मुझे लगता है कि आपका ये कहना गलत है कि किसी भी पत्रकार ने कभी जेपी की या उनके सशस्त्र बल को बुलाने की आलोचना नहीं की. उनकी टिप्पणियों पर सभी बड़े अखबारों ने उनकी गंभीर निंदा की थी. मुझे यकीन है कि वैसी ही कुछ टिप्पणियां आपने भी सहन की होंगी. इसी तरह, प्रेस काउंसिल पर लगा ये आरोप भी गलत है कि उसने कुछ अपमानजनक और मिथ्या लेखों का विरोध नहीं किया. एक सदस्य के बतौर मैं बता सकता हूं कि आपके और आपके परिवार के विरोध में उस गैर-जिम्मेदाराना आलेख को लिखने वाले संस्थान के संपादक को अच्छी फटकार मिली थी. दुर्भाग्य से, लंबी और बोझिल प्रकियाओं के चलते फैसले की घोषणा टल गई.
ये तो आप भी स्वीकार करेंगी कि सांप्रदायिकता के खिलाफ सभी प्रमुख अखबारों ने लगातार सरकार के विरोध का साथ दिया है. कुछ की शिकायत ये है कि प्रशासन सांप्रदायिक तत्वों के खिलाफ नरम रवैया अपना रहा है. प्रेस काउंसिल ‘सांप्रदायिक’ और ‘ओछे’ लेखों को छापने वाले कई अखबारों को चेतावनी दे चुका है. यदि अखबारों ने सरकार की आलोचना की भी है तो उसका बड़ा कारण सुस्त प्रशासन, धीमा आर्थिक विकास और किए गए वादों का पूरा न होना है. अगर मैं यहां तक भी कहूं कि सरकार के पास कोई अच्छा मामला भी हो तब भी वह नहीं जानती कि इससे कैसे जनता के सामने रखना है, तो ये अतिश्योक्ति नहीं होगी. उदाहरण के लिए, प्रशासन के कामों पर कभी कोई सरकारी पत्र सामने नहीं आए..प्रकाशन के लिए यहां-वहां से तथ्य जुटाने पड़ते हैं.
महोदया, एक पत्रकार के लिए क्या बताना है-क्या नहीं, इसका निर्णय लेना हमेशा ही कठिन होता है और इस पूरी प्रक्रिया में, कहीं न कहीं, किसी न किसी को नाराज या रुष्ट करने का खतरा हमेशा बना रहता है. सरकार के मामले में कुछ छिपाना और बाद में उसके जाहिर होने का डर, किसी व्यक्ति के मामले से बहुत अधिक होता है. पता नहीं क्या कारण हैं कि प्रशासन में काम करने वालों को लगता है कि सिर्फ वे ही ये जानते हैं कि जनता को कब, कैसे और क्या जानकारी दी जाए. और जब कोई ऐसी खबर जो वो नहीं बताना चाहते हैं, प्रकाशित हो जाती है तो वो नाराज हो जाते हैं. ऐसे में जो बात नहीं समझी जाती वो ये कि ऐसे तरीके अपनाने से आधिकारिक तथ्यों के प्रति विश्वसनीयता कम होती है. यहां तक कि सरकार के ईमानदार दावों पर भी सवाल उठने लगते हैं. ऐसे लोकतंत्र में जहां विश्वास पर ही जनता का रवैया टिका हो, वहां सरकार को अपने किए या कहे किसी काम पर संदेह की गुंजाइश भी नहीं रहने देनी चाहिए. आपातकाल के बाद से आप लगातार ये बात कह रही हैं कि आपका विश्वास है कि एक मुक्त समाज में जनता को सूचित रखना, जानकारियां देना प्रेस की ही जिम्मेदारी होती है. कई बार ये एक अप्रिय काम होता है, फिर भी इसे करना होता है क्योंकि एक मुक्त समाज कि नींव मुक्त सूचनाओं पर ही टिकी होती है. यदि प्रेस सिर्फ सरकारी घोषणाएं व आधिकारिक बयान ही छापेगी (जो वो अब कर ही रही है) तो कोई चूक या कमी कौन दुरुस्त करेगा?
मैं कई बार 3 दिसंबर 1950 को, ऑल इंडिया न्यूजपेपर एडिटर्स कॉन्फ्रेंस में नेहरु की कही बात को पढ़ता हूं, ‘मुझे इस बात पर कोई शक नहीं हैं कि सरकार प्रेस के द्वारा ली जा रही स्वतंत्रता को पसंद नहीं करती, और इसे खतरनाक भी समझती है, पर प्रेस की आजादी में दखल देना गलत होगा. प्रतिबंध लगाकर आप किसी चीज को बदल नहीं सकते, आप बस उस बात की अभिव्यक्ति पर रोक लगा सकते हैं, उसके पीछे छिपे भाव और अंतर्निहित विचार को आगे बढ़ने से रोक सकते हैं. इसीलिए, मैं एक दबे या सुनियंत्रित प्रेस की तुलना में एक पूरी तरह से स्वतंत्र प्रेस को तरजीह दूंगा भले ही उसमें इस स्वतंत्रता के दुरुपयोग का खतरा ही क्यों न शामिल हो.’ जिस तरह की सेंसरशिप अभी लगाई गई है ये किसी भी नई पहल, सवालों-जवाबों के लिए खुले माहौल और खुली सोच का गला घोंट देगी. मुझे यकीन है कि आप ऐसा तो नहीं चाहेंगी.
कुलदीप नैयर