घोटालों और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी यूपीए सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह ने आखिरकार पिछले महीने अपनी लंबी चुप्पी तोड़ने का फैसला किया. वैसे एक सक्रिय और गतिशील लोकतंत्र में सरकार की जवाबदेही के नाते प्रधानमंत्री की चुप्पी हैरान करने वाली थी. निश्चय ही, उन्हें और उनके सलाहकारों को एहसास होने लगा था कि उनकी चुप्पी और सवालों से बचने की कोशिश उनकी छवि धूमिल कर रही है. नतीजा, घोटालों और भ्रष्टाचार पर अपनी स्थिति स्पष्ट करने और एक तरह से सफाई देने के लिए प्रधानमंत्री ने समाचार चैनलों के मंच को चुना और एक दर्जन से अधिक संपादकों को मिलने के लिए बुलाया.
हालांकि यह एक संवाददाता सम्मेलन की तर्ज का आयोजन था, लेकिन असल में संवाददाता सम्मेलन नहीं था क्योंकि इसमें चैनलों के रिपोर्टर नहीं बल्कि चुने हुए संपादक बुलाए गए थे. यह असल संवाददाता सम्मेलन इसलिए भी नहीं था कि एक खुली प्रेस कॉन्फ्रेंस की सरगर्मी के उलट यहां सवाल-जवाब की पूरी प्रक्रिया बहुत ‘सैनिटाइज्ड,’ ‘मैनेज्ड’ और मशीनी थी. सभी संपादकों को प्रधानमंत्री से बारी-बारी से सवाल करने का मौका दिया गया. सभी संपादक अपनी पसंद, मर्जी और कुछ अपने चैनल के दर्शक समूह के मुताबिक सवाल पूछने में लगे रहे. इस कारण, सवाल-जवाब का कोई फोकस नहीं बन पाया.
यह प्रधानमंत्री और संपादकों की कोई व्यक्तिगत मुलाकात नहीं थी और न ही वे प्रधानमंत्री से मित्रता की वजह से वहां बुलाए गए थे
यही नहीं, संपादकों को पूरक प्रश्न करने या बारी तोड़कर प्रधानमंत्री के जवाब में से सवाल करने का मौका नहीं दिया गया. ‘टाइम्स नाउ’ के अर्णब गोस्वामी ने कोशिश भी की तो उन्हें प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार ने लगभग डपटते हुए चुप करा दिया. हैरानी की बात है कि किसी भी संपादक ने इसका विरोध नहीं किया और न ही किसी और ने ऐसी कोशिश की. अधिकतर सवाल रूटीन किस्म के और हल्के-फुल्के थे. कुछ सवाल लल्लो-चप्पो वाले थे.
पूरा देश इसका लाइव प्रसारण देख रहा था. लोग हैरान थे कि जो संपादक-एंकर अपने चैनलों पर राजनेताओं की खिंचाई और धुलाई के लिए मशहूर हैं वे यहां अनुशासित बच्चों की तरह कैसे व्यवहार कर रहे हैं. ऐसा नहीं है कि संपादकों ने प्रधानमंत्री से असुविधाजनक और तीखे सवाल नहीं किए लेकिन कुल मिलाकर, एक घंटे से अधिक का ‘प्रेस कॉन्फ्रेंस’ जैसा यह कार्यक्रम वास्तव में पीआर कॉन्फ्रेंस बन गया, जहां प्रधानमंत्री भी पीआर कर रहे थे और संपादक भी. यह और बात है कि प्रधानमंत्री इतनी नियंत्रित, प्रबंधित और संकुचित प्रेस कॉन्फ्रेंस का वैसा लाभ नहीं उठा पाए जैसा उनके सलाहकार चाहते थे.
इस कॉन्फ्रेंस से जितने सवालों का जवाब मिला, उससे ज्यादा सवाल पैदा हुए. 2जी से लेकर देवास डील तक पर प्रधानमंत्री की सफाई से शायद ही कोई संतुष्ट हुआ हो. लोगों को इससे भी निराशा हुई कि संपादकों को खुलकर सवाल-जवाब क्यों नहीं करने दिया गया. हालांकि कहना मुश्किल है कि अगर यह मौका मिलता भी तो कितने संपादक इसका लाभ उठाने के लिए तैयार थे. लेकिन कम से कम प्रधानमंत्री को यह दावा करने का मौका मिल सकता था कि उन्होंने खुद को ईमानदारी से हर तरह के सवाल के लिए पेश किया. इस मायने में यह ‘प्रेस कॉन्फ्रेंस’ प्रधानमंत्री की पीआर मशीनरी के मकसद को पूरा करने में नाकाम रही. लेकिन इसकी वजह चैनल और उनके संपादक कम थे. उन्होंने तो अपने तईं प्रधानमंत्री और उनकी मशीनरी की पूरी मदद की. कुछ को छोड़कर अधिकांश संपादक प्रधानमंत्री के निमंत्रण से अभिभूत थे. नतीजा, उन्होंने मनमोहन सिंह से वही सवाल किए जिनकी अपेक्षा उनकी पीआर मशीनरी ने की थी. यही नहीं, कुछ सवाल इतने ‘फ्रेंडली’ थे कि लगता था जैसे उन्हें पहले से तय करवाया गया है. सजे-धजे संपादक जिस नफासत और दोस्ताना तरीके से सवाल करने का कोरम पूरा कर रहे थे, उससे लग रहा था कि जैसे यह ‘प्रेस कॉन्फ्रेंस’ सरकार की किसी बड़ी उपलब्धि की घोषणा के लिए बुलाई गई है. हालांकि प्रधानमंत्री से क्या सवाल करना है, यह तय करने का अधिकार संपादकों को है, लेकिन कुछ अधिकार दर्शकों का भी है. यह प्रधानमंत्री और संपादकों की व्यक्तिगत मुलाकात नहीं थी और न ही वे प्रधानमंत्री से मित्रता की वजह से वहां बुलाए गए थे. उन्हें वहां इसलिए बुलाया गया था कि प्रधानमंत्री उनके माध्यम से देश को उन सवालों के जवाब देना चाहते थे जो पिछले कई महीनों से लोगों के मन में हैं. जाहिर है कि संपादक अपने दर्शकों के प्रतिनिधि के बतौर वहां बुलाए गए थे. ऐसे में उनसे यह अपेक्षा थी कि वे प्रधानमंत्री से वे सवाल जरूर करेंगे जो अगर उनके दर्शकों को सीधा मौका मिलता तो करते. लेकिन ऐसे सवाल बहुत कम किए गए. असल में, यह ‘प्रेस कॉन्फ्रेंस’ जिस तरह से आयोजित की गई, उसमें ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि चैनलों और उनके संपादकों ने प्रधानमंत्री की पीआर मशीनरी को खुद को इस्तेमाल करने का मौका क्यों दिया. दूसरे, अगर प्रधानमंत्री को इसी तरीके से सवालों का जवाब देना था तो बेहतर होता कि वे दूरदर्शन/डीडी न्यूज पर राष्ट्र के नाम संदेश पढ़ देते. इसके लिए इस तामझाम की जरूरत क्या थी?
आश्चर्य नहीं कि इस बेमानी पीआर कसरत से प्रधानमंत्री और न्यूज चैनलों के संपादकों दोनों की साख को धक्का लगा है. कहीं दूर खड़ी नीरा राडिया जरूर मुस्कुरा रही होंगी.