यह बात वर्ष 2002 की है. मैंने नवोदय विद्यालय से 12वीं की परीक्षा दी थी और परिणाम की प्रतीक्षा कर रहा था. वह दौर कुछ ऐसा था कि मेरी उम्र का हर बच्चा या तो डॉक्टर या फिर इंजीनियर बनना चाहता था. मेरे जो गिनेचुने शौक थे उनमें घुमक्कड़ी भी शाामिल थी. यही वजह है कि जब मुझे मेडिकल की अखिल भारतीय परीक्षा में आवेदन करने का मौका मिला तो मैंने चुपके से परीक्षा केंद्र का विकल्प देहरादून भर दिया. प्रवेश पत्र आया तो घर पर सब लोग चौंक गए लेकिन किया ही क्या जा सकता था. पिताजी ने मुझसे कहा कि मुझे परीक्षा देने अकेले ही जाना होगा. मुझे तो मुंहमांगी मुराद मिल गई.
निर्धारित दिन मैं लखनऊ से ट्रेन पकड़कर देहरादून पहुंचा और होटल में ठहर गया. रातभर आराम करने के बाद सुबह परीक्षा देने निकला तो मेरी दो और लोगों से दोस्ती हो गई. परीक्षा खत्म होने के बाद हम आपस में मिले तो घूमने की योजना बनी. वापसी की ट्रेन का आरक्षण दूसरे दिन का था. उस समय तक मैं मसूरी नहीं गया था. मैंने उनके सामने मसूरी घूमने का प्रस्ताव रखा लेकिन दोनों साथियों ने पैसों की कमी की बात कहकर मना कर दिया. उनका प्रस्ताव देहरादून के आस-पास घूमने का ही था. पैसे मेरे पास भी कम ही थे पर मसूरी घूमने की हसरत तो थी ही.
आखिर में मैंने अकेले जाने का निश्चय किया. सोचा की शाम तक लौट आऊंगा. सिर्फ आने-जाने का खर्च लगेगा. फिर मैंने तुरंत बस पकड़ ली और मसूरी पहुंच गया. मसूरी पहुंचकर मैं वहां की सुंदरता और मनोरम दृश्य देखने में व्यस्त हो गया. माल रोड घूमने में काफी समय निकल गया. वहां घूमते हुए मैंने समय पर ध्यान ही न दिया. जब हल्का सा अंधेरा हुआ तो मैंने वापस लौटने का निश्चय किया. मैं बस स्टॉप पर पहुंचा तो पता चला कि अंतिम बस आधे घंटे पहले ही जा चुकी. मौसम खराब होने के चलते कोई टैक्सी भी नहीं मिल रही थी. काफी पूछ-ताछ के बाद भी कोई जुगाड़ न हो सका. आखिरकार मैंने रात मसूरी में ही बिताने का निश्चय किया. रात में वहां रुकने के लिए होटल लेना जरूरी था. मैंने अपने जेब के पैसों का हिसाब लगाया तो लगा कि कोई सस्ता होटल लिया जा सकता है सुबह वापस देहरादून लौट चलेंगे. मैं माल रोड पर होटल खोजने निकल पड़ा. काफी खोजने के बाद भी किसी होटल में जगह न मिली. सभी सस्ते होटल फुल थे. जिनमंे कमरे खाली थे वहां रुकने का खर्च काफी महंगा था. काफी मशक्कत के बाद मैंने रात ऐसे ही सड़क पर घूमटहल कर बिताने का इरादा बनाया. मुझे मसूरी की रात की जीवनशैली का अंदाजा न था. मैं माल रोड पर इधर से उधर चक्कर लगाने लगा. लेकिन थोड़ी देर में मौसम और बिगड़ने लगा. बूंदा-बांदी और तेज हवाएं चलने लगीं. थोड़ी देर में ही सड़कों पर सन्नाटा हो गया. मैंने भीगने से बचने के लिए नजर दौड़ाई तो रोप-वे सेंटर के बगल में थोड़ी सी जगह दिखी जो बारिश और हवा से बचा सकती थी. मैं भाग कर वहां पहुंचा तो देखा कि एक शख्स पहले से ही वहां पर था. उसके कपड़े काफी गंदे थे और उसने खुद को ठंड से बचाने के लिए एक गंदा सा कंबल ओढ़ रखा था. मैं वहां पहुंच कर खड़ा हो गया. पर बार-बार मेरी नजर उधर जाती और उसका मैला-कुचैला रूप देख मैं असहज हो जाता. आखिर मैंने वहां से कुछ दूर एक दूसरी दुकान के नीचे रुकने का निश्चय किया. मैं भाग कर वहां पहुंच तो गया पर फिर समझ में आया कि वहां बारिश से तो बचा जा सकता था लेकिन तेज हवाएं वहां सीधे लग रही थीं. एक बार फिर मैंने वापस उसी स्थान पर जाने की सोची पर फिर उसकी गंदगी का ख्याल करके वहीं बेंच पर लेट गया. अब तक ठंड काफी बढ़ चुकी थी. वह व्यक्ति मुझे चुपचाप देख रहा था. मैंने बैग से चादर निकाली, और उसी में खुद को लपेट लिया. पर उस ठंड में यह नाकाफी था. मैं अपनी आंखें बंद कर लेट गया. मुझे कब नींद आई पता नहीं.
‘मैं वहां पहुंचा, देखा कि एक बंदा पहले से ही वहां पर था. उसके कपड़े गंदे थे और उसने ठंड से बचने के लिए एक गंदा सा कंबल ओढ़ा था’
सुबह नींद खुली तो देखता हूं, वही गंदा कंबल मेरे ऊपर पड़ा था और बेंच से कुछ दूरी पर कुछ लकड़ियां जली थीं. कंबल हटाते ही सर्द हवा के झोंके से पूरे शरीर में सिहरन दौड़ गई. मैंने सामने रोप-वे की तरफ नजर डाली तो वहां उस व्यक्ति का कोई पता नहीं था. कुछ दूर एक दुकानदार से पूछने पर पता चला कि मैं रात में ठंड से कांप रहा था. यह देखकर उस व्यक्ति ने अपना कंबल मुझपर डाल दिया और आस-पास से लकड़ियां इकट्ठी करके जला दीं. सुबह की ठंड से अंदाजा लगाया जा सकता था की रात में क्या हालत रही होगी. आस-पास उस व्यक्ति का कोई पता नहीं था. मुझे देहरादून लौटना था. दोपहर बाद ट्रेन थी. मैंने कंबल वहीं रख दिया जहां पहली बार उसे देखा था और खुद बस में बैठ गया. बस में मेरे दिमाग में यही चल रहा था कि अगर उसने मुझे ठंड से बचाने का इंतजाम न किया होता तो मेरी क्या हालत होती?
इतने सालों बाद भी जब कभी सर्दियों में देर रात ऑफिस से निकलता हूं तो सड़क किनारे ठंड से कंपकंपाते लोगों को देखकर उस अनजान मददगार के प्रति मन आभार से भर जाता है.
(कौशलेंद्र विक्रम लेखक पत्रकार हैं और लखनऊ में रहते हैं)