नातजुर्बेकार लौंडे! एक दौर में इस विशेषण का प्रयोग कांग्रेस पार्टी के बुजुर्ग नेता अपने मन की भड़ास निकालने के लिए करते थे. चिढ़न से उपजे इन शब्दों का इस्तेमाल बुजुर्ग कांग्रेसी नेता उन युवाओं को कमतर ठहराने के लिए किया करते थे जिनको लेकर राजीव गांधी भविष्य की कांग्रेस तैयार करना चाहते थे. पार्टी में आमूलचूल परिवर्तन करने और बुजुर्ग नेताओं को नेपथ्य में भेजकर पार्टी की कमान पूरे देश में युवाओं के हाथों में देने की राजीव की योजना से पुराने नेता खार खाए थे. इस योजना के तहत ही तारिक अनवर को बिहार भेजा गया, अशोक गहलोत को राजस्थान, ऑस्कर फर्नांडिस को कर्नाटक और अहमद पटेल को गुजरात. उस समय इन कथित ‘नातजुर्बेकार लौंडों’ के बारे में राजीव गांधी का कहना था कि ‘अहमद जैसे युवा ही 21वीं सदी की कांग्रेस का चेहरा होंगे.’
सोनिया गांधी के 64 वर्षीय राजनीतिक सचिव अहमद पटेल हाल के दिनों में दो कारणों से चर्चा में आए. पहला कारण भाजपा नेता नरेंद्र मोदी का वह इंटरव्यू था, जिसमें उन्होंने पटेल को अपना अच्छा दोस्त बताते हुए कहा था ‘अहमद भाई कांग्रेस में मेरे सबसे अच्छे दोस्तों में से रहे हैं. हम उन्हें ‘बाबू भाई’ बुलाते थे और कई बार उनके यहां मैं खाना खाने भी जाता था. मेरी उनसे अच्छी दोस्ती रही है और मैं चाहता था कि यह ऐसे ही बनी रहे. लेकिन अब वह मुझसे दूरी बनाए रखते हैं. शायद उन्हें अब कोई कठिनाई हो रही है. वह मुझसे बचते हैं इसलिए अब मेरा फोन भी नहीं उठाते.’ दूरदर्शन द्वारा लिए इंटरव्यू में संपादित किए गए इस अंश के सामने आने के बाद पटेल ने मोदी के दोस्ती के दावे को पूरी तरह से खारिज कर दिया.
अहमद पटेल के चर्चा में आने की दूसरी वजह रही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारू की किताब ‘द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर. किताब में बारू ने अहमद पटेल की राजनीतिक शख्सियत और कांग्रेस तथा मनमोहन सिंह सरकार में उनकी भूमिका को लेकर कई खुलासे किए. बारू ने अपनी किताब में लिखा कि कैसे कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के सभी संदेश प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक पहुंचाने का काम नियमित तौर पर पटेल और प्रधानमंत्री के प्रिंसिपल सेक्रेटरी पुलक चटर्जी ही किया करते थे. बारू लिखते हैं, ‘पुलक जहां नीतिगत विषयों पर सोनिया गांधी को जानकारी देने के साथ महत्वपूर्ण निर्णयों पर दिशानिर्देश लेने के लिए नियमित तौर पर उनसे मिला करते थे. वहीं अहमद पटेल सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के बीच की राजनीतिक कड़ी थे.’ अर्थात सोनिया को सरकार से जो भी कराना होता था, प्रधानमंत्री तक जो भी मैसेज भिजवाना होता था वे पटेल ही लेकर पीएम के पास जाते थे.
यूपीए सरकार के दौरान अहमद पटेल की गतिविधियों पर प्रकाश डालते हुए बारू ने बताया है कि पटेल साउथ ब्लॉक में पुलक चटर्जी से कांग्रेसी नेताओं को राष्ट्रीयकृत बैंकों और सार्वजनिक उद्यमों के बोर्ड में शामिल कराने के लिए लॉबिंग किया करते थे. बारू के मुताबिक प्रधानमंत्री निवास सात रेसकोर्स में जब अचानक पटेल की आवाजाही बढ़ जाती थी तो यह इस बात का संकेत होता था कि कैबिनेट में फेरबदल होने वाला है. पटेल ही उन लोगों की सूची प्रधानमंत्री के पास लाया करते थे जिन्हें मंत्री बनाया जाना होता था या जिनका नाम हटाना होता था. बारू यह भी बताते हैं कि कैसे पटेल सामने से इतने ज्यादा विनम्र रहते थे कि आप अंदाजा नहीं लगा सकते थे कि यह शख्स कितना शक्तिशाली है. उनके पास किसी भी निर्णय को बदलवाने की ताकत थी. बारू एक उदाहरण सामने रखते हैं, ‘एक बार ऐसा हुआ कि ऐन मौके पर जब मंत्री बनाए जाने वाले लोगों की सूची राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के लिए प्रधानमंत्री निवास से जाने ही वाली थी कि पटेल प्रधानमंत्री निवास पहुंच गए. उन्होंने लिस्ट रुकवाकर उसमें परिवर्तन करने को कहा. उनके कहने पर तैयार हो चुकी सूची में एक नाम पर वाइट्नर लगाकर पटेल द्वारा बताए गए नाम को वहां लिखा गया.’
खैर, बारू की इस किताब में खुद से जुड़े तथ्यों के सामने आने पर पटेल ने इन्हें भी खारिज कर दिया. बारू की किताब में पटेल से संबंधित इन तथ्यों से भले आम जनमानस अंजान हो लेकिन कांग्रेस की राजनीति और खासकर अहमद पटेल की कांग्रेस में राजनीतिक हैसियत को जानने-समझने वाले बताते हैं कि बारू ने अहमद पटेल के बारे में जो लिखा है वह सच है.
ऐसे में यह प्रश्न सहज ही खड़ा होता है कि आखिर कौन हैं अहमद पटेल, जिन्हें कांग्रेस के धुर विरोधी नरेंद्र मोदी भी – जिन्हें कांग्रेस का कोई नेता फूटी आंख भी नहीं भाता – अपना दोस्त बताते हैं और उनके द्वारा फोन न उठाने पर दुख प्रकट करते हैं. कैसे पटेल के पास इतनी राजनीतिक ताकत आ गई कि वे कांग्रेस की पिछली सरकार में अपने मुताबिक मंत्रियों की सूची बदलवाते रहे? कैसे वे सोनिया गांधी के इतने खास हो गए कि प्रधानमंत्री और उनके बीच की राजनीतिक कड़ी बन गए? जानना यह भी दिलचस्प होगा कि जो आदमी इतना ताकतवर रहा है वह मीडिया की नजरों से कैसे बचा रहा. कांग्रेस का संकट मोचक, क्राइसिस मैनेजर, फायर फाइटर, बैकरूम मैनेजर से लेकर न जाने किन-किन विशेषणों से नवाजे जाने वाले कौन हैं वे, क्या है उनका राजनीतिक इतिहास जिन्हें राजनीतिक गलियारे में तमाम लोग गांधी परिवार के बाद कांग्रेस का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति मानते हैं.
अहमद पटेल गुजरात के भरूच जिले से आते हैं. वहां बाबूभाई के नाम से जाने जाने वाले अहमद पटेल की राजनीतिक यात्रा सन् 70 के आसपास शुरू होती है. गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान में गुजरात विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष शंकर सिंह वाघेला अहमद पटेल की राजनीतिक यात्रा की चर्चा करते हुए कहते हैं, ‘सन् 70 के आसपास गुजरात कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हरीश जी महेडा और माधव सिंह सोलंकी की नजर अहमद भाई मुहम्मद भाई पटेल पर पड़ी. इन दोनों नेताओं ने ही इंदिरा गांधी से पटेल के बारे में चर्चा की थी. उस समय पटेल युवा कांग्रेस के उपाध्यक्ष थे यहां. कांग्रेस का प्लान था कि गुजरात में एक युवा माइनॉरिटी लीडर के रूप में पटेल को उभारा जाए.’
युवा कांग्रेस का उपाध्यक्ष बनने से पहले पटेल भरूच में तालुका पंचायत के अध्यक्ष भी रह चुके थे. गुजरात कांग्रेस से अपनी राजनीति की शुरूआत करने वाले पटेल के जीवन का सबसे बड़ा मौका तब आया जब उन्हें 1977 के लोकसभा चुनावों में भरुच से चुनाव लड़ने का टिकट मिला. उस दौर को जानने वाले लोग बताते हैं कि देश में आपातकाल के बाद कांग्रेस विरोधी जो माहौल बना था, उसमें लोग यह मानकर बैठे थे कि जो भी लड़ेगा हारेगा ही. इसलिए 26 साल के युवा अहमद पटेल को टिकट दे दिया गया. लेकिन 77 के उस चुनाव में जहां इंदिरा गांधी अपना चुनाव हार गईं वहीं अहमद पटेल भरूच से चुनाव जीतने में सफल रहे. उस दौर में चुनाव जीतकर अहमद पटेल ने न सिर्फ सभी को चौंका दिया था बल्कि उनकी जीत ने उनके मजबूत राजनीतिक भविष्य की तरफ भी इशारा कर दिया था. अहमद पटेल अपनी इस जीत से इंदिरा गांधी और पूरी पार्टी की नजर में आ गए. उनकी राजनीतिक हैसियत तेजी से बढ़ने वाली थी. गुजरात कांग्रेस के एक नेता कहते हैं, ‘उस समय पार्टी बहुत बुरी स्थिति से गुजर रही थी. पटेल युवा थे, चुनाव जीते थे और मुस्लिम थे सो पार्टी ने उन्हें आगे बढ़ाने की शुरूआत की.’ इंदिरा गांधी ने आगे चलकर पटेल को पार्टी का ज्वाइंट सेक्रेटरी बनाया और 1980 में जब इंदिरा गांधी फिर प्रधानमंत्री बनीं तो उन्होंने पटेल को मंत्री बनने का प्रस्ताव दिया. लेकिन उन्होंने मंत्री बनने से इंकार कर दिया. तब से लेकर आज तक कई बार पटेल को मंत्री बनाने की पेशकश हुई लेकिन उन्होंने हर बार मना कर दिया. खैर, बतौर ज्वाइंट सेक्रेटरी पटेल राजीव गांधी के भी तेजी से करीब आते गए जो उस दौरान पार्टी के महासचिव हुआ करते थे.
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जब राजीव गांधी ने कांग्रेस की कमान संभाली तो अहमद पटेल उनके सबसे करीबी लोगों में से थे. बताया जाता है कि उस समय राजीव गांधी के सलाहकारों में प्रमुख रुप से जो तीन लोग शामिल थे उन्हें अमर, अकबर, एंथनी कहा जाता था. इनमें अमर यानी अरुण सिंह (दून स्कूल के जमाने से राजीव गांधी के दोस्त), एंथनी यानी ऑस्कर फर्नांडिस और अकबर यानी अहमद पटेल शामिल थे. प्रधानमंत्री बनने के बाद राजीव गांधी ने भी पटेल को मंत्री बनने के लिए कहा लेकिन पटेल ने संगठन में काम करने की बात कहकर इस बार भी इंकार कर दिया. राजीव के कार्यकाल में अहमद पटेल संसदीय सचिव और पार्टी के महासचिव बनाए गए. अहमद पटेल की कांग्रेस पार्टी में जड़ें तेजी से गहरी होती जा रही थीं. पार्टी में युवा जोश भरने की अपनी रणनीति के तहत राजीव गांधी ने अहमद पटेल को गुजरात का प्रदेश अध्यक्ष बनाकर भेज दिया. गुजरात में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष बनने वाले पटेल सबसे कम उम्र के नेता थे. कुछ समय के बाद वह दौर भी आया जब पार्टी के ही दूसरे मुस्लिम नेता जैसे तारिक अनवर, गुलाम नबी आजाद और आरिफ मुहम्मद खान आदि पटेल की चमक के आगे फीके पड़ते दिखाई देने लगे.
ऐसा कहा जाता है कि जब भी राजीव गांधी गुजरात के दौरे पर जाते थे तो पूरे दौरे में अहमद पटेल उनके साथ ही रहते थे. गांधी परिवार और राजीव से नजदीकी होने के पीछे लोग एक और कारण भी बताते हैं. गुजरात कांग्रेस के नेता बताते हैं कि राजीव गांधी के पिता फिरोज गांधी भी भरूच के ही रहने वाले थे. वहां उनका पैतृक आवास आज भी है. जब भी राजीव गांधी या गांधी परिवार का कोई आदमी दक्षिणी गुजरात के दौरे पर आता था तो पटेल उसे भरूच स्थिति फिरोज गांधी का पैतृक घर दिखाने जरूर ले जाते थे. इससे भी उनका गांधी परिवार से एक करीबी संबंध बना. खैर, राजीव गांधी की हत्या के बाद अहमद पटेल कुछ समय तक राजनीतिक अंधकार का शिकार हुए. उस दौर में वे भरूच से लोकसभा का चुनाव भी हार गए.
पटेल के राजनीतिक करियर ने एक बार फिर से उड़ान उस समय भरी जब 1992 में तिरुपति में हुई कांग्रेस पार्टी की बैठक में दशकों बाद कांग्रेस वर्किंग कमिटी के चुनाव हुए. उस चुनाव में पटेल को तीसरे नंबर पर सबसे ज्यादा वोट मिले थे. वे वर्किंग कमिटी के सदस्य बनाए गए. पटेल को उसी दौर में ही जवाहर भवन ट्रस्ट की जिम्मेदारी भी बतौर सचिव मिली. ट्रस्ट से जुड़ने के बाद अहमद पटेल सोनिया गांधी के नजदीक आए. उस दौर में भले ही सोनिया राजनीति से दूर थीं लेकिन उन्हें ट्रस्ट के कामों में बहुत रूचि थी. पटेल ने ट्रस्ट से जुड़े कार्यों को पूरा करने के लिए न सिर्फ कड़ी मेहनत की बल्कि उसके लिए जरूरी पैसों का भी इंतजाम किया. इसके अलावा राजीव गांधी फाउंडेशन की स्थापना में भी पटेल की सबसे अहम भूमिका रही. सोनिया के दिल के सबसे करीब रहे इस प्रोजेक्ट को पूरा करने और उसका बेहतर संचालन करने में पटेल ने कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी. कहते हैं, इसी दौर में पटेल को सोनिया गांधी के और निकट पहुंचने का मौका मिला जो बाकी अन्य नेताओं को हासिल नहीं था. शंकर सिंह वाघेला कहते हैं, ‘ये भी हकीकत है कि राजीव गांधी की हत्या के बाद पटेल ने सोनिया गांधी से लेकर राहुल और प्रियंका सभी की जिम्मेंदारी संभाली. चाहे राहुल और प्रियंका की पढ़ाई हो या फिर परिवार की आर्थिक या अन्य जरूरतें. पटेल ने एक सेवक की तरह परिवार की सेवा की.’
जानकार बताते हैं कि नरसिम्हा राव के जमाने में कांग्रेस वर्किंग कमिटी के सदस्य बने अहमद पटेल वैसे तो राव से बेहद विनम्रता से पेश आते थे लेकिन उन्होंने कभी भी राव की सत्ता को स्वीकार नहीं किया. पटेल के मन में राव से जुड़ा एक घाव अब तक हरा था. हुआ यूं था कि पटेल के लोकसभा चुनाव हारने के बाद उनकी मित्र रहीं नजमा हेपतुल्ला ने राजधानी के मीना बाग इलाके में उनके रहने के लिए सरकारी गेस्ट हाउस की व्यवस्था कराई थी. लेकिन राव पटेल को मिल रही इस सुविधा के खिलाफ थे. उस समय पटेल को गेस्ट हाउस खाली करने या कार्रवाई का सामना करने को कहा गया. पटेल के एक करीबी बताते हैं, ‘उस समय पटेल के बच्चों की परीक्षाएं चल रही थीं. उन्हें मजबूरन उस घर को खाली करना पड़ा.’ राव को किनारे लगाने के लिए माहौल बनाने वालों में अहमद पटेल सबसे आगे थे. पटेल ने राव की कांग्रेस अध्यक्ष पद से विदाई में बड़ी भूमिका निभाई. सीताराम केसरी जब कांग्रेस अध्यक्ष बनाए गए तो उस समय उन्होंने पटेल को पार्टी का कोषाध्यक्ष बनाया. उस समय पटेल कांग्रेस के सबसे कम उम्र के कोषाध्यक्ष बने. हालाकि कुछ समय बाद सोनिया गांधी के निजी सचिव वी जॉर्ज से मतभेद होने पर उन्होंने कोषाध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दिया.
राजीव की मौत के सात साल बाद तक खामोश रहने वाली सोनिया गांधी ने जब अंततः अपनी राजनीतिक चुप्पी तोड़ी तो उनके सारथी बनकर पटेल उनके साथ आगे आए. वाघेला कहते हैं, ‘सोनिया गांधी को पार्टी की कमान संभालने के लिए तैयार करने में पटेल की बहुत बड़ी भूमिका थी. सीताराम को बाहर करके सोनिया गांधी की ताजपोशी में पटेल ने महत्वपूर्ण रोल अदा किया.’ सोनिया गांधी के पार्टी संभालने के बाद पटेल का राजनीतिक कद और रूतबा दिनों-दिन बढ़ता ही गया. पटेल के राजनीतिक प्रभाव का आलम यह हो गया कि पार्टी में यह कहा जाने लगा कि गांधी परिवार के बाद कांग्रेस में सर्वाधिक ताकतवर आदमी यदि कोई है तो अहमद पटेल ही हैं.
अहमद पटेल की राजनीतिक पहचान का एक कारण और भी है. वे गुजरात से आने वाले पार्टी के दो मुस्लिम सांसदों में से एक रहे हैं. दूसरे सांसद थे एहसान जाफरी जिन्हें 2002 में दंगाइयों ने जलाकर मार डाला. जाफरी लंबे समय से सक्रिय राजनीति से दूर थे. जानकार बताते हैं कि शुरुआत में दोनों को कांग्रेस ने मुस्लिम चेहरे के रूप में आगे बढ़ाया. लेकिन गुजरात में दक्षिणपंथी ताकतों के मजबूत होने और प्रदेश में पार्टी के सिकुड़ते जनाधार के कारण जहां जाफरी सक्रिय राजनीति से सन्यास लेकर विदेश में रहने लगे वहीं अहमद पटेल सक्रिय बने रहे.
पटेल के बारे में यह भी कहा जाता है कि गांधी परिवार के इतने करीब और प्रभावशाली होने के बावजूद उन्होंने कभी अपनी राजनीतिक हैसियत का न दुरूपयोग किया और न ही अपने फायदे के लिए उसका इस्तेमाल किया. उन्होंने कभी खुद के लिए कुछ नहीं किया. न अपने शक्तिशाली होने का ढिंढोरा पीटा और न ही सत्ता के करीब होने का. पद्मश्री से सम्मानित गुजरात के वरिष्ठ पत्रकार देवेंद्र पटेल कहते हैं, ‘यूपीए की पिछली दो सरकारों में सभी जानते थे कि प्रधानमंत्री से ज्यादा अहमद पटेल शक्तिशाली थे लेकिन उन्होंने कभी इसे सार्वजनिक तौर पर जाहिर नहीं होने दिया.’ वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई भी इस बात को रेखांकित करते हैं कि कैसे पिछले 10 सालों में जिन लोगों का भी पार्टी से लेकर सरकार तक में चयन किया गया वह अहमद पटेल की सहमति से ही हुआ लेकिन पटेल ने कभी इसका प्रदर्शन नहीं किया.
पटेल के राजनीतिक-आर्थिक हैसियत का बखान करते हुए गुजरात कांग्रेस के एक नेता कहते हैं, ‘अहमद भाई के पास यूपीए की पिछली दो सरकारों में इतनी ताकत थी कि वो जिसे चाहते मंत्री बनवा सकते थे. वो चाहते तो 10 मिनट में 100 करोड़ रुपये की व्यवस्था एक फोन पर ही कर सकते थे.’ कांग्रेस पार्टी को लंबे समय से देख रहे एक पत्रकार अपना अनुभव साझा करते हुए कहते हैं, ‘बहुत से पत्रकारों ने अहमद पटेल के ऑफिस से बोरे भरकर रुपये पार्टी कार्य के लिए बाहर जाते-आते देखे हैं. पार्टी के लिए पूरा फंड मैनेज करने का काम वही देखते रहे हैं. पार्टी को चंदा देने वाले उद्योगपति उन्हीं से संपर्क करते हैं. लेकिन आज तक उनके ऊपर किसी तरह की वित्तीय अनियमितता का आरोप नहीं लगा.’
पटेल के अपने गृह जिले भरूच में तमाम ऐसे लोग हैं जो यह बताते मिल जाएंगे कि कैसे भरूच के विकास के लिए अहमद पटेल ने हर संभव प्रयास किया. यहां वे तमाम विकास योजनाएं और उद्योग धंधे ले आए जिससे लोगों को रोजगार के तमाम अवसर मिले. सूरत के पूर्व मेयर कादिर पीरजादा कहते हैं, ‘बाबुबाई के कारण भरुच-अंकलेश्वर का खूब विकास हुआ. यहां कैमिकल फक्ट्रियां आईं. कोई ऐसी महत्वपूर्ण ट्रेन नहीं है जो भरूच न रुकती हो. पूरे भरूच में घर-घर में उन्होंने गैस पाइपलाइन पहुंचवाई है. तमाम उद्योग यहां आए हैं. यहां तक कि राज्य में गोहत्या के खिलाफ चले आंदोलनों का उन्होंने न सिर्फ पूरा समर्थन दिया बल्कि खूब आर्थिक मदद भी की. देवेंद्र, कादिर के दावे से सहमत दिखाई देते हैं. वे कहते हैं, ‘भरूच के लिए पटेल ने काफी काम किया है. वो यहां तमाम योजनाएं लेकर आए. लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात ये है कि उन्होंने कभी किसी काम का श्रेय नहीं लिया.’
पटेल को जानने वाले बताते हैं कि वे किसी से किसी तरह के संघर्ष से बचते हैं. पूरा प्रयास करते हैं कि किसी को उनसे कोई नाराजगी न हो. कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘कोई उनसे क्या नाराज होगा. कोई अहमद के खिलाफ सोनिया जी को शिकायती चिट्टी भेजेगा तो उसको पता है कि सोनिया जी वापस उसे पटेल को ही फॉरवर्ड कर देंगी कि देखो क्या मामला है. किसी को याद नहीं कि पिछली बार कब कांग्रेस अध्यक्ष पटेल से किसी विषय पर सख्ती से पेश आई थीं.’ कांग्रेस के सूत्र यह भी बताते हैं कि कैसे पिछले 10 सालों में सोनिया गांधी द्वारा लिए गए हर निर्णय के पीछे अहमद पटेल का ही दिमाग रहा. पार्टी के एक पूर्व महासचिव कहते हंै, ‘पिछले 10 सालों में पार्टी में कोई भी ऐसा निर्णय नहीं हुआ जिसमें पटेल की सहमति न हो. जब भी मैडम ने यह कहा कि वो सोच कर बताएंगी कि इस विषय पर क्या करना है पार्टी के लोग समझ जाते थे कि अब वो अहमद पटेल से सलाह लेंगी फिर फैसला करेंगी.’
तीन बार लोकसभा सदस्य रह चुके पटेल के काम करने के तौर-तरीकों की चर्चा करते हुए देवेंद्र पटेल कहते हैं, ‘वो रात को 9 बजे के बाद से काम करना शुरू करते हैं. अगर आपने उनसे मिलने के लिए आवेदन किया है तो इस बात के लिए तैयार रहिए कि वो रात को 2 बजे भी आपको मिलने के लिए बुला सकते हैं.’ अपना अनुभव साझा करते हुए दवेंद्र कहते हैं, ‘पहली बार जब मैंने उनके ऑफिस में उनसे एक मुलाकात के लिए आवेदन किया तो मुझे शाम को फोन आया कि क्या आप रात को दो बजे आ सकते हैं? मेरे लिए ये चौंकाने वाली बात थी. मिलने के लिए रात के दो बजे. बाद में पता चला वो ऐसे ही काम करते हैं. इसके साथ ही वो अपने काम को लेकर बेहद सजग और व्यवस्थित रहते हैं. कभी भी वो आपको फालतू के हंसी-मजाक करते हुए दिखाई नहीं देंगे.’
कई लोग पटेल के व्यवहार के कायल हैं. कोई उनके विनम्र व्यवहार की चर्चा करता है तो कोई उनकी ईमानदारी की. पार्टी के भीतर पटेल की पहचान बेहद सादगी और ईमानदारी से रहने वाले व्यक्ति की है. ऐसा नेता जो बाकी कांग्रेसियों की तरह शराब पार्टियों में नहीं जाता. जो तमाम फाइव स्टार पार्टियों से दूर रहता है. राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई कहते हैं, ‘ये गुण कांग्रेस में बहुत दुर्लभ है. पटेल की सबसे बड़ी खासियत ये है कि वो ताकतवर होने के बावजूद लो प्रोफाइल रहते हैं, खामोश रहते हैं, उनकी कोई व्यक्तिगत महात्वाकांक्षा नहीं है, साथ में मीडिया से दूर रहते हैं जबकी कांग्रेस में तमाम नेता आपको ऐसे दिखाई दे जाएंगे जो प्रचार के लिए हमेशा भूखे रहते हैं. इसके साथ ही पार्टी के बाहर के नेताओं से भी उनके अच्छे संबंध हैं. वो एक बेहतरीन पॉलिटिकल मैनेजर हैं.’
कादिर पीरजादा अपना अनुभव साझा करते हुए कहते हैं, ‘वो किसी तरह के प्रचार से दूर रहते हैं. एक बार कुछ लोगों ने मिलकर उनके काम के ऊपर किताब लिखने की सोची. लेकिन जैसे ही उन्हें इस बारे में पता चला उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया. कहा कि उन्हें किसी तरह का प्रचार पसंद नहीं है.’ ऐसी ही एक घटना का जिक्र करते हुए देवेंद्र पटेल कहते हैं, ‘एक बार मैंने उन पर एक स्टोरी की थी. जिसमें इस बात पर चर्चा थी कि पटेल इतना पावरफुल होने के बावजूद इतने लो-प्रोफाइल क्यों रहते हैं? उनका फोन आ गया कि भई आपने क्यों मेरे ऊपर लिख डाला. मैंने कहा इसमें आपकी आलोचना नहीं है. उन्होंने कहा, मेरे बारे में अच्छा भी मत लिखो. कुछ मत लिखो. उन्हें परेशान करने के लिए बस इतना ही काफी है कि आप उनके बारे में कुछ लिख दें.’
पटेल को जानने वाले बताते हैं कि वो इस कदर चर्चा और मीडिया से दूरी बरततें हैं कि हर शुक्रवार को दिल्ली की अलग-अलग मस्जिदों में जाकर नमाज पढ़ते हैं. ताकि वो मीडिया या लोगों की नजर में न आएं. पीरजादा कहते हैं, ‘बाबुभाई एक बेहतरीन इंसान हैं. ऐसा व्यक्ति मैंने आज तक नहीं देखा. वो मुस्लिम समाज से आते हैं लेकिन उनके मुस्लिम से ज्यादा हिंदू दोस्त हैं. बाकी नेताओं की तरह हवाई जहाज से नहीं बल्कि आज भी ट्रेन से सफर करना पसंद करते हैं. लोग मंत्री बनने के लिए मरने-मारने पर उतारू रहते हैं लेकिन इन्होंने मंत्री पद को हमेशा ठुकराया. सत्ता मिलने के बाद लोग पागल हो जाते हैं. बड़ा होने के बाद कैसे रहा जाता है ये आप अहमद पटेल से सीख सकते हैं.’
इंदिरा गांधी के जमाने से कांग्रेस से जुड़े पटेल के मजबूत होने का यह कारण भी माना जाता है कि जहां पार्टी में समय-समय पर तमाम नेताओं ने पार्टी में आए उतार-चढावों के दौर में पार्टी छोड़कर कहीं और अपना ठिकाना ढूंढ लिया वहीं उन्होंने आज तक पार्टी से कभी मुंह नहीं फेरा. रशीद किदवई कहते हैं, ‘अहमद पटेल इस मामले में भी बेहद खास रहे कि कांग्रेस में चाहे जो सत्ता परिवर्तन होता रहा लेकिन वो कभी पार्टी छोड़कर नहीं गए. पार्टी के प्रति हमेशा वफादार रहे. हमेशा ईमानदारी से पार्टी के लिए काम किया.’ देवेंद्र पटेल कहते हैं, ‘एक तरफ जहां मुस्लिम नेताओं सहित दलित या अन्य समुदाय से आए नेताओं में खुद को पूरे समुदाय का नेता बताने की होड़ लगी रहती है वहीं अहमद पटेल ने कभी खुद को मुस्लिम नेता के तौर पर प्रोजेक्ट नहीं किया. जबकि यहीं कांग्रेस पार्टी में ही लोग मुसलमानों का सच्चा हितैषी दिखने के लिए जूतमपैजार करते रहते हैं.’
अहमद पटेल के गांधी परिवार के बाद कांग्रेस में सबसे प्रभावशाली होने के सवाल पर कांग्रेस के एक पूर्व महासचिव कहते हैं, ‘देखिए इसके तीन बड़े कारण हैं. पहला ये कि वो बेहद लो प्रोफाइल रहते हैं. मीडिया से दूर, बयानबाजी से दूर रहते हैं. दूसरी बात ये कि उन्होंने गांधी परिवार की उस तरह सेवा की जैसे एक भक्त अपने भगवान की करता है. वो पूरी तरह ईमानदार रहे. तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि वो हमेशा अपना मुंह बंद रखते हैं. मुंह बंद रखने में उनका कोई सानी नहीं है. इंदिरा जी के जमाने से ही वो चुप रहना सीख गए थे. सत्ता के लगातार करीब रहे लेकिन अपने लिए कभी कोई लाभ नहीं लिया. वो क्या कर सकते हैं से ज्यादा गांधी परिवार के करीब वो इसलिए हैं कि उन्होंने क्या -क्या नहीं किया.’
हालांकि कांग्रेस में अहमद के आलोचक भी हैं. जो उन्हें बेहद औसत सोच-समझ वाला नेता बताते हैं. कांग्रेस की केंद्रीय राजनीति में सक्रिय एक नेता कहते हैं, ‘वे कोई विलक्षण आदमी नहीं हैं, न करिश्माई हैं. बेहद सामान्य राजनीतिक सोच समझ वाले शख्स हैं. हां, वे चुप रहना जानते हैं. उन्हें देख-सुन कर कोई नहीं कह सकता कि वे भारत की सबसे शक्तिशाली महिला को सलाह देते हैं. खैर खुदा उन पर मेहरबान है.’ कांग्रेस में अहमद पटेल के आलोचकों की चर्चा करते हुए रशीद कहते हैं, ‘गुलाम नबी आजाद, सलमान खुर्शीद, मधुसूदन मिस्त्री, जयराम रमेश, अंबिका सोनी समेत कई नेता इनसे चिढ़ते आए हैं.’ पटेल के एक आलोचक कहते हैं, ‘उनका एकसूत्रीय काम उन सभी लोगों की सेटिंग कराना है जो उनकी गुड बुक्स में हंै. ये सबका जुगाड़ सेट करने का ही काम करते हैं. जो इनकी निगाह में अच्छा लग गया उसको सेट करा देंगे.’
मोदी और गुजरात
हाल ही में मोदी ने जब अहमद पटेल से अपने मधुर संबंधों का हवाला दिया तो कांग्रेस में कई नेता बिना आग के धुंआं नहीं उठता वाली कहावत सुनाते नजर आए. गुजरात कांग्रेस से लेकर केंद्रीय कांग्रेस में एक तबका ऐसा है जो समय-समय पर दबे-छुपे मोदी और अहमद के संबंधों की बात कहता आया है. गुजरात कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘हम यहां भी सुनते हैं. कार्यकर्ता भी हमसे कहते हैं कि साहब कुछ ठीक नहीं है. मैं तो बस इतना जानता हूं कि गुजरात में विधानसभा से लेकर लोकसभा तक का टिकट वही बांटते हैं. अब विधानसभा में पार्टी की क्या स्थिति है ये सबके सामने हैं. स्थिति ये है कि उनके जिले में ही कांग्रेस लगातार हार रही है. भाजपा उनके अपने गांव पिरामन तक में घुस गई है. उनके अपने गृहक्षेत्र में पार्टी कोई कद्दावर उम्मीदवार नहीं उतारती. हर बार हारती है. लोग कहते हैं कि बस उन्हें उतनी ही सीटों की फिक्र है जिससे गुजरात से उनकी राज्यसभा सीट बनी रहे. ’
भरुच में ईटीवी का काम देखने वाले वरिष्ठ पत्रकार हितेश शुक्ला कहते हैं, ‘अहमद पटेल के गांव तक में भाजपा का दबदबा है. अहमद पटेल न चाहते तो मोदी कभी मजबूत नहीं होते. उन्होंने जान-बूझकर कभी भी मोदी और भाजपा के खिलाफ कोई मजबूत कांग्रेस प्रत्याशी नहीं उतारा. ऐसा लगता है मानो पटेल चाहते ही नहीं है कि कांग्रेस यहां मजबूत हो.’
अहमद के सियासी सफर पर कुछ दाग भी हैं. उन पर सबसे बड़ा आरोप उस समय लगा जब यूपीए-1 के कार्यकाल में न्यूक्लियर डील के मसले पर संसद में वोटिंग हुई. कहा गया कि सरकार के पक्ष में मतदान करने के लिए तत्कालीन सपा नेता अमर सिंह के साथ मिलकर अहमद पटेल ने भाजपा सांसदों को खरीदने का काम किया. भाजपा सांसदों को यूपीए सरकार के पक्ष में वोट डालने के लिए पैसे दिए गए थे. हालांकि इस मामले की जांच करने वाली संसद की एक कमिटी ने पटेल को बाद में आरोपमुक्त कर दिया.