बात उन दिनों की है जब मै रांची विश्वविद्यालय से पत्रकारिता की पढ़ाई कर था, दोस्तों के साथ विभाग के बाहर सामने बरगद पेड़ के पास बने चबूतरे पर रोज ‘छात्र संसद’ लगती थी. यहां हम मित्रों के बीच अंतरंग बातों के अलावा देश की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक हालात को लेकर जमकर चर्चा होती थी. इन्हीं बहसों में सांप्रदायिकता और जातिवाद पर भी अक्सर चर्चा होती थी लेकिन इसे संवेदनशील मुद्दा समझकर छोड़ दिया जाता था. मै इस मुद्दे पर हमेशा चर्चा जारी रखना चाहता था क्योंकि हम सब पत्रकारिता की दुनिया का हिस्सा होने जा रहे थे. हमारे लिए इसे समझना जरूरी था. हमारे मधुकर सर अक्सर इन सब मुद्दों पर क्लास में चर्चा करते थे लेकिन सारे लोगों की इस विषय पर उदासीनता को देखकर वे भी खामोश हो जाते थे. लेकिन कुछ दिन गुजरने के बाद ही हमें इस बात को समझने और इस विषय से रूबरू होने का आखिकार एक मौका मिल गया.
बाबरी मस्जिद और रामजन्म भूमि विवाद को लेकर इलाहबाद हाई कोर्ट का बहुप्रतीक्षित फैसला 30 सितंबर 2010 को आने वाला था. फैसले की तारीख जैसे-जैसे करीब आ रही थी गली, मोहल्लों और चौक-चौराहों पर इस बात की चर्चा थी कि फैसला किसके पक्ष में आएगा. हर तरफ माहौल में एक अजीब सी उत्सुकता और बेचैनी पसर गई थी.
सुबह-सुबह राजू अखबार फेंककर चिल्लाया, ‘भैया, आज का अखबार पढ़कर ही बाहर निकलना बाहर पूरा टेंशन है, सब कह रहे हैं कि दंगा भड़क जाएगा.’ मैं उसकी आवाज पर अचकचाया और अखबार उठाकर देखना शुरू कर दिया. अखबार की सुर्खियां और रिपोर्टिंग देखकर राजू की कही हुईं बातें दिमाग में गूंजने लगीं. हिंदी अखबार ने ऐसी भड़काऊ सुर्खियां लगा रखी थीं कि मानो कोई भारत-पाकिस्तान युद्ध की रिपोर्टिंग हो.उस रोज दोपहर 3 बजे फैसला आना था. बाहर हर तरफ सन्नाटा पसरा था. सड़कें सूनी थीं. स्कूल, कॉलेज, दुकानें सब बंद थे. शहर के भीड़भाड़ वाले इलाकों में भी इक्का-दुक्का लोग ही दिखाई दे रहे थे. हर अजनबी चेहरे को देखकर लोग आशंकित हुए जा रहे थे. हर कोई यह सोचकर डर रहा था कि फैसला किसके पक्ष में आएगा और दूसरा पक्ष अदालत के फैसले को मानेगा या नहीं? इस तरह के कई खयालात मन में आ रहे थे, और कई तरह की आशंकाओं से दिल बैठा जा रहा था. अखबार, टीवी चैनलों, चाय की दुकानों, हर तरफ इसी बात की चर्चा थी.
‘भैया, आज का अखबार पढ़कर ही बाहर निकलना बाहर पूरा टेंशन है, सब कह रहे हैं कि दंगा भड़क जाएगा’
मैं वापस अपने कमरे में आकर लेट गया. थोड़ी देर में आशीष का कॉल आया, ‘यार बाहर तो पूरा माहौल खराब है, क्या कर रहा है तू? ठीक है ना?’ मेरा जवाब सुने बगैर एक ही सांस में वह कई सवाल पूछ बैठा. ‘मै आता हूं तेरे पास’ बोलकर उसने कॉल काट दी और थोड़ी देर में वो मेरे रूम में पहुंच गया. मेरा कमरा मस्जिद से लगा हुआ था, जहां अजान और नमाज की आवाजें साफ सुनाई देती थीं, आशीष कई बार आ चुका था और वो यहां के माहौल से अच्छी तरह से परिचित था. हमारे बीच मजहब कभी भी दीवार नहीं बनी, बात की शुरुआत करते ही बोला कि हमें कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे डर और भय का माहौल खत्म हो.
हमलोग बाइक पर सवार हो कर शहर की ओर निकल पड़े, वो माथे पर टीका लगाए था और मैंने कुरता-टोपी पहन लिया था. हमलोग हर गली-मोहल्लों में जाकर लोगों से मिलते, बातें करते, महिला-पुरुष, बच्चे सब लोग हमें ऐसे ताज्जुब से देखते मानो कोई अजूबा काम कर रहे हों.
शहर के बीचोबीच ओबी वैन के साथ रिपोर्टर सन्नाटे और दहशत के माहौल को रेखांकित करने में मशगूल थे, तो फोटोग्राफर इसे कैमरे में कैद कर रहे थे. हमें देखकर वो लोग मुस्कुराये और ‘लगे रहो’ कहकर ‘जीत की दो उंगलियां’ लहराई. सांप्रदायिक सौहार्द का पैगाम देते हुए हम दोनों आगे बढ़ते गए. इलाहाबाद हाइकोर्ट का फैसला किसी के पक्ष में नहीं था बल्कि विवादस्पद जमीन को तीन हिस्सों में बांटने का फैसला किया गया था, जिस पर लोग अपनी-अपनी समझ से तर्क पेश कर रहे थे, पर आम व खास सब लोग चैन की सांस ले रहे थे.