किसी भी चीज की कीमत किस चीज से तय होती है? अर्थशास्त्र के मांग और उपलब्धता के सिद्घांत से परे अगर हम थोड़ा दार्शनिक नजरिया अपनाएं तो किसी भी चीज का मोल वही होता है जो हम अपने मन में आंकते हैं. बुज़ुर्गों की भाषा में कहें तो ‘सब मन का धन है.’ आखिर हमारे बचपन में गुब्बारे और टॉफी सोने के गहनों से अधिक कीमती होते थे या नहीं? बात 90 के दशक के बीच की है. मैं उस समय कक्षा 5 या 6 का छात्र था और एक आम मध्यमवर्गीय परिवार के बच्चे की तरह मेरे लिए भी गर्मी की छुट्टी का अर्थ नानी या मौसी के यहां कम से कम बीस दिन बिताना ही था. मेरे लिए मौसी का घर बाकी सब जगहों से बेहतर हॉलिडे डेस्टिनेशन था, क्योंकि उनके बड़े से घर और संयुक्त परिवार होने के कारण वहां कई हमउम्र बच्चे और खेलने की पर्याप्त जगह होती थी. उस साल किसी वजह से मैं अकेले ही मौसी के घर झांसी गया था, या यूं कहें कि मुझे पहुंचा दिया गया था. मौसा जी की तरफ से एक अन्य रिश्तेदार का एक हमउम्र लड़का ‘छोटू’ भी वहां था. हम दोनों की ही छुट्टियां डब्ल्यूडब्ल्यूएफ और शक्तिमान की चर्चाओं में मजे से कट रहीं थीं. एक दिन मौसाजी की एक और रिश्तेदार, जो उसी शहर के दूसरे कोने में रहती थीं, आईं और हम दोनों को अपने घर आने का न्योता दे गईं. मैं पहले भी कई बार उनके घर जा चुका था तो कोई समस्या नहीं थी और छोटू तो उनका सगा भांजा ही था.
‘मेरे लिए मौसी का घर बाकी सब जगहों से बेहतर हॉलिडे डेस्टिनेशन था क्योंकि वहां हमउम्र बच्चे और खेलने की पर्याप्त जगह होती थी’
हम दोनों दिन में 11 बजे नाश्ता कर के घर से निकले, इधर से बेसिक पर फोन कर दिया गया कि बालक आ रहे हैं. रास्ते का नक्शा रटवाकर, बर्फ का गोला खाने के लिए अतिरिक्त 2-2 रुपये देने के बाद किसी से फालतू बात न करने की हिदायत देकर ही हमें छोड़ा गया. जून का महीना, झांसी शहर और आधे घंटे धूप में सफर, हम दोनों का क्या हाल हुआ होगा आप समझ सकते हैं. ‘अरे तुम लोग आ गए’, ‘कितना लंबा हो गया है ये’, ‘कुछ खायाकर दुबला हो रहा है’ जैसे हर बार दोहराये जाने वाले जुमलों के साथ बाकी के परिवार से मुलाकात हुई. कुछ देर बैठने और बातें करने के बाद हम वापस चल दिए. घर पहुंच कर थोड़ी देर सुस्ताने के बाद जब मौसी से कहा, ‘खाना लाओ’. तो मौसी ने चौंककर पूछा, ‘वहां नहीं खाया?’ ‘नहीं!’ मैंने बड़े आराम से कहा. ‘पर छोटू (मेरे साथ वाला लड़का) तो बता रहा था कोल्ड ड्रिंक, क्रीम वाले बिस्कुट और चिप्स खाये थे. और दस रुपए कहां हैं जो वहां वाली मौसी ने दिए थे?’ एक सांस में मौसी ने इतना कुछ पूछ डाला. इस बीच छोटी-सी बुद्घि में यह बात आ गई थी कि जब बाहर बैठक में परिवार के बाकी लोग मुझसे सवाल-जवाब कर रहे थे, तो उस समय छोटू को भीतर किचन में क्यूं याद किया गया था. मैं यह नहीं कह सकता कि उस छोटी उम्र में मुझे कोई बहुत बड़ा अपमान महसूस हुआ. न ही मुझे एक गिलास कोल्ड ड्रिंक को लेकर ठगा जाना बुरा लगा, न ही उन दस रुपयों के न मिलने का. हालांकि तब तक मैं यह आकलन लगा चुका था कि उतने रुपयों में मैं सुपर कमांडो ध्रुव की 5 कॉमिक्स किराये पर ले सकता था. फिर भी कुछ तो था जो उस दिन मेरे मन में टूट गया. शायद बड़े लोगों के इस छोटे व्यवहार ने एक ही दिन में मुझे थोडा बड़ा बना दिया. उसके बाद साल बीतते गए, मैं बड़ा होता गया, छुट्टियां कभी प्रतियोगिताओं की तैयारी में बीतने लगीं तो कभी कोई कोर्स करने में. धीरे-धीरे मौसी के यहां जाना भी कम होता गया. आज उस बात को लगभग 20 साल बीत चुके हैं. कहने को तो वह बात इतनी छोटी-सी थी कि वह न तो छोटू को याद है, न मौसी को, न ही किसी और को, मगर उस दिन के बाद से जब कभी भी उस घर में जाने का मौका आया, न जाने क्यों मैं बस टालता ही रहा. हालांकि मैंने कई बार कोशिश भी की कि इन मामूली चीज़ों को भूल जाऊं और उनके घर भी हो आऊं, मगर हर बार 10 रुपये की मामूली रकम और एक गिलास कोल्ड ड्रिंक से जुड़ा वह सवाल इतना बड़ा हो जाता है कि इसके आगे कुछ सोच ही नहीं पाता.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)