टेलीविजन पर पर्यटन मंत्रालय का अतिथि देवो भव का अर्थ समझाने वाला आमिर खान का विज्ञापन देखते ही मुझे एक वाकया याद आ जाता है. आप कहीं भी जाइए, अच्छी खासी संख्या में ऐसे लोग मिल जाएंगे जो बात-बात पर सरकार को कोसते रहते हैं कि उसने देश की नाक कटवा दी… यह कर दिया… वह कर दिया वगैरह. पता नहीं लोगों को यह क्यों समझ में नहीं आता कि देश की नुमाइंदगी केवल सरकार ही नहीं करती बल्कि हमारे और आप जैसे आम लोगों से ही देश बनता है. हम जो भी करते हैं, हमारी हर गतिविधि, हर काम, देश में आए विदेशियों के समक्ष क्रमश: हमारी और देश की एक छवि बनाता है.
यह बात दिल्ली में हुए राष्ट्रमंडल खेलों की शुरुआत से कुछ पहले की है. उन दिनों शहर में विदेशी पर्यटकों की आवाजाही कुछ ज्यादा ही थी. मेट्रो के जिस कोच में भी नजर डालो कोई न कोई विदेशी नागरिक सफर करता दिख ही जाता था. उस समय मैं पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहा था. कॉलेज आना-जाना मेट्रो से ही होता था. अन्य दिनों की तरह उस दिन भी मैं आनंद विहार से राजीव चौक की ओर जाने वाली मेट्रो में सवार था. मेरी मंजिल अभी दूर थी और मैं हमेशा की तरह एक कोने में खड़ा उपन्यास पढ़ता हुआ सफर कर रहा था. चूंकि मैं पत्रकारिता का विद्यार्थी था इसलिए दो यात्रियों की बातचीत ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा. वे राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारियों में दिल्ली सरकार की नाकामी पर बात कर रहे थे. यह मुद्दा उस वक्त गर्म था इसलिए अन्य यात्री भी बातचीत में शरीक हो गए.
कहने की जरूरत नहीं कि बातचीत के केंद्र में देश की कथित नाक ही थी जो सरकार की हरकतों के कारण कट रही थी. यह चिंता सबको खाये जा रही थी. राजीव चौक आया और डिब्बे में भीड़ थोड़ी कम हुई. मुझे सीट मिल गई थी और फिक्रमंद यात्रियों का समूह मेरे सामने ही खड़ा था. थोड़ी दूरी पर तीन विदेशी नागरिक भी खड़े थे और अपने हाथों में लिए सामान के साथ भीड़ भरे डिब्बे में किसी तरह संतुलन बनाने की कोशिश कर रहे थे. शायद वह लोग राजीव चौक से ही गाड़ी में चढ़े थे. मेरा स्टेशन आने वाला था और वे विदेशी पर्यटक सामान के साथ खासे परेशान हो रहे थे. मेरी नजर उनमें से एक यात्री से मिली और मैंने आंखों से ही उसे इशारा किया कि मैं उठ रहा हूं और वह आकर मेरी सीट पर बैठ जाए. हो सकता है यह मेट्रो में हो रही उद्घोषणा का असर हो जो लगातार आग्रह कर रही थी कि अगर आपके आसपास कोई जरूरतमंद है तो उसे सीट अवश्य दें. अभी उनमें से एक पर्यटक मेरी सीट तक पहुंच पाता उससे पहले ही मेरा उठना भांपकर देश के लिए फिक्रमंद यात्रियों में से एक लपक कर उस सीट पर बैठ गया. यकीनन उसने उस विदेशी यात्री को सीट की ओर बढ़ते देख लिया था और इसीलिए उसने इतनी फुर्ती दिखाई कि पल भर को मैं भी कुछ समझ नहीं पाया. मुझे बहुत गुस्सा आया लेकिन इससे पहले कि मैं देश की नाक को लेकर फिक्र में डूबे उन सज्जन से उलझता, उस विदेशी यात्री ने टूटी-फूटी अंग्रेजी में मुझे धन्यवाद किया और विवाद करने से मना किया. वह धन्यवाद किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को शर्मिंदगी का अहसास कराने के लिए काफी था.
मैं उन फिक्रमंद श्रीमान से पूछना चाहता था कि व्यक्तिगत स्तर पर सरकार को कोसने के अलावा हम देश के लिए खुद क्या कर सकते हैं? मैं उनसे कहना चाहता था कि आपका स्टेशन तो ज्यादा से ज्यादा आधे घंटे में आ जाएगा और आप उठकर चले जाएंगे लेकिन आपने और आपके जैसे लाखों लोगों की ऐसी ही हरकतों की वजह से विदेशी पर्यटक हमारे प्रति नकारात्मक छवि लेकर जाते हैं. अगर इस छवि को तोड़ना है तो सरकार की कमियां गिनने से काम नहीं चलेगा, बल्कि हमें शुरुआत करनी होगी.
लेकिन ये सारी बातें मेरे मन में ही रह गईं. मेरा स्टेशन आ गया था और मुझे उतरना पड़ा. काश मैं उन लोगों से ये सारी बातें कह पाया होता. कम से कम भविष्य के लिए एक संभावना तो पैदा होती.
(लेखक मीडिया से जुड़े हैं और दिल्ली में रहते हैं)
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