पीपली लाइव के बाहर

हमारे सारे गंभीर या अगंभीर, स्थूल या सूक्ष्म, उदात्त या टुच्चे उपक्रम बस एक वर्ग को संबोधित और उसी वर्ग की दृष्टि से संचालित हैं

अनुषा रिजवी और महमूद फारूकी की बनाई ‘पीपली लाइव’ वाकई एक अच्छी फिल्म है. फिल्म का खरा यथार्थवाद हमारे समय के उस वक्र विद्रूप पर उंगली रखता है जिसके एक सिरे पर कर्ज और भूख के मारे किसानों की मजबूरी है तो दूसरे सिरे पर एक संवेदनहीन तंत्र की निहायत स्वार्थी मुद्रा. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के टुच्चेपन और भारतीय राजनीति के ओछेपन के घालमेल का यह स्याह-सफेद चित्रण भारतीय मध्यवर्ग का देखा-बनाया और किसानों का भोगा हुआ यथार्थ है- इतना जाना-पहचाना कि फिल्म देखकर निकलने वाले आम दर्शकों की पहली प्रतिक्रिया यही होती है कि वे फिल्म नहीं, सच्चाई देख रहे थे. इसमें शक नहीं कि फॉर्म के स्तर पर भी निर्देशकों ने इस सच्चाई में न्यूनतम कला फेंटते हुए फिर यह याद दिलाया है कि महान कला वही होती है जो जीवन के सबसे करीब होती है.

लेकिन कम से कम दो बातें इस फिल्म में खटकती हैं. दुर्भाग्य से इन दोनों का वास्ता फिल्म की मूल कथा से है. एक तो यह कि यह फिल्म भारतीय राजनीति का, भारत के नीति-निर्माताओं और नियंताओं का काफी सपाट और इकहरा चित्रण करती है. वे मतलबी हैं, वे बेईमान हैं, वे बेमानी घोषणाएं करते हैं, उन्हें किसानों की नहीं, अपने चुनावों की परवाह है- यह सब पूरी तरह सच है, और यह सच इतना प्रत्यक्ष है कि जब फिल्म में सपाटपन के साथ भी आता है तो दर्शक इसे बेहिचक स्वीकार कर लेता है.

गैस-पेट्रोल तक की कीमतें बाजार के हवाले कर देने में विश्वास रखने वाली सरकारों को यह गवारा नहीं कि किसान अपनी जमीन की कीमत खुद तय करें लेकिन इस इकहरे सच के पीछे दूसरी और कहीं ज्यादा बड़ी विडंबना छुपी रह जाती है. जो लोग इस देश में संजीदा राजनीति करते हैं, जो अपने जानते देश की तरक्की के लिए नीतियां बनाते हैं, वे भी असल में गरीबों और किसानों के विरोधी हैं. बीते 20 साल में जो अबाध उदारीकरण अपने साथ कारोबार और रोजगार की अगाध संभावनाएं और एक नई आधुनिक जीवनशैली लेकर प्रगट हुआ है, जिसने इन वर्षों में भारतीय मध्यवर्ग का चेहरा और चरित्र लगभग पूरी तरह बदल डाला है, उसका एक उपनिवेशवादी स्वरूप भी है जो नत्था जैसे किसानों की नियति में दिखता है.

यह बात फिल्म में अलक्षित रह जाती है तो इसलिए कि यह फिल्म इस विडंबना पर नहीं, उस दूसरी विडंबना पर है जो इस नए दौर का नया मीडिया बना रहा है. लेकिन यहां भी संकट वही है. नत्था की खुदकुशी के लाइव प्रसारण के लिए इकट्ठा हुए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का यह व्यावसायिक टुच्चापन इतना जाना-पहचाना है कि वह अपने अतिरेकों में भी विश्वसनीय लगता है. लेकिन इस टुच्चेपन से पैदा होने वाला और कुछ तमाशबीन और टीआरपी जुटाने के अपने इकलौते लक्ष्य के साथ बनाया और मिटाया जाने वाला यह तमाशा बेमानी चाहे जितना हो, उतना खतरनाक नहीं है जितना इस टुच्चेपन से अलग, खुद को संजीदा बताने वाला मीडिया-उपक्रम है. क्योंकि वह भी अपनी गंभीरता में, उस ज्यादा बड़ी सच्चाई को सामने लाने से बचता है जिसका वास्ता इस देश में मजबूत हो रहे नए साम्राज्यवाद से है- दुर्भाग्य से यह नव साम्राज्यवाद पहले की तरह सिर्फ अमेरिकी या पश्चिमी साम्राज्यवाद नहीं है, अब इसके ठेठ देसी एजेंट हैं जो एक बड़े और अविकसित भारत की छाती पर पांव रखकर एक छोटा-सा चमकता-दमकता भारत बना रहे हैं.

निश्चय ही यह सब न दिखा पाना ‘पीपली लाइव’ की कमजोरी नहीं है. एक माध्यम के रूप में उसकी अपनी सीमाएं हैं. फिर वह भी एक कारोबारी फिल्म है जिसमें मुनाफे का खयाल रखा जाना है, और इसलिए भले निर्देशिका इसे छोटे सिनेमाघरों की फिल्म बनाना चाहती थीं, आमिर खान ने इसे मल्टीप्लेक्स में ही उतारा, कोक पीने और पॉपकॉर्न खाने वाले दर्शक की वाहवाही लूटी और उनकी जेब खाली कर एक और बड़ी व्यावसायिक कामयाबी अपने नाम लिखी.

बहरहाल, इस टिप्पणी का मकसद फिल्म की समीक्षा नहीं है, बस यह याद दिलाने की कोशिश है कि हमारे सारे गंभीर या अगंभीर, स्थूल या सूक्ष्म, उदात्त या टुच्चे उपक्रम बस एक वर्ग को संबोधित हैं और उसी वर्ग की दृष्टि से संचालित हैं. यह अनायास नहीं है कि जिन दिनों ‘पीपली लाइव’ दर्शकों की वाहवाही लूट रही थी, उन्हीं दिनों अलीगढ़ के टप्पल नाम के गांव में किसान गोलियां खा रहे थे. ये महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश के वे किसान नहीं थे जो कर्ज और मजबूरी में आत्महत्या कर रहे हों. ये पश्चिमी उत्तर प्रदेश के खाते-पीते किसान थे जो विकास के नाम पर अपनी लहलहाती फसलों वाली जमीन छोड़ने को तैयार नहीं थे. सरकार ने पहले कुछ जमीन एक शानदार एक्सप्रेस हाइवे बनाने के नाम पर हथियाई और फिर बिल्डरों को देने के लिए और जमीन मांगी. इसी मुद्दे पर किसान अड़ गए. उनका कहना था कि रास्ते के नाम पर सस्ते में जमीन दे दी लेकिन बिल्डरों के लिए वे मुंहमांगे दाम लेंगे. लेकिन बाजार अर्थव्यवस्था पर भरोसा करने वाली और गैस-पेट्रोल तक की कीमतों को बाजार के हवाले कर देने में विश्वास रखने वाली सरकारों को यह गवारा नहीं हो रहा कि किसान अपने पुरखों की जमीन की कीमत खुद तय करें. मह्त्वपूर्ण बात यह है कि इन गांवों में सारे किसान जमीन बेचने को तैयार भी नहीं हैं. करोड़ों रुपए के प्रलोभन के बावजूद बहुत सारे किसानों को एहसास है कि उनकी जमीन ही उनकी जिंदगी का आधार है- इससे उजड़ेंगे तो वे हमेशा के लिए उखड़ जाएंगे. उधर सरकार को भरोसा है कि देर-सबेर, कुछ मुआवजा बढ़ाकर, कुछ डरा-धमकाकर, कुछ तरह-तरह से दबाव बनाकर- जिसकी पुष्टि अभी ही गांव वाले कर रहे हैं- वह जमीन ले लेगी और अपने मंसूबों का आशियाना बना डालेगी.

कॉमनवेल्थ खेल तो एक बीती हुई दुनिया की थकी हुई दोयम दर्जे की प्रतियोगिता का नाम है जिसकी स्मृति शायद ही किसी को रहती हो 18 दिन किसानों का आंदोलन चला, किसी ने ध्यान नहीं दिया. आखिरी तीन दिनों में मामला हिंसा तक पहुंचा तो मीडिया भी टप्पल पहुंच गया- यह बताने कि टप्पल के किसानों को नोएडा जैसा मुआवजा चाहिए. इस सुर में किसानों के लिए जितनी सहानुभूति थी, उससे ज्यादा सरलीकरण था जो यह देखने को तैयार नहीं था कि राज्य के समग्र विकास में इन इमारती मंसूबों और उनसे लगे एक्सप्रेस हाइवे पर दौड़ने वाली गाड़ियों की क्या भूमिका होगी.

फिर यह सहानुभूति उस दिन तो शत्रुता में बदल गई जब किसान दिल्ली चले आए. इसके बाद की खबर दिल्ली की मुश्किलों की खबर थी- उन कामकाजी लोगों की, जो वक्त पर दफ्तर नहीं जा पाए, उन बीमारों की जो समय पर अस्पताल नहीं पहुंच पाए, उन मजदूरों की, जिनकी दिहाड़ी बंद हो गई. शायद ही किसी चैनल ने यह सवाल पूछा कि आखिर अपना घर-बार, अपने खेत-खलिहान छोड़कर किसान इस तपती-बरसती दिल्ली में क्यों आए हैं. अगर पूछा भी तो इतने हल्के अंदाज में कि फर्ज भी पूरा हो जाए और किसी को फर्क भी न पड़े.

दरअसल, यह सिर्फ इकहरी या फौरी दृष्टि का मामला नहीं है, यह उस सुनियोजित उपक्रम का भी नतीजा है जिसके तहत एक ग्लोबल भारत बनाने और उसे पहचान दिलाने की कोशिश हो रही है. जब इस पहचान पर बट्टा लगता है, जब यह ग्लोबल भारतीयता शर्मसार होती है तो मीडिया अपने सबसे सख्त और तीखे रूप में दिखाई पड़ता है. इसका प्रमाण कॉमनवेल्थ खेलों की रोज ली जाने वाली खबर है. इसमें शक नहीं कि कॉमनवेल्थ खेलों की अराजक तैयारी और उसमें छुपे भ्रष्टाचार की पोल हाल के दिनों में मीडिया की सबसे बड़ी उपलब्धि है. लेकिन यह अराजकता और भ्रष्टाचार सिर्फ कॉमनवेल्थ खेलों में नहीं, हमारी सारी योजनाओं में हर जगह मौजूद है.

कॉमनवेल्थ खेलों के भ्रष्टाचार और उनकी आधी-अधूरी तैयारी के पीछे मीडिया की केंद्रीय चिंता बस यही है कि दुनिया के सामने देश की बदनामी न हो. खेल अच्छे से हो जाएं, यह चिंता मीडिया के अलावा इस देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी तक को है जिनका कहना है कि खेल निपट जाए तो फिर वे भ्रष्टाचारियों से निपटेंगे. लेकिन कम लोग यह पूछ रहे हैं- और मणिशंकर अय्यर जैसे जो लोग यह पूछ रहे हैं उनके पीछे उनका निजी स्वार्थ और उनकी सनक खोजने की कोशिश ज्यादा हो रही है कि आखिर 70,000 करोड़ की लागत से होने वाले ये कॉमनवेल्थ खेल देश को क्या देंगे.

इतना ही जरूरी सवाल यह है कि कॉमनवेल्थ खेलों की आखिर हैसियत क्या है. ओलंपिक खेलों की एक अहमियत समझ में आती है कि वे तनावों और युद्धों से भरी बीसवीं सदी की तार-तार दुनिया को हर चार साल पर जोड़ने का काम करते रहे. जब सारे पुल टूटते-से लगे, उन्होंने खेलों के पुल बनाए रखे. एशियाई खेल भी उभरती हुई एशियाई अस्मिता के अपने सपने की तरह रहे जिनके आंकड़ों में लोगों की दिलचस्पी रही. लेकिन कॉमनवेल्थ खेल तो एक बीती हुई दुनिया की थकी हुई दोयम दर्जे की प्रतियोगिता का नाम है जिसकी स्मृति शायद ही किसी को रहती हो. हमें ओलंपिक और एशियाड का इतिहास मालूम है, कॉमनवेल्थ खेलों का नहीं- इसलिए नहीं कि उसमें खेल ऊंचे दर्जे के नहीं होते, बल्कि इसलिए कि कॉमनवेल्थ इस नई दुनिया में एक अप्रासंगिक हो चुकी संज्ञा है जिसका भार हमारी तरह के दृष्टिहीन देश ही ढोने को तैयार हैं. अब धीरे-धीरे यह बात भी खुल रही है कि कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन का अधिकार लेने के सिलसिले में हैमिल्टन को मात देने के लिए दिल्ली ने झूठ भी बोले- कहा कि इन खेलों के लिए जो खेलगांव बनेगा उसे दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रावास में बदला जाएगा. यह घोषणा अब न जाने किन फाइलों में बंद है और खेलों के बाद खेलगांव के फ्लैट बेचने की तैयारी चल रही है.

बहरहाल, बात पीपली लाइव से शुरू हुई थी. अपनी सीमाओं के बावजूद यह एक बड़ी फिल्म है- क्योंकि यह बताती है कि तंत्र की मजबूरी और मीडिया के तमाशे के बीच नत्था अपनी जमीन से उजड़कर आखिरकार गुड़गांव में मजदूरी करने को मजबूर है- शायद वह भी किसी कॉमनवेल्थ परियोजना का हिस्सा हो जिसे किसी तरह पूरा कर हमारा यह तंत्र दुनिया की वाहवाही लूटने को बेताब है- और भीतर-भीतर इस बात से खुश कि कॉमनवेल्थ के नाम पर मची लूट का एक बड़ा हिस्सा उसके गुमनाम खातों में पहुंच चुका है. समझने की जरूरत यह है कि भारत अब भी उपनिवेशवादी ताकतों का शिकार है- पहले ये ताकतें इंग्लैंड की नुमाइंदगी करती थीं, अब इंडिया का प्रतिनिधित्व करती हैं.