बहुचर्चित रामजन्मभूमि/बाबरी विवाद के मालिकाना हक के मुकदमे का फैसला सितंबर में आना है. इस पर पूरे देश की निगाहें टिकी हुईं हैं. उत्तर प्रदेश और केंद्र दोनों सरकारों में इस फैसले को लेकर बेचैनी दिखाई दे रही है. लेकिन अयोध्या के बाशिंदों में इसे लेकर कोई असहजता नजर नहीं आती. कुछ दिन पहले ही खत्म हुए झूलनोत्सव के मेले और रेले में आप अगर इस फैसले पर आम आदमी की रायशुमारी करते तो सामान्यतः आपको दो ही तरह के लोग मिलते. एक वे जिनका कहना है कि यह मुद्दा बहुत लंबा खिंच चुका है और अब इसका अंत होना चाहिए. और दूसरे जो इस फैसले के आने से ही नावाकिफ हैं.
अयोध्या स्थित विश्वहिंदू परिषद की कार्यशाला में मंदिर निर्माण के लिए पत्थर तराशने का काम दो साल से बंद है
लेकिन आम आदमी के उलट उत्तर प्रदेश के ‘समझदार’ लोगों में कोई भी इस मुद्दे से नावाकिफ नहीं है. उन्हें फैसले का इंतज़ार तो है ही, इसके आगे भी सोचा जा रहा है. विवादित स्थल के मालिकाना हक के मुकदमे में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने 26 जुलाई को फैसला सुरक्षित रख लिया था. इसके बाद उच्च न्यायालय की विशेष पूर्णपीठ ने दोनों पक्षों के बीच बातचीत के जरिए सुलह कराने की कोशिश भी की थी. पीठ ने इसके लिए दोनों पक्षों को अलग-अलग बुलाकर उनसे बात की. लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला.
विवादित स्थल के मालिकाना हक़ को लेकर मुकदमेबाजी का सिलसिला 1950 में तब शुरू हुआ था जब फैजाबाद की दीवानी अदालत में गोपाल सिंह विशारद ने विवादित स्थल पर पूजा करने की अनुमति दिए जाने संबंधी याचिका दायर की थी. इसके बाद अप्रैल,1950 में दूसरा मुकदमा, जो महंत रामचंद्र परमहंस बनाम जहूर अहमद एवं अन्य का था, दाखिल किया गया (इसे बाद में वापस ले लिया गया). तीसरा दावा 1951 में निर्मोही अखाड़ा बनाम प्रियदत्त राम एवं अन्य का आया. चौथा मुकदमा 1961 में उत्तर प्रदेश सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड बनाम गोपाल सिंह विशारद के नाम से चलना शुरू हुआ. और पांचवां दावा रामलला विराजमान की तरफ से 1989 में दायर किया गया. तब तक इन सभी मामलों की सुनवाई फैजाबाद की दीवानी अदालत में ही हो रही थी. इसी साल उत्तर प्रदेश के तत्कालीन महाधिवक्ता शांतिस्वरूप भटनागर ने राज्य सरकार की तरफ से एक अर्जी उच्च न्यायालय में दी कि चूंकि विवादित स्थल के मालिकाना हक के ये मुक़दमे अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, इसलिए इनकी सुनवाई उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच में विशेष पूर्ण पीठ के जरिए हो. इसके बाद से इन मुकदमों की सुनवाई उच्च न्यायालय में होने लगी. अंततः 26 जुलाई को साठ साल बाद कहीं जाकर यह सुनवाई पूरी हो सकी. यहां एक उल्लेखनीय तथ्य ये भी है कि रामजन्मभूमि/बाबरी विवाद से संबंधित सबसे पहला मुकदमा आजादी से पहले 19 जनवरी, 1885 को फैजाबाद की निचली अदालत में दाखिल हुआ था. तब महंत रघुबर दास ने बाबरी मस्जिद के सामने स्थित राम चबूतरे (जिसे भगवान राम का जन्म स्थान माना जाता है) पर पूजा करने का अधिकार मांगा था. मगर अदालत ने इस मामले को ख़ारिज कर दिया था.
जमाते इस्लामी-ए-हिंद उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष सैयद मोहम्मद अहमद कहते हैं कि अगर फैसला पक्ष में नहीं आता है तो सुप्रीम कोर्ट में जाया जा सकता है. लेकिन इसके खिलाफ सड़क पर उतरना ठीक नहीं
अयोध्या स्थित विश्व हिंदू परिषद् की रामजन्मभूमि कार्यशाला में मंदिर निर्माण के लिए पत्थरों को तराशने का काम पिछले दो सालों से बंद है. कार्यशाला के मुख्य व्यवस्थापक नागेंद्र उपाध्याय कहते हैं, ‘यहां का सत्तर फीसदी काम तो हो चुका है. लेकिन अब यहां जगह नहीं बची है, इसलिए पत्थर नहीं तराशा जा रहा. फैसला पक्ष में आने के बाद यहां काम फिर शुरू हो जाएगा. लेकिन मुझे इस बात पर संदेह है कि फैसला आने के बाद इस मामले पर चली आ रही लंबी लड़ाई ख़त्म हो पाएगी.’ इसी कार्यशाला के परिसर में गायत्री देवी की पूजा सामग्री की दुकान है. गायत्री के मुताबिक मस्जिद ढहाए जाने से पहले तक अयोध्या में कुछ धार्मिक पृवृत्ति के लोग और साधु-संत ही आते थे. 1992 के बाद यहां अचानक भीड़ बढ़नी शुरू हो गई. गायत्री कहती हैं, ‘पूरे देश में इस मुद्दे को हिंदू बनाम मुसलमान के रूप में देखा जाता है लेकिन यह बिलकुल गलत है. यह लड़ाई उन लोगों के बीच है जो अपने फायदे के लिए इसे ख़तम नहीं होने देना चाहते. फैसला चाहे जो हो, इस बार अयोध्या में शांति रहनी चाहिए.’
कोर्ट के फैसले के बाद उत्तर प्रदेश में शांति बनी रहे इस चिंता में प्रदेश और केंद्र सरकारों की नींद उड़ी हुई है. खासकर उत्तर प्रदेश सरकार तो कुछ ज्यादा ही बेचैन नज़र आ रही है. वह अपनी तरफ से तो शांति के इंतजाम करने में जुटी ही है साथ ही केंद्र सरकार से भी सहयोग के हरसंभव प्रयास कर रही है. उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने 10 अगस्त को प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर अयोध्या फैसले के बाद शांति बनाए रखने के लिए अर्धसैनिक बलों की 350 कंपनियों की मांग की थी. इसके बाद उन्होंने 108 और कंपनियों की मांग कर दी. उत्तर प्रदेश सरकार के इस रवैए ने केंद्र की बेचैनी को भी बढ़ा दिया है. 23 अगस्त को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अयोध्या मुद्दे पर कोर्ट के फैसले से पहले एहतियातन उठाए जा सकने वाले कदमों पर विचार के लिए कैबिनेट सदस्यों और शीर्ष अधिकारियों के साथ बैठक भी की, जिसमें वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी, रक्षामंत्री एके एंटनी, गृहमंत्री पी चिदंबरम, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन और इंटेलिजेंस ब्यूरो के मुखिया राजीव माथुर भी शामिल थे. बैठक में तय हुआ कि उत्तर प्रदेश में शांति व्यवस्था को लेकर केंद्र की तरफ से कोई लापरवाही नहीं की जाएगी. उधर उत्तर प्रदेश सरकार ने अपनी तरफ से एहतियाती कदम उठाते हुए प्रदेश की सुरक्षा व्यवस्था चाक-चौबंद करना शुरू कर दिया है. इसके तहत 19 अतिसंवेदनशील जिलों में पांच-पांच और 15 संवेदनशील जिलों में तीन-तीन और अन्य जिलों में दो-दो पीएसी की कंपनियां तैनात कर दी गईं हैं. पुलिसकर्मियों की छुट्टियों पर भी अगले आदेश तक के लिए रोक लगा दी गई है.
फैसले को लेकर मुक़दमे के दोनों पक्ष भी तैयार खड़े हैं. हाल ही में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघ चालक मोहन राव भागवत ने नागपुर में यह कहकर इस मुद्दे को और गरमा दिया है कि सहमति से बने या संघर्ष से राम मंदिर ज़रूर बनेगा. 16 जुलाई को अयोध्या के कारसेवकपुरम में समाप्त हुई विश्व हिंदू परिषद की केंद्रीय प्रबंधन समिति की बैठक में फैसला किया गया कि विश्व हिंदू परिषद की तरफ से राम मंदिर निर्माण के पक्ष में माहौल बनाने के लिए जनजागरण अभियान चलाया जाएगा. इसी के तहत 16 अगस्त से देश भर में विहिप की तरफ से हनुमत शक्ति जागरण शुरू किया गया है. यह जागरण 17 दिसंबर तक चलेगा. विश्व हिंदू परिषद के प्रांतीय मीडिया प्रभारी शरद शर्मा इसे आने वाले फैसले के साथ जोड़ते हुए कहते हैं, ‘हनुमत शक्ति जागरण से देश में मंदिर के पक्ष में माहौल तो बनेगा ही साथ ही कोर्ट का फैसला भी हमारे पक्ष में होगा. फैसला आने के बाद मंदिर निर्माण के लिए आगे की योजना पर विचार किया जाएगा.’ मंदिर आंदोलन से जुड़े रहे नयाघाट अयोध्या के महंत डॉ राघवेश दास वेदांती कहते हैं, ‘वैसे तो हमें उम्मीद है कि फैसला हमारे पक्ष में आएगा लेकिन अगर फैसला हमारे खिलाफ आया तो हम सुप्रीम कोर्ट जाएंगे.’ इस संदर्भ में जनांदोलन करने पर भी विचार किया जा रहा है. वहीं भारतीय जनता पार्टी के तेज़-तर्रार नेता विनय कटियार फैसले के बारे में पूछे जाने पर सिर्फ इतना बोलते हैं, ‘वहां मंदिर था, वहां मंदिर होना चाहिए, वहां मंदिर बनेगा.’
दूसरा पक्ष भी फैसले का इंतजार कुछ इसी अंदाज़ में कर रहा है. विवादित स्थल के मालिकाना हक़ के सबसे पहले मुक़दमे में गवाह रहे 90 साल के हाशिम अंसारी जब इसके बारे में बात करते हैं तो उनकी आंखों में गुस्सा तैर जाता है. वे कहते हैं, ‘मैं साठ साल से सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ रहा हूं. फैसला अगर हमारे खिलाफ हुआ तो हम सड़क पर उतरने नहीं जा रहे लेकिन सुप्रीम कोर्ट ज़रूर जाएंगे.’ जमाते इस्लामी-ए-हिंद उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष सैयद मोहम्मद अहमद कहते हैं कि अगर फैसला पक्ष में नहीं आता है तो सुप्रीम कोर्ट में जाया जा सकता है. लेकिन इसके खिलाफ सड़क पर उतरना ठीक नहीं. बाबरी मस्जिद एक्शन कमिटी के अध्यक्ष और इस मामले के वकील ज़फरयाब जिलानी फैसले को लेकर बिलकुल साफ़ तौर पर कहते हैं, ‘इस मामले का सुप्रीम कोर्ट जाना एकदम तय है, क्योंकि फैसला जिस पक्ष के खिलाफ आएगा वह सुप्रीम कोर्ट जाएगा ही जाएगा. इसलिए ये मामला अभी और लंबा खिंचेगा.’ इस मामले के एक दूसरे गवाह हाजी महबूब बेहद नपे-तुले अंदाज़ में कहते हैं, ‘कोर्ट का जो भी फैसला हो, दोनों पक्ष उसे स्वीकार करें तो बेहतर है. क्योंकि इतने सालों के संघर्ष के बाद तो इसमें फैसले की घड़ी आई है.’ कोर्ट के बाहर समझौते के बारे में बात करने पर वे कहते हैं, ‘मेरे पास अयोध्या में बहुत ज़मीन है मैं उसे बिना पैसे के ख़ुशी-ख़ुशी मंदिर के लिए दे सकता हूं लेकिन विवादित स्थल को लेकर पीछे नहीं हट सकता. ऐसा करना फिरकापरस्तों के सामने हार मानने जैसा है.’
फिलहाल निगाहें कोर्ट के नतीजे पर टिकी हैं – इंसान की भी और शायद भगवान की भी.