उम्र की 66वीं दहलीज पर खड़े हिंदुस्तान के मशहूर फिल्मकार राजा सईद मुजफ्फर अली आज भी उत्साह, ऊर्जा और नए विचारों से लबरेज ‘जूनी’ जैसे अपने कुछ अधूरे ख्वाबों को हकीकत में बदलने की कोशिश में जुटे हैं. फिल्मकार, चित्रकार, शायर, फैशन डिजाइनर और सामाजिक कार्यकर्ता मुजफ्फर अली का रचनात्मक सफर आज भी कला के अनछुए आयामों की खोज में लगा हुआ है. कुछ दिन पहले भोपाल आए मुजफ्फर अली की प्रियंका दुबे से बातचीत
फिल्म ‘जूनी’ पर
‘जूनी’ हब्बा खातून से प्रेरित एक कश्मीरी किरदार है जो ख्वाबों में जीने वाली एक शायरा थीं. आज कश्मीरियों की सबसे बड़ी शिकायत है कि कोई उन्हें समझता नहीं है. जूनी कश्मीरियों और बाकी हिंदुस्तान के बीच एक पुल का काम करेगी. राजनीतिक जड़ों से शुरू होकर बाद में फिल्म एक भावनात्मक मोड़ ले लेती है. इसकी शूटिंग के दौरान मैं 2 साल तक कश्मीर में रहा और मैंने उनकी संस्कृति, तहजीब और उनके जज्बातों को पर्दे पर उतारने की कोशिश की है. जूनी मेरा अधूरा ख्वाब है जो जल्दी पूरा होगा.
फिल्मों में शायरी के अहम किरदार पर
दरअसल देखा जाए तो गीत और शायरी किसी भी फिल्म का महत्वपूर्ण हिस्सा होते हैं. हर शायर अपनी शायरी में अपने वक्त की तसवीर दिखाता है. शहरयार की नज्मों ने उमराव जान के किरदार को निखारने में अहम भूमिका निभाई थी. इसी तरह ‘गमन’, ‘अंजुमन’ और ‘जूनी’ में भी मैंने अपने किरदारों को शायरी के जरिये स्थापित करने की पूरी कोशिश की है.
अपनी आने वाली फिल्मों पर
‘रूमी’ और ‘नूरजहां’ आने वाली फिल्में हैं. अभी इन दो स्क्रिप्टों पर काम कर रहा हूं. नू्रजहां एक बेहद मामूली मुहाजिर खानदान की लड़की के हिंदुस्तान की सबसे शक्तिशाली औरत बनने के सफर की कहानी है. मैं भोपाल से जुड़ी एक स्क्रिप्ट पर भी काम कर रहा हूं.
यह एक ऐसी फिल्म होगी जो गैस त्रासदी के बाद के भोपाल को दिखाएगी. यह दुनिया की सबसे दर्दनाक त्रासदियों में से एक से गुजरने, उसे सहने, उससे लड़ने और उबरने की भोपाल वासियों की सकारात्मक कोशिशों और उनके जज्बे को एक सलाम होगा.
फिल्मों के विकास में डीडी की भूमिका पर
प्रसार भारती बोर्ड का सदस्य बनने के बाद मैंने महसूस किया कि दूरदर्शन की क्षमता के उचित दोहन के लिए बड़े स्तर पर डीडी के गुणात्मक और तकनीकी विकास की जरुरत है. मैं चाहता हूं कि हम लखनऊ और कश्मीर में एक-एक फिल्म ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट बनाएं.
किसी भी देश का राष्ट्रीय चैनल उसकी सोच को जाहिर करता है. इस लिहाज से हमें डीडी से बहुत उम्मीद है. हमने अपने इतिहास का ठीक से दस्तावेजीकरण नहीं किया है. विभाजन, 1857 का विद्रोह और भोपाल गैस त्रासदी जैसे विषयों को अलग-अलग आयामों से देखकर सैकड़ों फिल्में बनाई जानी चाहिए थीं. पर हम तो बनी हुई कई महान फिल्मों के प्रिंट तक संभालकर नहीं रख पाए. मेरा मानना है कि डीडी को इस तरह के प्रोजेक्टों को उत्साहित करना चाहिए.
दिल्ली में ‘ले फकीर दे बनारस’ नाटक की सफलता पर
संगीत के साथ नाटक खेलने की विधा कम होती जा रही है, इसलिए मैंने इस तरह के नाटक का निर्देशन किया. दिल्ली में दर्शकों ने इसे बहुत सराहा भी. देश के दूसरे हिस्सों में भी इस तरह के प्रयोग किए जाने चाहिए. हमें अपने सांस्कृतिक पुनर्जागरण और मुक्ति की प्रक्रिया को फिर से जगाना चाहिए. हमारे पास जबर्दस्त सांस्कृतिक विरासत है, बस उसे सहेजने की जरूरत है.
सिनेमा और रंगमंच के रिश्ते पर
रंगमंच हमेशा की तरह सिनेमा को बेहतर अभिनेता देता रहेगा, पर रंगमंच को अपने वजूद को मजबूत करना होगा. इसके लिए सामाजिक संबल की भी जरूरत है. बंगाल और महाराष्ट्र की तरह सारे देश में रंगमंच को सांस्कृतिक समृद्धि का सूचक माना जाना चाहिए.
डिजाइनर कपड़ों की रेंज ‘कोटवारा’ पर
अपने पैतृक गांव कोटवारा के नाम पर मैनें कपड़ों की यह डिजाइन शुरू की. कोटवारा लखनवी विरासत के नवाबी दौर को आज के दौर के हिसाब से वैश्विक स्तर पर पेश करने की
कोशिश है.
नई पीढ़ी के निर्देशकों पर
तकनीकी स्तर पर आज के फिल्मकार बेहतर हैं, पर विषय, कंटेंट और कलात्मक पक्षों में हम खोखले होते जा रहे हैं. कुछ लोगो में आग है पर वो कितने जिम्मेदार हैं, कह पाना मुश्किल है. आज हमारी फिल्मों में कंटेंट और अच्छी स्क्रिप्टों की बहुत कमी है. असल में सन 1970 से हम लोग भटक गए. साहित्य से दूरी और दृष्टि की कमी की वजह से ऐसा हो रहा है. मैं ‘तुरंत सफलता’ और चीजों को सनसनीखेज करके पेश करने के खिलाफ नहीं हूं पर इसका समाज पर क्या प्रभाव पड़ सकता है, देखना जरूरी है.