पिछली 24 अक्टूबर को भागलपुर का माहौल बहुत बोझिल था. शहर की चहल-पहल वैसी ही थी. लोग उसी तरह की भागदौड़ में व्यस्त थे. भागलपुर से ही सटे नाथनगर और चंपानगर में हैंडलूम और पावरलूम के करघे भी हर रोज की तरह अहलेसुबह से ही एकसुर में खटखट-खटखट किए जा रहे थे. मंदिरों में घंटियां और मस्जिदों की अजान भी तयशुदा वक्त पर हो रही थी, लेकिन इस सामान्य से दिखते माहौल के बीच शहर के कुछ कोने ऐसे भी थे जहां उदासी और निराशा फैली हुई थी. कुछ नए मोहल्ले ऐसे भी थे जहां मातमी सन्नाटा पसरा हुआ था. 24 अक्तूबर को इस शहर के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग माहौल की कुछ खास वजह थी. ये निराश और उदास लोग इस शहर के दामन पर चिपकी उस घटना के भुक्तभोगी हैं, जिससे इनका सामना 25 साल पहले हुआ था. 24 अक्टूबर को अखबारों की सुर्खी थी कि भागलपुर दंगे के 25 साल पूरे हो रहे हैं, इस मौके पर फलां-फलां जगह फलां-फलां आयोजन होंगे. इन उदास मोहल्लों के लिए ये खबर पुराने घाव को कुरेदने वाली थी. नब्बे के बाद जवान हुई पीढ़ी के लिए यह सिर्फ आयोजन-भर थे लेकिन भागलपुर शहर के परवती, तातरपुर, आसानंदपुर से लेकर नाथनगर तक ऐसे कई मोहल्ले थे, जहां के पुराने निवासी उन खबरों को पढ़-सुन कर 25 साल पुरानी यादों में डूब गए थे, उनकी आंखों में आंसू उतर आया था.
भागलपुर में तहलका ने सबसे पहले नाथनगर और चंपानगर मुहल्ले की यात्रा की. भागलपुर से लगे ये दो ऐसे मोहल्ले हैं, जो इस शहर को न जाने कितने सालों से सिल्क नगरी के रूप में स्थापित किये हुए हैं. सिर्फ बिहार में ही नहीं, देश और दुनिया के तमाम कोनों में. नाथनगर और चंपानगर में किसी से बातचीत किए बिना ही यह साफ अहसास हो जाता है कि यह इलाका कभी भागलपुर की बड़ी पहचान रहा होगा. घरों के चौखट-दरवाजों की नफासत बताती है कि यह शौकीनों और पैसेवालों का इलाका रहा होगा. गलियों को देखकर लगता है कि यह कभी तो गुलजार रही होंगी. वहां मोहम्मद इरशाद से भेंट होती है. बातचीत के दौरान वे आग्रह करते हैं कि पुराने दिनों की याद न दिलाएं, अब हमारी पहचान इतनी-भर है कि हम एक मजदूर हैं, जिन्हें आसामियों से काम मिलता है. हम मजदूरों के भरोसे ही यह भागलपुर सिल्क नगरी कहलाता है. इरशाद यह बताते-बताते रोने लगते हैं. वह कहते हैं, ‘यहां हर घर में अपने लूम चलते थे. हर कोई यहां हुनरमंद बुनकर था और मालिक भी.’ इरशाद बहुत सारी बातें बताते हैं. उनसे बातचीत के दौरान वह आंकड़ा आंखों के सामने तैरने लगता है जिसे हमने अब तक सिर्फ पढ़ा और सुना था कि 25 साल पहले एक दंगे ने सिल्क नगरी भागलपुर के 600 पावरलूम, 1700 हैंडलूम को आग के हवाले कर राख कर दिया था. बुनकरों के घर-परिवार में हर किसी के पास अथाह पीड़ा होती है. सभी घरों के अपने स्वर्णिम इतिहास और अंधेरे भविष्य के पन्ने होते हैं.
इसके बाद आगे की यात्रा शुरू होती है. बुनकरों का मोहल्ला छोड़ हसनपुर, डुमरागांव, सलमपुर जैसी बस्तियों में जाना होता है. सलमपुर में नूरजहां, इदरीस जैसे लोग मिलते हैं, जिन्हें अपनी पीड़ा और बीते कल को साझा करने में भी संकोच होता है. इदरीस, जो अब एक पैर के सहारे जिंदगी गुजार रहे हैं, कहते हैं, ‘मुझे छर्रा लगा था. एक साल तक छर्रे के घाव वाला पैर लेकर घूमता रहा. वहां सड़न हो गई, तो डॉक्टरों ने मेरा एक पैर काटकर अलग कर दिया. मैंने कई बार सरकार से कहा कि दंगे ने मुझे जिंदगी-भर के लिए अपाहिज इंसान बना दिया, मैं अपनी जिंदगी गुजारने लायक काम-धाम कर सकता हूं, लेकिन सरकार मुझे दंगा पीड़ित नहीं मानती इसलिए मैं मुआवजे का हकदार भी नहीं बन सका.’ नूरजहां के पति इजराइल भी इस दंगे में मारे गए थे. नूरजहां कहती हैं, ‘मैं साबित नहीं कर पायी कि मेरे पति को भी दंगे में मारा गया है, इसलिए सरकार ने मुझे किसी मुआवजे के लायक ही नहीं माना.’
इन बस्तियों में इदरीस, नूरजहां के जैसी कहानियां तमाम लोगों की हैं. सबकी पीड़ा अंतहीन है, अंदर तक हिला देनेवाली है. मुआवजे और सरकारी सहायता का अपना खेल होता है, उसकी अपनी राजनीति होती है. लिहाजा मुआवजे को छोड़कर दूसरी बातों पर ध्यान देते हैं. भागलपुर घूमते हुए, वहां के लोगों से बात करते हुए साफ महसूस होता है कि 25 साल पहले हुए उस दंगे ने शहर को इस कदर, इतने रूपों में तोड़ा है कि शहर आज तक संभल नहीं पाया है. शहर उन दंगों के बाद कभी भी अपनी पुरानी रवायत और लय में लौट ही नहीं सका.
25 साल पहले हुआ दंगा यूं ही इतना पीड़ादायी नहीं है भागलपुरवालों के लिए. कहा जाता है कि आजाद भारत में यानी 1947 के बाद यह सबसे लंबे समय तक चला दंगा है, जिसमें अनगिनत लोगों की जान गई थी. आजाद भारत में भी भागलपुर की तरह दंगे बहुत कम हुए हैं. सरकारी आंकड़े कहते हैं कि इस दंगे में 1000 से ज्यादा लोग मारे गए थे. सामाजिक कार्यकर्ताओं, गैर सरकारी संस्थाओं व स्थानीय लोगों का मानना है कि इस दंगे में कम से कम दो हजार लोगों ने अपनी जान गंवाई थी. वह भी ऐसे नहीं कि सिर्फ मार दिए गए, कहीं मारे गए, कहीं काटे गए, कहीं मारकर कुएं में फेंक दिया गया, कहीं तालाब में डाल दिया गया, तो कहीं खेत में डालकर उन पर हल चला दिया गया. लाशों के ऊपर खेती का अमानवीय कृत्य भी यहां हुआ. यह दंगा इसलिए भी एक काले अध्याय के रूप में याद किया जाता है कि जब देश में सांप्रदायिक उन्माद का माहौल बनना शुरू ही हुआ था, तब उसके समानांतर अपराधियों, गिरोहबाजों, राजनेताओं और अधिकारियों ने आपसी गठजोड़ से दंगा भड़काकर इस तरह सरेआम लोगों का कत्लेआम करवाया था. लगभग छह महीने तक यह अराजकता भागलपुर की पहचान बनी रही.
भागलपुर में छिटपुट दंगों का इतिहास रहा है. 1989 के पहले 1924, 1936, 1946 और 1966 में भी यहां दंगे हुए थे, लेकिन वे दंगे ऐसे थे जिन्हें स्थानीय प्रशासन ने कुछ ही घंटे में संभाल लिया था. लेकिन 1989 में जो दंगा हुआ उसके पीछे खुद प्रशासन की भूमिका बेहद संदिग्ध रही. यह दंगा महीने-भर तक पूरे उन्माद पर रहा और फिर अगले छह महीने तक छिटपुट हत्याओं का दौर चलता रहा. मरने वालों का सही आंकड़ा आज तक किसी के पास नहीं है, बस अनुमान है कि करीब दो हजार लोग इसकी भेंट चढ़ गए. भागलपुर जिले के 21 में से 15 ब्लॉक में इसकी लपटें फैली, 195 गांवों में पीढ़ियों से चली आ रही साझी संस्कृति का तानाबाना देखते ही देखते बिखर गया, 48 हजार लोग अपने गांव, घर, मकान, कारोबार सब छोड़कर दूसरी जगहों पर विस्थापित हो गए.
ठीक 25 साल पहले हुए इस हादसे की वजहें भी बेहद सपाट हैं. 1989 में, अयोध्या में मंदिर बनाने के नाम पर बड़ी राजनीति शुरू हो गई थी. पूरे देश में, विशेषकर उत्तर व पूर्वी भारत में रामशिला पूजन का आयोजन गांव-गांव में हो रहा था. हर जगह की तरह भागलपुर में भी आयोजन चल रहा था. इस आयोजन को लेकर देश के लगभग हर हिस्से में तनाव था. भागलपुर भी उसी तनाव से गुजर रहा था. अक्टूबर में शिलापूजन का जुलूस निकलना था, उसके पहले, अगस्त में ही इसकी पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी. भागलपुर में उत्साह को उन्माद में बदलने की पूरी तैयारी थी. इसके संकेत उस साल के अगस्त महीने में ही मिल गए थे, जब कुछ ही दिनों के अंतराल पर मुहर्रम और स्थानीय स्तर पर मशहूर विषहरी पूजा का आयोजन हुआ था. विषहरी पूजा को मनाने के क्रम में उस साल बड़े पैमाने पर जलूस वगैरह निकाले गए. तरह-तरह के नारे भी लगे थे. पहली बार ऐसा हुआ था जब परंपरागत तरीके से मनाया जानेवाला विषहरी पूजा का स्वरूप बदल गया. इससे हिंदुओं और मुसलमानों के बीच टकराव की स्थिति बनी, लेकिन मामला संभल गया. विषहरी पूजा से जो अनुभव हुए, उसके विरोध में मुसलमानों ने उस साल मुहर्रम का जुलूस नहीं निकाला. बात आई-गई नहीं हुई, बल्कि अंदर ही अंदर सुलगती रही. इसी दौरान दो माह बाद रामलला शिलापूजन का अवसर आ गया. पहले से ही माहौल बना कि शिलापूजन का जुलूस बड़े स्तर पर निकलेगा. तब बिहार के मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा हुआ करते थे. सूचना मुख्यमंत्री तक भी पहुंची कि भागलपुर में कुछ दिन पहले ही तनाव का माहौल बना था, इसलिए वहां विशेष ध्यान देना चाहिए. शांति समिति की बैठक हुई और तय हुआ कि शिलापूजन का जुलूस तो निकलेगा और कुछ मुस्लिम इलाके से भी गुजरेगा, लेकिन न तो कोई बैनर-तख्ती होगी और न ही नारेबाजी होगी. लेकिन इन बातों का पालन नहीं हो सका.
24 अक्तूबर को भागलपुर के परवती इलाके से रामशिला पूजन का एक जुलूस तातरपुर मोहल्ले की ओर बढ़ा. यह जुलूस किसी तरह गुजर गया, लेकिन, तभी एक विशाल जुलूस नाथनगर की ओर से आ गया. जुलूस मुस्लिम मोहल्ले के बीचोबीच चौराहे पर पहुंचा था तभी भीड़ में शामिल लोगों ने मुस्लिमों के खिलाफ नारेबाजी शुरू कर दी. जब यह सब हो रहा था, तब भागलपुर के एसपी केएस द्विवेदी और जिलाधिकारी अरुण झा वहां मौजूद थे. जुलूस के नारे बढ़ते गए, आवाज भी तेज होती गई. इसकी प्रतिक्रिया में दूसरी ओर से पत्थरबाजी शुरू हो गई. अभी डीएम कुछ समझने या संभालने की कोशिश करते कि तभी वहां बम का धमाका हो गया. हालांकि इससे किसी तरह की जनहानि नहीं हुई, लेकिन पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी. इसमें दो लोग मारे गए. दोनों मुसलमान थे. शिलापूजन का जुलूस उन्मादी भीड़ में बदल गया. जंगल में आग की तरह अफवाहें फैलने लगीं कि संस्कृत विद्यालय में 40 हिंदू छात्रों को मुसलमानों ने मार दिया है. उससे मिलती-जुलती तमाम अफवाहें फैलने लगीं. इन अफवाहों की परिणति जिस रूप में हुई उसने इतिहास का एक नया पन्ना तैयार किया. वह पन्ना आजाद भारत में सबसे लंबे समय तक चलनेवाले दंगे के रूप में दर्ज हुआ.
25 साल पहले हुआ भागलपुर दंगा आजाद भारत में यानी 1947 के बाद सबसे लंबे समय तक चला दंगा है, जिसमें अनगिनत लोगों की जान गई थी
इसके बाद देखते ही देखते दुकानों की लूट शुरू हो गई, लोगों को मारा जाने लगा. अकेले परवती में 40 मुस्लिमों की हत्या कर दी गई. आसानंदपुर में भी बलवा हो गया. मदनीनगर से लूट की खबर आई. नया बाजार में 11 बच्चे समेत 18 मुस्लिमों के मारे जाने की खबर आई. खबर यह भी आई कि कई जगहों पर पुलिस की मौजूदगी में यह सब होता रहा. आस-पास के गांवों में भी आग फैलने लगी थी. इस दौर में कुछ हिंदुओं ने मुस्लिमों की मदद करने की कोशिश भी की. 40 मुस्लिमों को शहर की जमुना कोठी में एक हिंदू ने शरण दे रखी थी. कहीं से यह खबर दंगाइयों को लग गई और उन्मादी भीड़ ने 18 मुसलमानों को वहां से जबरन खींचकर मार डाला. दोनों ओर से ऐसे ही मारकाट चलता रहा. इसके बाद शहर में कर्फ्यू लगाने और सुरक्षा बल तैनात करने की औपचारिकताएं निभाई गईं. दंगे की लपट भागलपुर शहर को पार कर रजौन घोरैया जैसे उस इलाके में भी पहुंच गई जो वामपंथी राजनीति का गढ़ था. उसके बारे में यह माना जाता था कि वहां प्रगतिशील लोग रहते हैं. पास के जिले साहेबगंज, गोडडा भी इसकी चपेट में आ गए. उन दिनों को याद करते हुए भागलपुर के सामाजिक कार्यकर्ता उदय कहते हैं, ‘कुछ पता ही नहीं चल रहा था उस वक्त. ऐसी-ऐसी खबरें आ रही थी कि बता नहीं सकते.’ उदय बताते हैं कि लौगांय से उस वक्त खबर आयी थी कि 125 लोगों को मारकर तालाब में डाल दिया गया. रजौना चंदेरी से खबर मिली कि तालाब में 50 लोग मार दिये गए. कहीं खेतों में लाशों को गाड़कर रातों-रात खेती कर देने की बात भी सामने आयी. उदय कई घटनाओं का जिक्र करते हैं. उनकी बताई हर घटना पहले वाले से ज्यादा वीभत्स थी.
भागलपुर में लोगों से बात करने पर पता चलता है कि कामेश्वर यादव, महादेव सिंह, सल्लन मियां और अंसारी जैसे कुछ माफिया ठेकेदार और अपराधी किस्म के लोग इस दंगे के जरिये अपनी गुटबाजी का खेल खेल रहे थे. भागलपुर के दंगे में घटनाओं को नृशंस तरीके से अंजाम देने की कई कहानियां तो हैं ही, लेकिन इसके लंबा खिंचने के पीछे इन्हीं अपराधियों-राजनेताओं का गठजोड़ काम कर रहा था. लेकिन उस समय सबसे शर्मसार करनेवाली जो बात सामने आई वह थी जिले के पुलिस कप्तान केएस द्विवेदी की भूमिका, जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने खुद खुलेआम इस कत्लेआम को करने-करवाने में रुचि ली और उनके इशारे पर उनके मातहत पुलिस वाले भी इस खूनी खेल का हिस्सा बन गए थे.
इस दंगे ने शहर को इस कदर, इतने रूपों में तोड़ा है कि शहर आज तक संभल नहीं पाया है. शहर उन दंगों के बाद कभी भी अपनी पुरानी रवायत और लय में लौट ही नहीं सका
पुलिस कप्तान का इस दंगे से क्या संबंध था इसे दूसरे तरीके से समझा जा सकता है. घटना के बाद द्विवेदी को उनके पद से हटा दिया गया. उनकी जगह नए पुलिस कप्तान की नियुक्ति हुई. घटना की तपिश ज्यादा थी इसलिए दिल्ली से प्रधानमंत्री राजीव गांधी भी भागलपुर का दौरा करने पहुंचे, लेकिन एयरपोर्ट पर ही उन्हें पुलिसवालों के विरोध का सामना करना पड़ा. एसपी को हटाये जाने के विरोध में नारे लगते रहे और यह विरोध इतना तीव्र और उन्मादी स्वरूप लिए हुए था कि देश के प्रधानमंत्री राजीव गांधी भी इसके सामने विवश नजर आ रहे थे और वे भागलपुर पहुंचकर भी प्रभावित इलाके का दौरा नहीं कर सके, सिर्फ अस्पतालों का दौरा कर वापस लौट गए. उस समय बिहार में कांग्रेस की सत्ता थी और कांग्रेसी आपस में ही दंगे के बहाने अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगे हुए थे. तत्कालीन मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा का एक अन्य कांग्रेसी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री भागवत झा आजाद के साथ छत्तीस का आंकड़ा था. सत्येंद्र नारायण सिन्हा दंगे को रोकने में नाकाम साबित हुए थे और उन्हें अपने पद से जाना पड़ा था. उनकी जगह जगन्नाथ मिश्र को मुख्यमंत्री बनाया गया. बाद में सत्येंद्र नारायण सिन्हा ने अपनी आत्मकथा ‘मेरी यादें-मेरी भूलें’ में लिखा कि कांग्रेस के लोगों ने ही मेरे साथ खेल किया. उन्होंने सीधे तौर पर आजाद के खेल की ओर इशारा किया. सत्येंद्र नारायण सिन्हा ने यह भी लिखा कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भी अनावश्यक रूप से राज्य की सत्ता में हस्तक्षेप कर मामले को गलत दिशा में जाने दिया. एसपी द्विवेदी को हटाने के पहले एक बार राज्य सरकार से बात करनी चाहिए थी, जो प्रधानमंत्री ने नहीं की थाा.
भागलपुर दंगे में ऐसे कई आरोप-प्रत्यारोप लगते रहे. कांग्रेसी आपस में ही उस दंगे पर सालों तक झगड़ते रहे. कांग्रेसियों में कौन सही था, कौन गलत, यह कांग्रेसी ही बेहतर जानते हैं, लेकिन उसके बाद कांग्रेस के साथ बिहार में जो हुआ, उससे वह आज तक उबर नहीं पायी है. आजादी के बाद एक दो मौके को छोड़, लगातार मनमानेपन से सत्ता पर काबिज रहनेवाली कांग्रेस पार्टी भागलपुर दंगे के बाद पूरे बिहार से उखड़ गई. भागलपुर में यह इतिहास भी बना कि वहां से कांग्रेस दोबारा संसदीय सीट पर जीत हासिल नहीं कर सकी. पूरे बिहार में मुस्लिम कांग्रेस से नाराज होते चले गये. 1989 में दंगा हुआ था, 1990 में लालू प्रसाद यादव बिहार की सत्ता में आ गये थे. लालू प्रसाद जान गये थे कि यही वक्त है जब दुखी मुस्लिमों को लेकर सियासत में नए समीकरण बन सकते हैं. लालू प्रसाद यादव ने माई समीकरण को साधना शुरू किया. माई यानी मुस्लिम-यादव और इस दो समूहों के समीकरण से वे बिहार के बड़े नेता बन गये. कह सकते हैं कि भागलपुर दंगे ने बिहार में कांग्रेस का बिस्तर गोल कर दिया. लालू प्रसाद यादव जैसे अनाम नेता बड़ी शख्सियत बन गए. भाजपा ने भी उसी बुनियाद पर अपनी जड़ें मजबूत कर ली.
भागलपुर के दंगे बीत चुके थे, लेकिन राजनीति का खेल बाद में भी जारी रहा. मरहम की राजनीति करते हुए लालू प्रसाद यादव ने भागलपुर दंगे की जांच के लिए न्यायिक समिति बनाई. समिति ने रिपोर्ट तैयार की. न्यायिक जांच समिति बनाने के बाद भी लालू यादव पीड़ितों को न्याय नहीं दे पाए. यह बात सबको पहले से पता थी कि लालू यादव असल में जांच के बहाने मुस्लिमों को साधना चाहते थे. एक और वजह यह रही कि इस दंगे में कामेश्वर यादव समेत उनके कई स्वजातीय भी शामिल थे. लालू प्रसाद के लिए एक तरफ कुआं, दूसरी तरफ खाई वाली स्थिति थी. मामला गोल-मटोल होकर रुक गया. कुछ को मुआवजा वगैरह देकर इस अध्याय को बंद करने की कोशिश हुई लेकिन सरकारी फाइलों में बंद कर देने से यह अध्याय बंद होनेवाला नहीं था. इसमें राजनीतिक संभावनाएं शेष बची हुई थी इसलिए नीतीश कुमार जब बिहार में 2005 में सत्ता में आए, तो उन्होंने फिर से इस अध्याय को खुलवाया. कामेश्वर यादव जैसे लोगों का ट्रायल फिर से शुरू करवाने की बात हुई. दंगे के नाम पर एक आयोग नये सिरे से जांच करने की प्रक्रिया में लग गया. भागलपुर दंगे में पीड़ित मुसलमानों का एक वर्ग मानता है कि उन्हें कभी भी इस मामले में न्याय नहीं मिलने वाला क्योंकि जब लालू प्रसाद थे, तब उनके सामने यादवों की मजबूरी थी, जब तक नीतीश कुमार थे, तब उनके साथ भाजपा जुड़ी हुई थी. अब नीतीश कुमार फिर से लालू प्रसाद यादव के साथ मिल चुके हैं, तो जांच उसी दिशा में बढ़ेगी जिधर लालू ले जाना चाहते थे.
इस हादसे की वजहें भी बेहद सपाट हैं. 1989 में, अयोध्या में मंदिर बनाने के नाम पर बड़ी राजनीति शुरू हो गई थी. उत्तर व पूर्वी भारत में रामशिला पूजन का आयोजन किए जा रहे थे
भागलपुर दंगे में जिन्हें मुआवजा मिलना था उन्हें प्रधानमंत्री राहत कोष से दस हजार रुपये, बिहार सरकार की ओर से एक लाख रुपये और सिख दंगे की तर्ज पर साढ़े तीन लाख रुपये दिए गए हैं. यह मुआवजा उन्हें मिला है, जो साबित कर पाये हैं कि वे दंगा पीड़ित हैं. अभी ऐसे बहुतेरे लोग हैं, जो साक्ष्य के साथ साबित नहीं कर पा रहे कि वे दंगों के पीड़ित हैं. पिछले तीन सालों में नई दिल्ली की संस्था सेंटर फॉर सोशल इक्विटी ने 50 गांवों का दौरा कर और करीब दो हजार लोगों से मिलकर दंगों पर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की है. सीएसई की रिपोर्ट बताती है कि 50 परिवार तो ऐसे मिले, जिन्हें आज तक एक पाई भी मुआवजे के तौर पर नहीं मिल सकी है. जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता अरशद अजमल कहते हैं, ‘नीतीश कुमार ने भी सियासत की. उन्होंने सबको उचित मुआवजा, सहयोग देने का वादा किया था. पेंशन देने का भी वादा किया था, लेकिन 1100 में 700 लोगों को ही अब तक मुआवजा मिल सका है.’ वे आगे बताते हैं, ‘भागलपुर दंगा भले ही 25 साल पहले का हो, लेकिन उसका असर अब तक है. उसकी स्मृतियां सबको कचोटती है. उससे सिर्फ भागलपुर का वास्ता नहीं, उससे पूरे बिहार का वास्ता है और पूरे देश का भी.’
भागलपुर में हुए इस दंगे के दौरान बिहार में कांग्रेस की सत्ता थी और कांग्रेसी आपस में ही दंगे के बहाने अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगे हुए थे
भागलपुर से लौटते हुए एक बार फिर हम यह जानने की कोशिश करते हैं कि 25 साल होने पर दंगे को याद करना तो ठीक है, मुआवजे की बात भी की जा सकती है लेकिन असल चीज है कि उस दंगे का अब यहां के लोगों पर कितना असर है. उदय बताते हैं, ‘जो नई बस्तियां दंगे के बाद या दंगे की वजह से बसी हंै, वहां जाकर यह महसूस किया जा सकता. 50 के करीब अलग-अलग टोले दंगे के बाद अस्तित्व में आए हैं. दंगे की वजह से बसी बस्तियों में सबको याद रहता है कि वे यहां के वासी नहीं है, बल्कि उन्हें यहां मजबूरी में आकर रहना पड़ा है.’ उदय के मुताबिक साझी संस्कृति के इस शहर में आज कई जगहों पर दिखता है कि दंगों के बाद बिखरा सामाजिक तानाबाना फिर से गुंथ नहीं सका है.
दंगा पीड़ितों को मुआवजा के तौर पर प्रधानमंत्री राहत कोष से दस हजार रुपये, बिहार सरकार की ओर से एक लाख रुपये और सिख दंगे की तर्ज पर साढ़े तीन लाख रुपये दिए गए
जब सब कुछ बिखर गया था तब भी कुछ चीजों को यहां लोगों ने सहेज लिया था. दंगों के दौरान जब पूरे भागलपुर में 20 मजारों को ध्वस्त कर दिया गया था तब भी यहां के अम्मापुर गांव स्थित एक मजार को गांव के हिंदू सुरेश भगत ने बचाया था. सिर्फ बचाया ही नहीं, मुसलमानों के चले जाने के बाद उसकी रवायत को भी जिंदा रखा. अब तक.