2011 में भारी-भरकम बहुमत हासिल करके जयललिता ने जब चौथी बार तमिलनाडु की सत्ता संभाली तो कहा जाता है कि उनके जेहन में 2014 का लोकसभा चुनाव भी घूम रहा था. उस चुनाव को फतह करने के लिए तब उन्होंने बहुत सी ऐसी योजनाएं शुरू कीं, जिनके तार सीधे-सीधे लोगों की आम जरूरतों से जुड़े हुए थे. ‘अम्मा रसोई, ‘अम्मा नमक’ और ‘अम्मा मिनरल वाटर’ जैसी इन योजनाओं का उद्देश्य तमिलनाडु के लोगों को रियायती दरों पर खाना, पानी, कपड़े और अन्य जरूरी चीजें उपलब्ध कराना था. इन लोकलुभावन योजनाओं ने अपना पूरा असर दिखाया और उनकी पार्टी को आमचुनाव में राज्य की कुल 39 में से 37 सीटें मिल गईं.
अपने ‘अम्मा नामधारी योजना’ अभियान में इजाफा करते हुए जयललिता ने बीते 26 सितंबर को एक और योजना ‘अम्मा सीमेंट’ का श्रीगणेश किया. इसका मकसद गरीब लोगों को मकान बनाने के लिए बाजार मूल्य से कम कीमत पर सीमेंट उपलब्ध कराना था. तमिल राजनीति के जानकारों के मुताबिक अम्मा सीमेंट की मदद से वे 2016 में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए अपने राजनीतिक दुर्ग को और भी मजबूती देना चाहती थीं. लेकिन जयललिता का यह सपना परवान चढ़ने से पहले ही भरभरा गया. इस योजना की लॉन्चिंग के दो दिन बाद ही आय से अधिक संपत्ति रखने के एक मामले में बंगलुरू की विशेष अदालत ने उन्हें चार साल कैद की सजा सुना दी. पिछले साल आए सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के मुताबिक अब किसी भी कोर्ट से सजा होते ही जनप्रतिनिधियों की संसद या विधानसभा की सदस्यता खत्म हो जाएगी. अदालत से सजा मुकर्रर होने के बाद वे अब सलाखों के पीछे हैं और सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की वजह से वे अब जनप्रतिनिधि भी नहीं रहीं. इस सजा ने उनका मुख्यमंत्री पद तो छीना ही, साथ ही उन्हें अगले दस सालों तक चुनावी अखाड़े में उतरने के लिए भी अयोग्य घोषित कर दिया है. ऐसे में जयललिता के राजनीतिक भविष्य के साथ ही उनकी खुद की पार्टी और उससे भी ज्यादा तमिलनाडु की सियासत को लेकर कई तरह के सवाल खड़े हो गए हैं. सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि पूरे एक दशक तक सक्रिय राजनीति में न रह पाने के चलते जयललिता का राजनीतिक रसूख कितना बचा रह पाएगा? इन सवालों की पड़ताल करने से पहले एक सरसरी नजर उस घटनाक्रम पर डालते हैं जिसने जयललिता को मुख्यमंत्री की कुर्सी से सलाखों के पीछे पहुंचाया.
1991 में पहली बार मुख्यमंत्री बनी जयललिता ने तब अपनी कुल आमदनी तकरीबन तीन करोड़ रुपये बताई थी. इसके साथ ही उन्होंने ऐलान किया था कि मुख्यमंत्री रहते हुए वे सिर्फ एक रुपया मासिक वेतन ही लेंगी. लेकिन इस बीच उनकी संपत्ति में आश्चर्यजनक रूप से लगातार बढ़ोत्तरी होने की खबरें सामने आने लगीं. जयललिता की शाही जीवनशैली के चलते भी इन बातों को बल मिलने लगा कि उनके पास बेहिसाब पैसा हो सकता है. जून 1996 में तत्कालीन जनता दल नेता (अब भाजपाई) डॉ सुब्रमण्यम स्वामी ने जयललिता पर 1991 से 1996 के बीच अकूत संपत्ति बनाने तथा अपने करीबी लोगों को लाभ पहुंचाने का आरोप लगाया और शिकायत कर दी. इसके बाद तमिलनाडु के सतर्कता और भ्रष्टाचार निरोधक विभाग ने उनके खिलाफ मामला दायर कर इसकी जांच शुरू कर दी. 2003 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद इस मामले को चेन्नई से बंगलुरु स्थानांतरित किया गया. अट्ठारह साल के बाद आखिरकार अदालत ने जयललिता पर लगे आरोपों को सही पाया और बीती 28 सितंबर को फैसला देते हुए उन्हें चार साल की कैद के साथ 100 करोड़ रुपये के जुर्माने की सजा दे दी.
‘जयललिता भी एकला चलो की परिपाटी पर चलने वाली हैं. उनकी पार्टी में नंबर दो तो क्या तीसरे, चौथे और पांचवें नंबर पर भी कोई नेता नहीं है’
लगभग दो दशक तक चली इस अदालती प्रक्रिया के बाद वे बतौर मुख्यमंत्री सजा पाने वाली पहली नेता बन गई हैं. इसके साथ ही वे लालू प्रसाद यादव, ओेमप्रकाश चौटाला और मधु कोड़ा जैसे पूर्व मुख्यमंत्रियों की जमात में शामिल हो गई हैं जिन्हें भ्रष्टाचार करने के चलते जेल जाना पड़ा. अपने दम पर राजनीति के शिखर पर पहुंची जयललिता के लिए यह एक बड़ा झटका माना जा रहा है. जानकारों का एक बड़ा वर्ग इसे उनके राजनीतिक भविष्य पर प्रश्नचिन्ह के रूप में देखने लगा है. इस वर्ग की मानें तो कानून के हथौडे़ ने जयललिता के राजनीतिक भविष्य पर इतनी बड़ी चोट कर दी है कि इससे उबरने में उन्हें और उनकी पार्टी को जबर्दस्त चुनौतियां झेलनी पड़ेंगी. यह चुनौती इसलिए भी बड़ी मानी जा रही है क्योंकि अब तक अपनी पार्टी की एकमात्र धुरी वे ही रही हैं. इस का प्रमाण यह भी है कि उनको सजा हो जाने के बाद पार्टी को नया मुख्यमंत्री तय करने में तीन दिन का समय लग गया. इसके बाद उन्हीं पन्नीरसेल्वम को मुख्यमंत्री बनाया गया है जो एक बार पहले भी वर्ष 2001 में तांसी मामले में जयललिता को सजा मिलने के बाद मुख्यमंत्री बनाए गए थे और मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पर नहीं बैठा करते थे. ऐसे में सवाल उठता है कि इस तरह की स्थितियों में पार्टी का आगामी भविष्य क्या होगा.
वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘पिछले लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के हावी होने के बावजूद जयललिता के नेतृत्व में अन्नाद्रमुक ने तमिलनाडु में शानदार सफलता हासिल की थी. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि राज्य में उनका प्रभाव किस कदर है.’ वे आगे कहती हैं, ‘जयललिता को सजा मिल जाने से उनकी पार्टी में नेतृत्व को लेकर जो शून्य पैदा हो गया है उसकी भरपाई बहुत कठिन है. ऐसे में 2016 में जब तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव होंगे तब पार्टी को उनके बिना भारी चुनौतियां सहनी पड़ सकती हैं.’ जयललिता की अनुपस्थिति में पैदा होने वाले जिस शून्य की ओर नीरजा और इशारा कर रही हैं, उसको देखते हुए यह जानना जरूरी हो जाता है कि जयललिता के नहीं होने के चलते पार्टी में नेतृत्व का सूखा पड़ने की आखिर कौन सी वजहें हैं. जयललिता के राजनीतिक अवतरण की कथा के आलोक में जाने पर इस सवाल का जवाब आसानी से ढूंढा जा सकता है.
मात्र पंद्रह साल की उम्र में बतौर अभिनेत्री अपना सिनेमाई कैरियर शुरू करने वाली जयललिता ने 1984 में सक्रिय रूप से राजनीति शुरू की. तब राज्य के मुख्यमंत्री एमजी रामचंद्रन काफी बीमार थे और जयललिता पार्टी में अपना प्रभाव जमा रहीं थी. उस वक्त इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी और कांग्रेस के पक्ष में सहानुभूति का माहौल था. इसी का लाभ उठाते हुए एआईएडीएमके ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया और चुनाव में जीत हासिल कर ली. इस बीच मुख्यमंत्री रामचंद्रन को इलाज के लिए अमेरिका भेजा गया, जहां 1987 में उनका निधन हो गया. रामचंद्रन के निधन के बाद उनकी पत्नी जानकी राज्य की मुख्यमंत्री बनीं. लेकिन जयललिता ने इसका विरोध करते हुए खुद को रामचंद्रन का असली उत्तराधिकारी करार दिया और बगावत कर दी. इसके बाद हुए विधानसभा चुनावों में उन्होंने शानदार प्रदर्शन करके इस बात को सच साबित कर दिखाया. विधानसभा चुनाव में उनके धड़े को 23 सीटें मिलीं, जबकि जानकी गुट एक सीट ही हासिल कर पाया. इसके बाद जयललिता ने दोनों गुटों को एकजुट करने का काम किया और निर्विवाद रूप से पार्टी की सर्वेसर्वा बन गईं. तबसे लेकर अब तक एआईडीमके पर उनका वर्चस्व कायम है. इसी का परिणाम है कि आज तक उनकी पार्टी में दूसरी पंक्ति के नेता के रूप में कोई नहीं उभर पाया.
कुछ साल पहले सीनियर पत्रकार करन थापर को दिए एक इंटरव्यू में जयललिता का कहना था कि जहां इंदिरा गांधी, बेनजीर भुट्टे, भंडारनायके और शेख हसीना जैसी एशियाई नेत्रियों को राजनीति विरासत में मिली थी वहीं उन्होंने अपने खुद के दम पर अपना वजूद स्थापित किया है. बहुत से जानकार इस बात को स्वीकार भी करते हैं. वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई कहते हैं, ‘इस बात से कोई इंकार नहीं किया जा सकता कि जयललिता ने राजनीति में अपने बूते इतना बड़ा कद हासिल किया है. यही वजह है कि आज उनकी पार्टी में दूर-दूर तक कोई भी एेसा व्यक्ति नहीं दिखता जिसे उनके विकल्प के रूप में देखा जा सके’. एक वेबसाइट पर वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन लिखते हैं, ‘नरेंद्र मोदी, मायावती, ममता बनर्जी और अन्य प्रमुख व्यक्ति केंद्रित नेताओं की तरह जयललिता भी एकला चलो की परिपाटी पर चलने वाली हैं. उनकी पार्टी में नंबर दो तो क्या तीसरे, चौथे और पांचवें नंबर पर भी कोई नेता नहीं है.’
यही तथ्य उनके और उनकी पार्टी के लिए मुश्किल पैदा करने वाला भी है. किदवई कहते हैं, ‘जयललिता, मायावती और ममता बनर्जी जैसी नेत्रियों की पार्टी में पहले तो दूसरे नंबर का कोई घोषित नेता नहीं है साथ ही एक और तथ्य यह भी है कि अविवाहित होने की स्थिति में इनके पास लालू, मुलायम और चौटाला जैसा वंशवादी राजनीतिक विकल्प भी नहीं है. ऐसे में इन पर संकट आने से पूरी पार्टी पर संकट आना स्वाभाविक है. नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘जयललिता को दोषी ठहराए जाने का यह अदालती फैसला यदि ऊपरी अदालतों में भी बरकरार रहता है तो ऐसे में मजबूत उत्तराधिकारी न होने के चलते दूसरे राजनीतिक दल राज्य में अपने लिए संभावनाएं तलाश सकते हैं. ऐसे में अब दूसरे दलों की गतिविधियों को देखा जाना भी महत्वपूर्ण होगा कि जयललिता की अनुपस्थिति को वे किस तरह अपने पक्ष में कर सकते हैं.’
तमिलनाडु की राजनीति में अन्नाद्रमुक के अलावा दूसरा सबसे प्रमुख दल डीएमके है. दूसरे शब्दों में कहें तो ये दोनों दल ही तमिल राजनीति की धुरी रहे हैं. 1967 में एम भक्तवत्सलम के नेतृत्व में आखिरी बार तमिलनाडु में कांग्रेस पार्टी की सरकार रही. तब से अब तक लगभग आधी सदी के दौरान तमिलनाडु की सत्ता इन्ही दो पार्टियों के बीच बंटती रही है. ऐसे में यह सवाल उठना वाजिब लगता है कि क्या जयललिता के जेल चले जाने के बाद विपक्षी दल डीएमके के पास कोई मौका हो सकता है?
कई राजनीतिक जानकार इसका जवाब ‘ना’ में देते हैं. उनका मानना है कि बेशक जयललिता को सजा हो जाने के बाद द्रमुक के नेतृत्व और उसके कैडर का उत्साह बढ़ेगा लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि इससे उसकी स्थिति में सुधार होगा ही. 2014 के लोकसभा चुनावों में सूपड़ा साफ होने के साथ ही द्रमुक सुप्रीमो करुणानिधि के कुनबे में चल रही पारिवारिक कलह को इसकी बड़ी वजह के रूप में देखा जा रहा है. किदवई कहते हैं, ‘बेशक पिछले कई दशकों से तमिलनाडु की राजनीति अन्नाद्रमुक और द्रमुक के बीच ही घूमती रही है. लेकिन जयललिता के कमजोर पड़ जाने के बाद भी द्रमुक के लिए यह उतना अच्छा अवसर शायद ही साबित हो. क्योंकि करुणानिधि के परिवार में आपसी झगड़े और उसके नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोपों ने उनकी पार्टी को हाल के समय में काफी कमजोर कर दिया है.’ वरिष्ठ पत्रकार अजय बोस भी इस बात से इत्तेफाक रखते हैं, ‘वे कहते हैं, पिछले कुछ सालों से डीएमके की हालत राज्य में लगातार खस्ता हुई है. पहले विधानसभा चुनावों में उसे करारी हार मिली और फिर लोकसभा चुनाव में उसका सफाया हो गया. ऐसे में राज्य में उसका काडर पूरी तरह बिखरा हुआ है. इसके अलावा करुणानिधि की बढ़ती उम्र के साथ ही उनके बेटों स्टालिन और अलागिरी के बीच सत्ता संघर्ष ने भी पार्टी को काफी नुकसान पहुंचाया है. ऐसे में जलयलिता का जेल जाना शायद ही डीएमके के लिए फायदा पहुंचा सकेगा.’
डीएमके की खस्ता हालत को लेकर राजनीतिक पंडितों की इस राय को यदि सही मान लिया जाए तब भी यह सवाल तो उठता ही है कि तमिलनाडु की राजनीतिक तस्वीर में किस तरह के बदलाव आ सकते हैं. सवाल यह भी उठता है कि क्या इन स्थितियों में भाजपा तथा कांग्रेस के लिए राज्य में कोई संभावना पैदा हो सकती है?
जयललिता को सजा हो जाने के बाद द्रमुक के नेतृत्व और उसके कैडर का उत्साह बढ़ेगा लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि इससे उसकी स्थिति में सुधार हो ही जाए
कांग्रेस पार्टी की बात की जाए तो 2014 के लोकसभा चुनाव में उसकी दुर्गति किसी के छिपी नहीं है. लेकिन आंकड़े यह भी बताते हैं कि इस चुनाव से पहले उसे तमिलनाडु में नौ से 15 प्रतिशत के बीच वोट मिलते रहे हैं. ऐसे में बहुत संभव है कि कांग्रेस अपने इस वोट बेंक को फिर से हासिल करने की कोशिश करे. लेकिन क्या यह इतना आसान होगा? किदवई कहते हैं, ‘कांग्रेस पार्टी के लिए इस वक्त पूरे देश में जिस तरह का मोहभंग चल रहा है, उसे देखते हुए पार्टी की डगर यहां भी काफी मुश्किल नजर आती है. इसके अलावा उसकी मुश्किल यह भी है कि उसके पास प्रदेश स्तर पर कोई राजनीतिक चेहरा ऐसा नहीं है जो जयललिता की परछाईं भी साबित हो सके.’ कांग्रेस के बाद यदि भाजपा की बात करें तो तमिलनाडु के छोटे दलों के साथ गठजोड़ करके वह लोकसभा चुनाव में अपना खाता यहां से खोल चुकी है. इसके अलावा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रभाव के सहारे पार्टी देशभर के सभी राज्यों में अपना जनाधार बढ़ाने की कोशिश जारी रखे हुए हैं. ऐसे में तमिलनाडु की राजनीति में आए इस परिवर्तन को अपने पक्ष में भुनाने में शायद ही वह कोई कमी रखे. नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘जिस तरह से भाजपा इन दिनों कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक अपना जनाधार बढ़ाने की कोशिश में लगी है उसे देखते हुए इस बात की बहुत संभावना है कि 2016 में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए वह यहां के राजनीतिक समीकरणों में खुद को शामिल करने की पूरी कोशिश करेगी. हालांकि महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनावों के नतीजों पर भी भाजपा की रणनीति काफी हद तक निर्भर करेगी.’ लेकिन अजय बोस नीरजा की बातों से असहमति जताते हुए कहते हैं, ‘बेशक भाजपा ने लोकसभा चुनाव में तमिलनाडु में खाता खोल लिया हो लेकिन अंतत: यहां क्षेत्रीय राजनीति की चलेगी. ऐसे में हो सकता है कि कोई नया क्षेत्रीय दल राज्य में आकार लेने की कोशिश करे, लेकिन फिलहाल ऐसा होता नहीं दिखता.’
इन बातों के साथ ही अजय बोस तमिलनाडु की राजनीति में जया के प्रभाव को कम आंकने को जल्दबाजी भी करार देते है. वे कहते हैं, ‘बेशक अदालत ने जयललिता को सजा सुना दी है लेकिन इससे हाल-फिलहाल में उनकी पार्टी और उनके प्रभाव को कोई नुकसान नहीं दिख रहा है. इसकी प्रमुख वजह तमिलनाडु में कमजोर विपक्ष के साथ ही उनका खुद का मजबूत कद है.’ इसके अलावा जयललिता के पास अभी ऊपरी अदालत का विकल्प मौजूद है, और यदि उन्हें किसी तरह वहां से राहत मिल जाती है तो वे पहले के मुकाबले और भी मजबूत हो जाएंगी. राजनीतिक विश्लेषक अरविंद मोहन की मानें तो जयललिता के खिलाफ आए फैसले से तमिलनाडु की राजनीति में कुछ बदलाव देखने को भले ही मिल जाएं लेकिन जिस तरह से उन्होंने लगातार पिछले कुछ चुनाव शानदार ढंग से जीते हैं, उन्हें पूरी तरह से खारिज कर देना जल्दबाजी होगी. अपने एक लेख में अंग्रेजी अखबार ‘द हिंदू’ के मैनेजिंग एडिटर जयंत वासुदेवन लिखते हैं, ‘जयललिता के खिलाफ आए हालिया फैसले से तमिलनाडु में उनकी पार्टी की राजनीति पर फिलहाल बुरा असर पड़ने की कोई आशंका नहीं है. वैसे भी राज्य में विधानसभा चुनाव अभी दो साल दूर हैं. तब तक के लिए जयललिता ने सरकार पर पकड़ बरकरार रखने के लिए ‘रामचरितमानस’ के राम की तरह ‘भरत’ का चयन कर लिया है. हालांकि इस सबके बावजूद इस बात में बहुत दम है कि जयललिता की आगे की राजनीति काफी हद तक अदालत के आदेश से ही तय होगी.’
इन सब तर्कों के आधार पर देखा जाए तो एक बात साफ तौर पर नजर आती है कि तमिलनाडु की मौजूदा राजनीति में जयललिता का कद बाकी सबके मुकाबले कहीं ऊंचा है. उनकी सजा का ऐलान होते ही राज्यभर में लोगों ने जोर-शोर से विरोध प्रदर्शन आयोजित किए. उनके जेल जाने के बाद से कई लोग भारी सदमे में हैं. यहां तक कि राज्य के अलग-अलग हिस्सों से दर्जनभर से ज्यादा आत्महत्याओं की खबरें अब तक सामने आ चुकी हैं. ऐसे में माना यही जा रहा है कि तमिलनाडु के लोग इस वक्त जयललिता के पक्ष में पूरी तरह लामबंद हैं और जल्द से जल्द उनकी रिहाई चाहते हैं.
लेकिन सच यही है कि यदि उन्हें अदालत से राहत नहीं मिली तो दस साल बाद जब वे फिर से चुनावी राजनीति में उतरेंगी तब तक बहुत कुछ बदल चुका होगा. उनकी खुद की ही बात करें तो हिंदू मान्यताओं के मुताबिक वे तब ‘वानप्रस्थ’ वाली अवस्था (76 साल) को प्राप्त कर चुकी होंगी. उस हालत में फिर से सारी ऊर्जा समेटकर राजनीति के क्षितिज पर पहले की तरह चमकना किसी के लिए आसान नहीं हो सकता. फिर चाहे वह जयललिता ही क्यों न हों.