छह फरवरी को बिहार में मौसम का मिजाज दो स्तरों पर गड़बड़ाया है- एक प्राकृतिक तापमान और दूसरा राजनीतिक तापमान. वायुमंडल के तापमान में तेजी से गिरावट आयी है और जाते-जाते ठंड ने ठिठुरन पैदा कर दी है. दूसरी तरफ राजनीतिक तापमान, जो लगभग ठंड हो चुका था, वह अचाक से गरमा गया है. दिल्ली चुनाव के एक दिन पहले बिहार की राजनीति को चर्चा में लाकर इसे गरमाने का काम मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने किया है. मांझी ने बागी तेवर अपनाते हुए साफ-साफ संकेत दे दिया हैं कि वे कठपुतली नहीं कि उन्हें जब चाहे मुख्यमंत्री के पद पर बिठा दिया और जब जी में आये, हटा दिया. मांझी के इस बगावती मिजाज से नीतीश कुमार, जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव समेत तमाम बड़े नेता सकते में हैं, लेकिन वे कुछ कर पाने की स्थिति में खुद को नहीं पा रहे हैं. शरद यादव ने सात फरवरी को विधायक दल की बैठक बुलायी, मांझी ने छह फरवरी को ही स्पष्ट कह दिया कि ‘मुख्यमंत्री मैं हूं, विधायक दल का नेता मैं हूं, शरद यादव विधायक दल की बैठक बुलाने वाले कौन होते हैं.’ दरअसल यह शरद की बजाय नीतीश के आदेश पर उनकी मंशा से बैठक बुलायी गयी थी लेकिन मांझी ने भी शरद को केंद्र में रखकर नीतीश को ही जवाब दिया. बात इतनी ही नहीं हुई बल्कि जदयू के कई वरिष्ठ नेता और विधायक खुलकर मांझी के साथ आ गये और एलान कर दिये कि जो मांझीजी से छेड़छाड़ करेगा, वह आग में हाथ डालेगा और जलाएगा.
यानि सीधे-सीधे कई मंत्रियों ने कह दिया है कि मांझी के साथ छेड़छाड़ करने पर जदयू का दोफाड़ हो जाएगा. इनमें वृषण पटेल, शकुनी चौधरी, विनय बिहारी जैसे कई ऐसे मंत्री शामिल हैं, जो नीतीश के खासमखास माने जाते रहे हैं लेकिन अब वे मांझी के साथ खड़े हो गए हैं. इस तरह मांझी के बहाने बिहार की राजनीति दूसरी दिशा में पलट गयी है. यह सब ऐसे समय में हुआ है जब नीतीश कुमार अपनी पार्टी में जान डालने के लिए रोजाना कार्यकर्ताओं व पदाधिकारियों का प्रशिक्षण शिविर करने और उनका मनोबल बढ़ाने में लगे हुए हैं. यह सब उस समय में भी हो रहा है, जब नीतीश कुमार, शरद यादव और बिहार प्रदेश अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह राजद और जदयू का विलय करवाने के लिए दिन-रात एक किए हुए हैं. ऐसे हालात में मांझी के बदले मिजाज से बिहार की सियात में एक नई तस्वीर उभरने लगी है.
मांझी नीतीश और जदयू के गले की फांस बन गए हैं. पार्टी न तो उन्हें निगल पा रही है न उगल पा रही है. अगर नीतीश कुमार पार्टी में मांझी को बनाये रखते हैं तो उन्हें जनता के बीच जवाब देना दूभर हो जाएगा और अगर मांझी को हटाते हैं तो उसकी दूसरी मुश्किलें हैं. मांझी अपने थोड़े से कार्यकाल में और कुछ भले न कर पाए हों लेकिन वे दलितों के आइकॉन के रूप में तो स्थापित हो ही गए हैं. उन्होंने अपने नायकत्व को दलितों-महादलितों के बीच स्थापित कर दिया है. इस पूरे घटनाक्रम से भाजपा को बहुत जरूरी राहत हासिल हुई है. राजद और जदयू के संभावित विलय को लेकर भगवा खेमें में बेचैनी का आलम था. भाजपा की निगाह मांझी पर है और मांझी के लिए भी भाजपा सबसे सुरक्षित दांव हैं. हालांकि अभी भी जदयू की ओर से कोशिश जारी है कि मांझी को खुद ही सीएम पद से हटने के लिए राजी कर लिया जाय और किसी दूसरे महादलित को मुख्यमंत्री बना दिया जाए, बदले में मांझी को जदयू में अच्छी जगह स्थापित कर दिया जाय. लेकिन लगता है कि अब बात दूर तक निकल चुकी है. इस उठापटक में पीछे से दांव लगा रही भाजपा ने जो योजना बनाई है उसके हिसाब से मांझी बागी विधायकों व नाराज मंत्रियों के साथ जदयू से अलग होंगे और भाजपा उन्हें बाहर से समर्थन देकर मांझी की सरकार को टेक दए रहेगी. अगले साल होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव के मद्देनजर इस गठजोड़ के कई दूसरे दूरगामी परिणाम भी देखने को मिल सकते हैं. फिलहाल भाजपा एक तीर से कई निशाने साधने की स्थिति में है.
फिलहाल तो ये सब अटकल है लेकिन पार्टियों के भीतर से जो खबरे रिस-रिस कर आ रही हैं उनके मुताबिक मांझीजी भाजपा के इशारे पर ही विधानसभा भंग करवाने की बात कह रहे हैं. सूत्र यह भी बता रहे हैं कि मांझी को भाजपा ने प्रस्ताव दे रखा है कि वे एक बार भाजपा कार्यालय में आकर, रोकर सार्वजनिक रूप से बयान दे दें कि उन्हें महादलित होने और दलितों-महादलितों के पक्ष में आवाज उठाने के कारण नीतीश कुमार और उनके संगी-साथी अपमानित करने पर आमादा हैं. मांझी का मन पहले भी भाजपा की ओर डोलता रहा है. वे नरेंद्र मोदी की तारीफ करते रहे हैं और अब जब भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह पटना आ रहे हैं तो मांझी जदयू के विरोध के बावजूद उन्हें राजकीय अतिथि घोषित कर चुके हैं. मांझी के मन में क्या है, मांझी जाने लेकिन यह साफ हो चुका है कि नीतीश कुमार ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया को दरकिनार कर जिस तरह से मांझी को सीएम बनाया था, वे उसका ही खामियाजा भुगत रहे हैं. मांझी को सीएम बनाते समय नीतीश कुमार ने विधायक दल की बैठक तक नहीं की थी और अपने व्यक्तिगत निर्णय को पार्टी और सरकार पर थोप दिया था. निकले थे हरिभजन को, ओटन लगे कपास…