चूक गए तो चुक गए

फोटोः विकास कुमार
फोटोः विकास कुमार

‘यहां जितने विधायक बैठे हैं. मैं उन सभी से हाथ जोड़कर कहूंगा कि घमंड में कभी मत आना. अहंकार मत करना. आज हम लोगों ने भाजपा और कांग्रेसवालों का अहंकार तोड़ा है. कल कहीं ऐसा न हो कि किसी आम आदमी को खड़ा होकर हमारा अहंकार तोड़ना पड़े. ऐसा न हो कि जिस चीज को बदलने हम चले थे कहीं हम उसी का हिस्सा हो जाएं.’

यह उस भाषण का हिस्सा है जो अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा का चुनाव परिणाम आने के बाद जंतर-मंतर पर पार्टी के सभी विधायकों और समर्थकों को संबोधित करते हुए दिया था. आम आदमी पार्टी (आप) के राष्ट्रीय संयोजक की इस हिदायत का उनके विधायकों, नेताओं और खुद उन्होंने कितना पालन किया यह तो वही बेहतर बता सकते हैं, लेकिन जो पार्टी पिछले विधानसभा चुनाव में सफलता के सातवें आसमान पर थी वह आज अपने सियासी अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष करती दिख रही है.

पिछले दिल्ली विधानसभा चुनाव में पार्टी को 28 सीटें और 29 फीसदी वोट मिले थे. लेकिन 2014 लोकसभा चुनाव में पार्टी को दिल्ली से एक भी सीट हासिल नहीं हुई. हालांकि उसका वोट प्रतिशत जरूर बढ़कर 32.92 फीसदी पर पहुंच गया. सबसे ज्यादा जिस बात ने पार्टी के माथे पर चिंता की लकीर खींची वह थी कि भाजपा विधानसभा की कुल 70 सीटों में से 60 पर सबसे आगे रही.

एक बार फिर से दिल्ली में विधानसभा चुनाव का रास्ता साफ हो चुका है. सभी पार्टियां अपनी व्यूह रचना में जुट गई हैं. एक तरफ कांग्रेस है जो लगता है मानो हार के अंतहीन सफर पर निकल चुकी है वहीं भाजपा लोकसभा चुनाव और उसके बाद हुए महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनाव में अपना जलवा दिखाने के बाद एक-एक कर सभी राज्यों में कमल खिलाने की आक्रामक फिराक में है. महाराष्ट्र और हरियाणा की तर्ज पर भाजपा दिल्ली में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘करिश्मे’ के सहारे चुनावी वैतरणी पार करने की योजना पर आगे बढ़ रही है.

आप के लिए यह चुनाव बाकी पार्टियों की तरह सिर्फ एक चुनाव-भर नहीं है. यह उसके लिए करो या मरो वाला चुनाव है. ऐसा माना जा रहा है कि आगामी दिल्ली विधानसभा चुनाव के परिणाम ‘आप’ का राजनीतिक भविष्य तय करेंगे.

फोटोः विजय पांडे
फोटोः विजय पांडे

‘आप’ के साथ कितने आम आदमी?

‘आप’ के लिए यह चुनाव उसके अस्तित्व की लड़ाई है. यह खतरा उस पार्टी के सामने है जिससे लोगों का जुड़ाव स्वस्फूर्त था. इनमें सबसे बड़ी तादाद युवाओं की थी. ऐसे भी बहुत से लोग थे जो पार्टी के सदस्य नहीं बने लेकिन उसके कट्टर समर्थक थे. वे अरविंद और आप के खिलाफ एक शब्द भी सुनने को तैयार नहीं थे और उन्हें भारत की तमाम समस्याओं का शर्तिया इलाज बताते थे. देश के एक बड़े तबके में आशा व उम्मीद का संचार पार्टी और उसके नेता अरविंद ने किया था. इस आशा, उत्साह और समर्थन का असर पिछले दिल्ली विधानसभा चुनाव में तब दिखा जब तमाम राजनीतिक सर्वेक्षणों को झूठलाते हुए पार्टी विधानसभा की 28 सीटों पर जीती. कई सीटों पर वह मामूली अंतर से हारी. आम आदमी पार्टी अब फिर चुनावी मैदान में उतरने जा रही है लेकिन साल-भर पहलेवाली ताकत अब उसके पास नहीं है. पार्टी की हालत बिगड़ने की शुरुआत तो 49 दिन की सरकार से त्यागपत्र देने के बाद ही शुरू हो गई थी लेकिन बीते लोकसभा चुनाव के बुरे प्रदर्शन ने आग में घी का काम किया. आम चुनाव में हार के बाद बड़ी संख्या में कार्यकर्ताओं ने पार्टी से मुंह मोड़ लिया. यह वे लोग थे जो अन्ना-अरविंद आंदोलन के समय से ही इस मुहिम से जुड़े और बाद में आम आदमी पार्टी के पक्के समर्थक बन गए. पार्टी की जान यही स्वयंसेवक या वॉलेंटियर थे. लेकिन आज इन लोगों में वह उत्साह दिखाई नहीं देता. जिन कार्यकर्ताओं से पार्टी और अरविंद की तारीफ के सिवाय कुछ सुनाई नहीं देता था उनके मन में आज गुस्सा और पीड़ा है.

पार्टी के भीतर के लोग बताते हैं कि लोकसभा चुनाव के बाद लगभग 30 से 40 फीसदी के करीब कार्यकर्ता पार्टी छोड़कर जा चुके हैं. निराशा और नाउम्मीदी को इस तथ्य से भी समझा जा सकता है. कुछ मीडिया रिपोर्टों में यह भी दावा किया गया है कि पार्टी में 3.50 लाख वॉलेंटियर की तुलना में अब केवल 50 हजार ही बचे हैं. दिल्ली में ही 15 हजार शुरुआती कार्यकर्ताओं में से आधे से अधिक पार्टी छोड़कर जा चुके हैं. जो अभी पार्टी के साथ हैं उनमें से लगभग 80 फीसदी से अधिक ने पूरा समय पार्टी के लिए देना बंद कर दिया है.

आईआईटी दिल्ली में पढ़ रहे और पार्टी से जुड़े प्रिंस कहते हैं, ‘पहले लगता था कि हर दिन कोई न कोई परिवर्तन हो रहा है. मंजिल बहुत पास दिख रही थी. लेकिन लोकसभा में भयानक हार के बाद ज्यादातर कार्यकर्ताओं के मन में यह बात घर कर गई कि आगे लड़ाई बहुत लंबी होनेवाली है. पार्टी को शून्य से शुरूआत करनी है. सफलता कब तक मिलेगी पता नहीं. इसमें 2, 5, 10 साल लगेंगे या उससे भी अधिक पता नहीं. ऐसे में कई कार्यकर्ता जो अपनी नौकरी या पढ़ाई छोड़कर आए थे वे वापस चले गए हैं.’ प्रिंस ने पिछले विधानसभा चुनाव के समय दिल्ली के कई इलाकों में पार्टी के लिए प्रचार किया था. वे घर-घर जाकर लोगों को आम आदमी पार्टी से जोड़ने का काम कर रहे थे लेकिन इस बार ऐसा नहीं है. प्रिंस पार्टी से जुड़े जरूर हैं लेकिन अब उनकी प्राथमिकता अपनी इंजीरियरिंग की पढ़ाई है.

दिल्ली के वसंत विहार में पार्टी के लिए पिछले डेढ़ साल से वॉलेंटियर का काम कर रहे अनुराग राय बताते हैं, ‘मैंने बीटेक फर्स्ट ईयर की पढ़ाई छोड़कर पार्टी के लिए काम करना शुरू किया था. परिवार के लोग मेरे इस फैसले से बहुत नाराज थे. उनका कहना था कि मुझे पहले बीटेक पूरा करना चाहिए. मैं नहीं माना. पिछले एक साल तक पार्टी के लिए बिना कुछ सोचे काम करता रहा लेकिन लोकसभा में जिस तरह से पार्टी ने गलत लोगों को टिकट दिया. कार्यकर्ताओं की सुनवाई खत्म हुई. आंतरिक लोकतंत्र और पारदर्शिता का जिस तरह से मजाक बनाया गया उससे मैं बहुत दुखी हुआ. मैंने पार्टी छोड़ दी. अब फिर से अपनी बीटेक की पढ़ाई शुरू करने की तैयारी कर रहा हूं. इस बीच घरवाले उस खबर की कतरनें सैकड़ों बार दिखा चुके हैं जिनमें लिखा है कि अरविंद केजरीवाल की बेटी का आईआईटी में सलेक्शन हो गया है. घरवाले यह कहते हुए कोसते हैं कि देखो तुम बीटेक की पढ़ाई छोड़कर क्रांति कर रहे थे वहीं तुम्हारे नेताजी की बेटी आईआईटी में दाखिले की तैयारी कर रही थी.’ पार्टी कार्यकर्ता चंद्रभान कहते हैं, ‘ऐसे कार्यकर्ताओं की अब बड़ी तादाद है जो नौकरी के साथ पार्टी के लिए जितना बन पड़ता है उतना कर रहे हैं पर पार्टी के लिए फुलटाइम काम करनेवाले पार्टी में तेजी से कम हुए हैं.’

‘आप’ के समर्थकों का एक बड़ा तबका उस समय हैरान रह गया जब अरविंद केजरीवाल ने कहा कि वे दिल्ली चुनाव में नरेंद्र मोदी को निशाना नहीं बनाएंगे

पार्टी कार्यकर्ता बताते हैं कि अरविंद के मुख्यमंत्री पद छोड़ने का सबसे अधिक खामियाजा कार्यकर्ताओं को ही भुगतना पड़ा. चांदनी चौक में पार्टी के लिए काम कर चुके अनुपम कहते हैं, ‘कार्यकर्ता ही जमीन पर लोगों के बीच में था. जो लोग अरविंद के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के निर्णय से खफा थे उन्होंने कार्यकर्ताओं पर ही गुस्सा निकालना शुरू कर दिया. इस कारण से भी कई कार्यकर्ता पार्टी छोड़कर चले गए. कौन हर रोज सुबह-शाम लोगों की गालियां सुनता. जिस निर्णय में आपका कोई रोल नहीं है उसके लिए कोई आपको कोसे तो बुरा लगना स्वभाविक है.’ ऐसी राय रखनेवाले अनुपम अकेले नहीं हैं. दिल्ली के ही मालवीय नगर में पार्टी का काम देखनेवाले एक कार्यकर्ता कहते हैं, ‘अरविंद जी को चंद रैलियों और कार्यक्रर्मों में इस सवाल का जवाब देना पड़ा तो वे कहते नजर आए कि उनसे गलती हो गई. आगे ऐसा नहीं करेंगे. अब आप कल्पना कीजिए कि जो कार्यकर्ता जनता के बीच 24 घंटे रहता है उसकी क्या फजीहत हुई होगी.’

फोटोः विकास कुमार
फोटोः विकास कुमार

दिल्ली विधानसभा चुनाव में सफलता के बाद आम आदमी पार्टी से जुड़नेवाले छोटे-बड़े तमाम स्तर के लोगों की बाढ़ आ गई थी. कार्यकर्ताओं का मानना कि इससे पार्टी को बहुत नुकसान पहुंचा. प्रिंस इसकी वजह बताते हैं, ‘दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद और लोकसभा चुनाव के समय एक बड़ी तादाद में लोग पार्टी से जुड़े. एकाएक नए नेताओं की पार्टी में बाढ़ आ गई. ऐसे में धीरे-धीरे पुराने कार्यकर्ताओं की पूछ कम होती गई और नए लोग तवज्जो पाते गए.’ चंद्रभान एक उदाहरण देते हैं, ‘दिल्ली विधानसभा चुनाव के कुछ समय पहले शाजिया इल्मी रेवाड़ी से अपनी दोस्त अंजना मेहता को ले आईं. उनके साथ उनके अपने लोग आए थे. अंजना ने यहां आकर आरके पुरम के कार्यकर्ताओं को परेशान करना शुरू कर दिया. यहां पूरी टीम को उन्होंने तहस-नहस कर दिया.’

लोक बिन तंत्र !

आम आदमी पार्टी से जुड़े कई लोग उसके भीतर खत्म हो रहे लोकतांत्रिक स्पेस का सवाल भी उठाते हैं. पार्टी के एक कार्यकर्ता रमेश पाराशर कहते हैं, ‘जो अरविंद स्वराज की बात करते हैं उन्होंने खुद पार्टी में इसका पालन नहीं किया. स्थिति यह है कि अगर कोई किसी गलत चीज का विरोध करता है या प्रश्न करता है तो अरविंद कहने लगते हैं कि वह लालची है. उसे टिकट चाहिए था. नहीं मिला तो विरोध करने लगा. जिस तरह आप मायावती पर प्रश्न उठाकर बसपा में नहीं रह सकते. वैसे ही अरविंद पर प्रश्न उठाकर आप पार्टी में नहीं रह सकते. जिन लोगों ने भी अरविंद की कार्यप्रणाली पर प्रश्न उठाया है उन्हें गद्दार, कांग्रेस-भाजपा का एजेंट, टिकट का लालची और न जाने क्या-क्या कहा गया है. योगेंद्र यादव का उदाहरण देते हुए वे अपनी बात पर जोर देते हैं, ‘अरविंद की सुप्रीमोवाली कार्यशैली पर उन्होंने प्रश्न क्या उठाया आपने देखा होगा कैसे मनीष सिसोदिया ने उन्हें हड़कानेवाला पत्र भेज दिया. ये तो योगेंद्र यादव थे जो बच गए.’ पार्टी के भीतर सिकुड़ते लोकतंत्र की चर्चा करते हुए एक कार्यकर्ता बताते हैं कि कुछ दिन पहले ही लोकसभा चुनाव में हार के बाद भविष्य की रणनीति तैयार करने के लिए दिल्ली के कॉन्स्टीट्यूशन क्लब में पार्टी की बैठक हुई थी. वहां जैसे ही कार्यकर्ताओं ने अपनी बात रखनी शुरू की वैसे ही नेताओं ने उन्हें बोलने से रोक दिया. कहा कि आप लोग अपनी बात लिखकर दे दीजिए. वे पार्टी के इस कदम को खुद उसके मूल्यों के खिलाफ बताते हुए कहते हैं, ‘वे चाहते थे कि आप अपनी बात लिखकर दें ताकि उसे कूड़े के ढेर में फेंका जा सके. वे सवाल का सामना नहीं कर सकते.’  पार्टी के पुराने कार्यकर्ताओं में से एक लोकेश आरके पुरम विधानसभा क्षेत्र में पार्टी का काम देखते रहे हैं. वे पार्टी के अपने आदर्शों से भटकने की बात पर दुखी हैं. लोकेश के मुताबिक, ‘हमने नियम बनाया था कि सही और सच्चे लोगों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया, मतलब स्थानीय जनता और कार्यकर्ताओं की राय के आधार पर टिकट देंगे. प्रत्याशियों के चयन की एक पूरी प्रक्रिया बनाई गई थी. लेकिन लोकसभा चुनाव में पार्टी ने खुद अपने आदर्शों की हत्या कर दी. पैसे और रसूखवालों के हाथों में टिकट दिया गया. यही काम अब दिल्ली विधानसभा में भी किया जा रहा है.’ पार्टी का काम छोड़कर अपनी रोजाना की जिंदगी में व्यस्त हो चुके लोकेश अपनी बात आगे बढ़ाते हैं, ‘ पहले लगता था कि हम देश के लिए काम कर रहे हैं. हर आदमी इसी सोच के साथ जुड़ा था. अब तो आप भी भाजपा-कांग्रेस जैसी एक अन्य पार्टी बन गई.’

पश्चिम बंगाल में तो लोकसभा चुनाव की हार से निराश आम आदमी पार्टी की पूरी की पूरी इकाई भाजपा में शामिल हो गई

कार्यकर्ताओं के इसी असंतोष का नतीजा अवाम (आप वॉलंटियर्स एक्शन मंच) के रूप में निकल कर सामने आया है. संगठन के कर्ताधर्ताओं का कहना है कि उनका उद्देश्य आम आदमी पार्टी में स्वराज की स्थापना करना और अरविंद केजरीवाल की तानाशाही रोकना है. हाल ही में पार्टी के संस्थापक सदस्य शांति भूषण ने भी अवाम के काम को सही ठहराते हुए उसके गठन को जरूरी बताया था.

कभी जो जान देने और पार्टी के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते थे उन लोगों की इन असहमतियों और नाराजगी के बोझ से आज आम आदमी पार्टी दबी हुई दिखती है. ऐसे में पार्टी किस मनःस्थिति में काम कर रही होगी ये समझा जा सकता है. इसी दबाव, तनाव और घाव के साथ वह विधानसभा चुनावों की तैयारी में जुटी है. आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर पार्टी अब फिर से वॉलेंटियर्स को लेकर संवेदनशील होती दिख रही है. हाल ही में कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए अरविंद ने उनसे माफी मांगी और कहा कि हो सकता है पार्टी ने पिछले कुछ फैसलों में वॉलेटियर्स की राय नहीं ली लेकिन अब ऐसा नहीं होगा. पार्टी की जुझारू कार्यकर्ता रहीं दिवंगत संतोष कोली के भाई और सीमापुरी से विधायक धर्मेंद्र कोली अपने नेता की इस बात को पार्टी के लिए बहुत सकारात्मक मानते हैं, ‘ यह बता पाना तो बहुत मुश्किल है कि आज कितने वॉलंटियर पार्टी के साथ सक्रिय रूप से जुड़े हैं लेकिन अरविंद के माफी मांगने के बाद कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ा है.’

इस सकारात्मकता का असर चुनाव परिणाम आने के बाद ही पता चलेगा लेकिन जानकार मानते हैं कि लोकसभा चुनावों में हार के बाद बड़ी संख्या में कार्यकर्ता पार्टी छोड़कर गए हैं. ऐसे में आगामी दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी आम आदमी पार्टी का प्रदर्शन आशानुरूप नहीं रहा तो बचेखुचे कार्यकर्ता भी पार्टी का साथ छोड़ सकते हैं. वे इसके लिए बंगाल का उदाहरण देते हैं. यहां लोकसभा चुनाव के बाद आप की पूरी की पूरी इकाई भाजपा में समा गई.

जन-धन का संकट

आम आदमी पार्टी के लिए चुनौती सिर्फ मानव संसाधन के मोर्चे पर ही नहीं है. लोकसभा चुनाव में मिली हार के बाद से पार्टी को प्रतिदिन मिलनेवाले चंदे पर भी बहुत बुरा असर पड़ा है. जिस पार्टी को पिछली दिल्ली विधानसभा के समय प्रतिदिन लगभग 30 लाख रुपये के करीब चंदा मिलता था वह लोकसभा चुनाव के बाद कुछ हजार रुपये प्रतिदिन पर सिमट गया. हालांकि जब से पार्टी दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए हरकत में आई है तब से चंदे में बढ़ोतरी जरूर हुई है. लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव से तुलना करें तो चंदे की रकम ढलान पर जा रही है. पार्टी के एक नेता अनौपचारिक बातचीत में यह बात मानते हुए बताते हैं कि अबकी बार चुनाव के लिए पैसा कम पड़ जाएगा. वे यह भी कहते हैं कि हरियाणा और महाराष्ट्र का चुनाव न लड़ने के पीछे एक बड़ा कारण आम आदमी पार्टी के पास पर्याप्त फंड न होना था. पार्टी के संचालन से जुड़ी एक सबसे बड़ी आशंका साझा करते हुए वे कहते हैं, ‘ अगर हम चुनाव नहीं जीते तो बहुत मुश्किल हो सकती है. पार्टी में इस बात पर भरोसा करनेवाला कोई नहीं है कि फिर आम लोग हमारी आर्थिक मदद करेंगे. यह आर्थिक संकट पार्टी के अस्तित्व पर सवाल खड़े कर सकता है.’ जानकार मानते हैं कि अगर आगामी विधानसभा चुनाव पार्टी जीतने में सफल नहीं रही तो उसके लिए अगले पांच साल तक अपना मनोबल बनाए रखना आसान नहीं होगा. चूंकि पार्टी का दिल्ली के बाहर कोई खास जनाधार नहीं है. संगठन और नेता भी नहीं हैं. ऐसे में आनेवाले सालों में बाकी राज्यों में होनेवाले विधानसभा चुनावों में उसके कोई खास करतब दिखाने की उम्मीद बनती नहीं है.

‘आप’स की लड़ाई

आप के साथ एक बड़ी चुनौती अपने नेताओं को लेकर भी है. जैसा देखने में आया कि लोकसभा मे पार्टी के बुरे प्रदर्शन के बाद एक-दूसरे को भला बुरा कहने का दौर शुरु हो गया. जूतमपैजार इस ताकत के साथ हुई कि घर की बात मोहल्ले या कहें पूरे शहर में फैल गई. एक दूसरे को भेजे गए निजी मेल सार्वजनिक हुए या करवाए गए. मनीष सिसोदिया और योगेंद्र यादव के बीच का विवाद इसका उदाहरण है. पार्टी के संस्थापक सदस्य रहे नवीन जयहिंद की योगेंद्र से तू-तू मैं-मैं को भी इसमें शामिल किया जा सकता है. ‘सारे इकट्ठे हो जाओ’ का नारा देने वाले अरविंद से ही पार्टी के लोग दूर होते दिखे. पार्टी का प्रमुख चेहरा रहीं शाजिया इल्मी झाडू को तिलांजली देने के बाद आज भाजपा का झाडू उठाए घूम रही हैं. उनके अलावा एसपी उदयकुमार, अंजली दमानिया, दिल्ली विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष एमएस धीर, पूर्व विधायक विनोद कुमार बिन्नी, संस्थापक सदस्य रहे अश्विनी उपाध्याय समेत करीब दर्जन भर से अधिक बड़े चेहरे पार्टी छोड़ चुके हैं. इनमें से कई भाजपा में शामिल हुए हैं. सूत्र बताते हैं कि आनेवाले दिनों में भाजपा ज्वाइन करने वाले नेताओं की तादाद और बढ़ने की संभावना है. पार्टी छोड़कर जाने वाले लोगों में कोई आंतरिक लोकतंत्र की कमी का मुद्दा बनाया तो कोई उसके राह से भटकने का. इस बीच आप के भीतर से ही ‘बाप (भारतीय आम आदमी परिवार)’ और ‘गाप (गरीब आदमी पार्टी)’ जैसे राजनीतिक दल दिल्ली में अस्तित्व में आ गए हैं. ऐसे में इस संभावना को काफी बल मिलता है कि अगर पार्टी आगामी विधानसभा में अच्छा प्रदर्शन नहीं करती है तो पार्टी से बाहर जानेवालों का तांता लग सकता है.

दिल्ली विधानसभा में पार्टी हर कीमत पर जीत दर्ज करना चाहती है. पार्टी की यह मजबूरी इस बात से भी पता चलती है कि उसके लिए जो मुद्दे पिछले चुनाव में प्रमुखता थे वे इस बार एक सिरे से गायब हैं. जिस जनलोकपाल को लेकर पूरा अन्ना आंदोलन हुआ और उसी जनलोकपाल को पास कराने में असफल रहने के कारण अरविंद ने सीएम पद से इस्तीफा दिया वह इस बार चुनावी मुहिम से गायब है. विरोधी इसे अरविंद की सुविधानुसार यू-टर्न लेने की आदत से जोड़ते हैं.  जनलोकपाल या और मुद्दे छोड़ दें तो अरविंद ने उन्हें ऐसा कहने के कम अवसर नहीं दिए. आगामी विधानसभा चुनाव को ही देखें तो अब केजरीवाल नरेंद्र मोदी पर हमला करने से बच रहे हैं. वह नेता जो साल-भर पहले नरेंद्र मोदी का नाम लेकर उन्हें अंबानी का दलाल बताने से लेकर तमाम तरह के आरोप लगाते नहीं थकता था, भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरा मानते हुए उसे पटखनी देने बनारस पहुंच गया, उस नेता का मोदी के प्रति ‘हृदय परिवर्तन’ हैरान करनेवाला है. बीते दिनों हैरानी और हंगामा उस समय और बढ़ता दिखा जब पार्टी की वेबसाइट पर एक फोटो लगाया गया. इसमें एक सर्वे का हवाला देते हुए लिखा था, ‘मोदी फॉर पीएम, केजरीवाल फॉर सीएम’. यह पोस्टर उस सर्वे का नतीजा था जो आप ने दिल्ली में किया था. उस सर्वे में पार्टी का दावा था कि दिल्ली की जनता मोदी को पीएम के तौर पर चाहती है और दिल्ली के सीएम के रूप में उसकी पसंद केजरीवाल हैं.

आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर भाजपा की वही रणनीति है जिसको उसने हरियाणा और महाराष्ट्र में अपनाया. यानी पार्टी किसी स्थानीय नेता के बजाय मोदी के चेहरे को आगे करके चुनाव लड़ेगी. ऐसे में यह मानना स्वाभाविक था कि मुकाबला मोदी बनाम केजरीवाल का होनेवाला है, केजरीवाल मोदी पर हमला करने और उन्हें घेरने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेंगे. लेकिन पार्टी के समर्थकों के साथ ही आम जनता उस समय हैरान रह गई जब अरविंद का बयान आया कि वे चुनाव में मोदी पर कोई प्रहार नहीं करेंगे क्योंकि चुनाव विधानसभा का हो रहा है और मोदी मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं हैं. अरविंद के इस तर्क को जनता अभी तक गले नहीं उतार पाई है. सोशल मीडिया से लेकर तमाम गली-नुक्कड़ों पर चर्चा है कि अरविंद मोदी से डर रहे हैं इसलिए बच रहे हैं. राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अरविंद कहीं न कहीं इस बात को स्वीकार कर चुके हैं कि युवा और मध्यम वर्ग के बीच मोदी का जादू सिर चढ़कर बोल रहा है और उनके खिलाफ कुछ भी बोलना इस वर्ग की नाराजगी को न्यौता देना है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने आप के बैकफुट पर होने का सिर्फ यही उदाहरण नहीं है.  कुछ समय पहले ही मोदी सरकार द्वारा शुरू किए गए स्वच्छ भारत अभियान में आप ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. यहां तक तो सब ठीक था लेकिन स्वच्छता अभियान के लिए पार्टी ने सोशल मीडिया पर जो पोस्टर जारी किया उसमें एक तरफ अरविंद थे तो दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी. मोदी को लेकर आप के बदले रुख और इन गतिविधियों को लेकर उसके कट्टर समर्थकों में भी नाराजगी है. पार्टी के एक समर्थक विजय गौतम कहते हैं, ‘मैं इस बात से हैरान हूं कि हम मोदी को घेरना कैसे बंद कर सकते हैं. हमें तो कांग्रेस, भाजपा और मोदी का विकल्प बनना था. इस देश में एक नई राजनीति शुरू करनी थी. हमें उस राजनीति से नफरत है जो मोदी की पहचान है. अब ऐसे में अगर पार्टी मोदी का गुणगान करेगी तो फिर हमारे जैसे लोग यहां नहीं रह पाएंगे.’ पार्टी के नेता अरविंद की इस रणनीति को पार्टी के खिलाफ जाता हुआ देखते हैं. एक वरिष्ठ नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘मोदी पर हमला करने से बचने का हमें फायदा नहीं बल्कि बहुत नुकसान ही होनेवाला है. टीवीवाले तो पहले से चलाने लगे हैं कि मोदी से डर गए अरविंद. हमें यह समझना होगा कि हमारा वोटर वही है जो कांग्रेस और भाजपा से ऊब चुका है. लोग हमें दोनों पार्टियों के विकल्प के रूप में देखते थे. हमें वह विकल्प बने रहना है वरना हम खत्म हो जाएंगे.’

इन चुनौतियों के बीच भी आम आदमी पार्टी ने आगामी विधानसभा चुनाव में सबसे पहले सक्रिय होकर नाम के लिए ही सही एक बढ़त जरूर बनाई है. अरविंद केजरीवाल जहां दिल्ली के विभिन्न इलाकों में कई सभाओं को संबोधित कर चुके हैं वहीं उनकी पार्टी की दिल्ली डायलॉग से लेकर कुछ अन्य कार्यक्रमों के माध्यम से लोगों को जोड़ने की मुहिम चल रही है. पार्टी ने इस बीच कई मोर्चों का भी गठन किया है. जैसे अल्पसंख्यक मोर्चा, व्यापारी मोर्चा, छात्र मोर्चा आदि. पिछले दो-तीन महीने में पार्टी की गतिविधियों में एक तेजी दिखी है. उसके कार्यक्रमों में ‘समर्थकों’ की संख्या में इजाफा जरूर हुआ है लेकिन इसके कारण कुछ और हैं. पार्टी के एक पूर्व कार्यकर्ता कहते हैं, ‘पहले आम जनता एक कॉल पर पूरे जंतर-मंतर को भर देती थी. वह स्वस्फूर्त था. आज यह जनता हमारे कार्यक्रमों से गायब है. अब लोगों को जुटाया जा रहा है. अब दिल्ली में कोई कार्यक्रम होता है तो लोगों को आसपास के इलाकों जैसे हरियाणा और नोएडा से लाया जाता है.’

पार्टी के नेता मानते हैं कि उनकी राह में सबसे बड़ी बाधा उस छवि से निपटना जिसके तहत ये प्रचारित किया गया है कि पार्टी को जब सरकार चलाने की जिम्मेवारी मिली तो वह 49 दिनों में ही भाग खड़ी हुई. आम आदमी पार्टी की छवि पर बट्टा लगानेवाली यह घटना सबसे ज्यादा उसके खिलाफ गई है. लेकिन इस बीच कुछ और छोटी-छोटी मोटी घटनाएं भी रहीं जिन्होंने पार्टी की साख को धीरे-धीरे ही सही पर स्थायी नुकसान पहुंचाया है. पहले घर लेने से मना करके अरविंद के घर लेने की बात हो या उनके मंत्रियों के गाड़ी लेने की बात. प्रगतिशीलता का दावा करनेवाली पार्टी के एक नेता संतोष मालवीय के अफ्रीकी स्त्रियों के साथ कथित बदतमीजी की बात हो या समलैंगिकता पर पार्टी का रुख. योगेंद्र यादव का खुद को सलीम बताना, बनारस जाकर मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने की बात हो या बॉंन्ड भरने से मना कर जेल जाना और फिर चंद दिनों में ही बॉन्ड भरने के लिए तैयार हो जाने की बात. इन सभी घटनाओं के कारण आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल की छवि एक तबके के मन में एक नौटंकी और गैरजिम्मेदार पार्टी की बनी है. पिछले छह महीने में पार्टी ने क्या सीखा है और जनता के मन में कितनी जगह फिर से वह बना पाई है इसका सटीक आकलन तो चुनाव परिणाम ही बताएंगे. हालांकि अभी तक आए सर्वे पार्टी के लिए अच्छे दिनों की तरफ इशारा नहीं कर रहे हैं. लेकिन एक बात काफी हद तक तय है कि अगर इस चुनाव में पार्टी को जनता का आशीर्वाद नहीं मिला तो यह पार्टी के अस्तित्व के साथ ही अरविंद केजरीवाल के राजनीतिक भविष्य पर बड़ा सवाल खड़ा हो जाएगा. हालांकि पार्टी के वरिष्ठ नेता योगेंद्र यादव इन सब बातों के बावजूद आशान्वित दिखते हैं. उनका मानना है कि हरियाणा और महाराष्ट्र में लोग बदलाव चाहते थे और उनके पास भाजपा के अलावा कोई विकल्प नहीं था जबकि दिल्ली की जनता के पास आप नामक विकल्प हैं. वे कहते हैं, ‘लोग 49 दिन की सरकार छोड़ने की सजा हमें दे चुके हैं. लोकसभा में हम उसी वजह से हारे. लेकिन किसी अपराध की दो बार सजा तो नहीं हो सकती!