्नता लोकतंत्र की ऑक्सीजन है. जल्द ही राजनीतिक दलों को नकल से होने वाले नुकसान का अहसास हो जाएगा. अपने आप नहीं होगा तो लोकतंत्र में खुद भी इतनी ताकत होती है कि वह गलतियों को सुधारने के लिए विवश कर दे.

atul@tehelka.com