जिन पाया तिन मारयां

21 अप्रैल, 2002 को आधी रात में अचानक ही सोनभद्र जिले के म्योरपुर ब्लॉक स्थित करहियां गांव के जंगलों में गोलियां तड़तड़ाने लगीं. जंगलों के बीच जहां-तहां बसे आदिवासी पुरवे- जो 2002 तक आते-आते इस तरह की घटनाओं के आदी हो चुके थे- एक बार फिर से किसी अनिष्ट की आशंका के बीच झूलने लगे. सुबह हुई तो बस इतना पता चला कि पिछली रात पुलिस के साथ मुठभेड़ में जो चार ‘खूंखार नक्सली’ मारे गए थे, दुद्धी थाने में उनकी शिनाख्त का काम चल रहा है.

पुलिसवालों ने पहले से जल रही चिता पर चारो लाशों को डालने को कहा. मजबूरन सूरजमन लाशों को उसी चिता पर ले जाकर डाल आए

अगले दिन यानी 22 तारीख को दिन भर ऊहापोह की स्थिति बनी रही जो शाम के धुंधलके के साथ और स्याह होती जा रही थी. जिन लोगों के परिजन घरों से बाहर थे उनकी चिंता कुछ ज्यादा ही गहरी थी. लेकिन बभनडीहा के भलुही टोले में रहने वाले सूरजमन गोंड़ निश्चिंत थे क्योंकि उनके तीनों बेटों के साथ कुछ भी बुरा घटने की आशंका न के बराबर थी. उनका सबसे बड़ा बेटा रामनरेश और मझला बेटा सुरेश शाम होते ही घर चले गए थे जो कि म्योरपुर-मुर्धवा मार्ग के किनारे स्थित उनकी चाय-पकौड़ी की दुकान से करीब एक किलोमीटर अंदर जंगल में स्थित है. सूरजमन अपने छोटे बेटे राजेश कुमार और पत्नी के साथ दुकान में ही सो रहे थे. आधी रात से कुछ पहले अचानक ही दुकान के दरवाजे पर हुई दस्तक ने सूरजमन की नींद तोड़ दी. कुछ समझ आता इससे पहले ही पुलिस उन तीनों को अपने साथ दुद्धी थाने में ले गई. वहां पुलिस ने पिछली रात हुई ‘मुठभेड़’ में मारे गए चार लोगों के शव दिखाकर सूरजमन से अपने 16 वर्षीय बेटे सुरेश की शिनाख्त करने के लिए कहा. उनमें से कोई भी सूरजमन का बेटा नहीं था और यही उन्होंने पुलिस से कहा भी. मगर पुलिसवालों को यह कतई मंजूर नहीं था. वे उन शवों में से एक को सुरेश का बताकर उसकी शिनाख्त करने के लिए सूरजमन को तरह-तरह से धमकाने लगे. सूरजमन जितना इनकार करते पुलिस का दबाव भी उतना ही बढ़ता जाता. आखिरकार पुलिस ने बेतरह दबाव डालकर सूरजमन और उनके बेटे को वहां पड़ी लाशों का अंतिम संस्कार करने के लिए मजबूर कर दिया.

पुलिस के क्रूर चरित्र का पटाक्षेप यहीं नहीं हुआ. एक गाड़ी में लाशों को लादकर वे पास के श्मशान घाट पर ले गए. वहां पहले से ही एक लाश जल रही थी. पुलिस वालों के पास चारों शवों के अंतिम संस्कार का कोई भी सामान मौजूद नहीं था. बकौल सूरजमन, ‘पुलिसवालों ने मुझसे कहा कि पहले से जल रही उसी चिता पर इन लाशों को भी डाल दो. मजबूरन हम बाप-बेटे मिलकर लाशों को उसी चिता पर ले जाकर डाल आए. वहां से लौटकर हमने तुरंत अपने बेटे को छत्तीसगढ़ एक रिश्तेदार के यहां भेज दिया. हमें डर लगने लगा था कि कहीं पुलिस अपनी कहानी को सच साबित करने के लिए हमारे बेटे को ही न मार दे.’

पुलिसिया आंतक का अंत यहीं नहीं हुआ. अब पुलिस सूरजमन पर जिंदा बेटे की तेरहवीं, दसवां और अन्य दूसरे संस्कार कराने के लिए दबाव डालने लगी. किंतु सूरजमन इसके लिए कभी तैयार नहीं हुए. भागे-भागे फिर रहे सुरेश पर इस दौरान अभी भी पुलिस द्वारा मारे जाने का खतरा मंडरा रहा था. दिन बीत रहे थे लेकिन पुलिस का दबाव कम नहीं हो रहा था. अब पुलिस ने एक नया पैंतरा चला. वह सूरजमन पर अपने बेटे का मृत्यु प्रमाणपत्र बनवाने का दबाव बनाने लगी. पुलिस रिकॉर्ड में मृत घोषित सुरेश बताते हैं, ‘पिता जी तो एक बार दबाव में आकर कर्मकांड के लिए तैयार भी हो गए थे. उनका कहना था कि दिखाने के लिए ही कर देते हैं, कम-से-कम जान तो छूटेगी पुलिसवालों से. लेकिन मेरी मां इसके लिए एकदम तैयार नहीं हुई. मैं कभी-कभी रात को चोरी से जंगलों के रास्ते घर आता था तब मुझे ये सारी बातें पता चलती थी.’

पुलिस सूरजमन पर जिंदा बेटे की तेरहवीं, दसवां और अन्य दूसरे संस्कार कराने के लिए दबाव डालने लगी. बाद में वह सूरजमन पर सुरेश का मृत्यु प्रमाणपत्र बनवाने का दबाव बनाने लगीसुरेश की मां द्वारा पकड़ी गई यह जिद अनजाने में ही सुरेश की जान की ढाल बन गई क्योंकि यदि सूरजमन ने सुरेश का मृत्यु प्रमाणपत्र बनवा दिया होता या उसकी तेरहवीं आदि करवा दिए होते तो इस बात की प्रबल संभावना थी कि सुरेश को किसी तरह से जाल में फंसाकर उसकी हत्या कर दी जाती. स्थानीय लोगों के मुताबिक समय बीतने के साथ शायद  पुलिस को इस बात का एहसास होता जा रहा था कि उसकी कहानी उसी पर भारी पड़ सकती है. इधर मामला थोड़ा ठंडा पड़ रहा था और उधर सुरेश को कुछ स्थानीय समाजसेवी कार्यकर्ताओं का साथ भी मिल गया. इनके सहारे सुरेश ने 2003 में सोनभद्र की  जिला अदालत में आत्मसमर्पण कर दिया. अदालत ने तुरंत ही सुरेश को पुलिस रिमांड पर भेज दिया जिसके बाद सुकृत से लेकर म्योरपुर तक अलग-अलग इलाकों में सुरेश पर अवैध हथियार रखने, नक्सलवाद फैलाने और गैंग्स्टर कानून के छह गंभीर मामले दायर कर दिए गए. पांच मामलों में सुरेश बरी हो चुका है. गैंग्स्टर एेक्ट वाला मामला अभी भी अदालत में चल रहा है.

यहां तथाकथित नक्सलवाद से निपटने के  हमारी व्यवस्था के तौर-तरीकों पर कई गंभीर सवाल खड़े किए जा सकते थे. लेकिन नक्सलवाद के कथित राक्षस से निपटने जैसे महती काम के फेर में किसी को भी व्यवस्था का यह विद्रूप चेहरा नज़र नहीं आया. इनमें पहला गंभीर सवाल यह था कि दो सालों से लगातार जिस व्यक्ति को पुलिस मृत नक्सली बता रही थी उसके आत्मसमर्पण के बाद भी किसी ने पुलिस की भूमिका पर कोई सवाल क्यों नहीं खड़ा किया. अदालत को भी इसकी सुध क्यों नहीं रही? और जब मरा हुआ व्यक्ति जिंदा सामने आ चुका था तो उसके बाद भी किसी ने पुलिस से यह पूछने की कोशिश क्यों नहीं की कि जिसे पुलिस ने सुरेश बताकर मारा था वह कौन था?

यह कहानी का सिर्फ आधा हिस्सा है इसका दूसरा हिस्सा पुलिस का इससे भी ज्यादा कुरूप चेहरा सामने लाता है. 21 अप्रैल, 2002 को करहियां में हुई मुठभेड़ के बाद पुलिस ने बाकायदा बयान जारी किया था कि मुठभेड़ में मारे गए चार ‘नक्सलियों’ में तीन चपकी गांव के थे जिनके नाम क्रमश: राजकुमार, राजू गोंड़ और बसंत लाल थे. चौथा मृत बभनडीहा के भलुही टोला का रहने वाला सुरेश गोंड़ था. पुलिस के मुताबिक मारा गया नक्सली राजकुमार, पुत्र रामसिंह चपकी गांव का रहने वाला था. उसी समय यह बात लोगों के बीच चर्चा का विषय बन गई थी क्योंकि रामसिंह नाम का कोई भी व्यक्ति चपकी गांव में रहता ही नहीं था. रामसिंह नाम से अंदाजा लगाकर पास ही के गांव बघमनवा के रहने वाले रामसिंह थाने में शिनाख्त के लिए पहुंच गए क्योंकि उनका 15 वर्षीय बेटा बद्रीनाथ दो दिनों से घर नहीं लौटा था. लेकिन थाने से पुलिस ने उन्हें यह कहकर भगा दिया कि तुम्हारा बेटा नहीं बल्कि राजकुमार मरा है. बात आई-गई हो गई और रामसिंह अपने बेटे बद्रीनाथ की खोज में मारे-मारे फिरते रहे.

रामसिंह कहते हैं, ‘डेढ़ साल तक हम सोनभद्र से लेकर मिर्जापुर तक की जेलों और पुलिस अधिकारियों के चक्कर काटते रहे. पुलिसवाले कुछ बताने को तैयार ही नहीं होते थे.’ हारकर एक दिन रामसिंह एक स्थानीय नेता के पास पहुंचे. जिसकी मदद से जब उन्होंने दुद्धी थाने में करहियां ‘मुठभेड़’ से संबंधित फाइलें देखीं तो मामला एकदम साफ हो गया. इन फाइलों में ‘मुठभेड़’ में मारे गए लड़कों की तस्वीरें थीं. फोटो देखकर रामसिंह ने अपने बेटे बद्रीनाथ को पहचान लिया. पुलिस अब तक जिसे राजकुमार कह रही थी वह बद्रीनाथ निकला. जिस बात की पुष्टि एक पल में हो सकती थी उसे पता करने में रामसिंह  के दो साल और हजारों रुपए खर्च हो गए. दर-दर की ठोकरें खानी पड़ीं सो अलग. अपने बेटे का अंतिम संस्कार भी उन्हें उसकी मौत के दो साल बाद करना पड़ा और इन सबसे ऊपर हाई स्कूल के एक निर्दोष छात्र को नक्सली बताकर मार दिया गया. गांव में एक भी ऐसा व्यक्ति तहलका को नहीं मिला जिसे बद्रीनाथ के चाल-चरित्र पर जरा भी संदेह रहा हो.

रामसिंह अपने बेटे बद्रीनाथ की खोज में मारे-मारे फिरते रहे. डेढ़ साल बाद दुद्धी थाने के रिकॉर्ड से पता चला कि पुलिस जिसे राजकुमार बता रही है दरअसल वो उनका बेटा बद्रीनाथ ही थाएक एनकाउंटर में मारे गए चार में से दो लोगों के मामलों में इतनी सारी खामियों को देखते हुए राजू गोंड़ और बसंत लाल की मौत अपने आप संदिग्ध हो जाती है. क्या वे वास्तव में नक्सली थे? दोनों के गांववाले सिरे से इस बात को खारिज कर देते हैं. तो क्या सिर्फ पुलिसवालों की बिना बारी के प्रोन्नति पाने की महत्वाकांक्षा ने चार निरीहों की जान ले ली? इन सवालों के संदर्भ में स्थानीय और जिला पुलिस प्रशासन की भूमिका और उनका पक्ष जानना जरूरी है. जब हम म्योरपुर स्थित पुलिस चौकी पर इस मुठभेड़ की जानकारी हासिल करने पहुंचे तो चौकी इंचार्ज पुष्पेंद्र प्रताप सिंह ने गेंद दुद्धी थाना होते हुए जिला पुलिस मुख्यालय स्थित नक्सल सेल और फिर वहां से जिला पुलिस कप्तान के पाले तक घुमा दी. गौरतलब है कि सुरेश के मारे जाने और राजकुमार के बद्रीनाथ होने के सबूत म्योरपुर की इसी पुलिस चौकी में तहलका के जाने से हफ्ते भर पहले तक मौजूद थे.

इलाके में आदिवासियों के बीच काम करने वाली संस्था वनवासी सेवा आश्रम के कार्यकर्ता जगत विश्वकर्मा को जब यह बात उड़ते-उड़ते पता लगी तो वे इसकी सच्चाई का पता लगाने के लिए 15 जुलाई को म्योरपुर पुलिस चौकी के मुंशी गैस लाल से मिले थे. विश्वकर्मा बताते हैं कि गैस लाल ने खुद उन्हें 2002 के अपराध रजिस्टर में दर्ज ‘मुठभेड़’ में  मारे गए सभी लोगों के नाम, पते आदि दिखाए थे, जिनमें आज भी किसी और की जगह सुरेश और बद्रीनाथ की जगह राजकुमार का नाम ही दर्ज है. लेकिन हफ्ते भर बाद जब तहलका उनसे जाकर मिला तो मुंशी गैस लाल और चौकी प्रभारी पुष्पेंद्र सिंह ने अपने यहां इस प्रकार के किसी रिकॉर्ड के होने से ही इनकार कर दिया. पुष्पेंद्र सिंह के शब्दों में, ‘चौकी में इतने पुराने रिकॉर्ड नहीं रखे जाते. ये नक्सल से जुड़ा मामला है, इसलिए आपको रॉबर्ट्सगंज स्थित पुलिस मुख्यालय के नक्सल सेल से संपर्क करना होगा. सुरेश का नाम गलती से छप गया था. उसकी जगह किरबिल गांव का रामसेवक मारा गया था.’ सिंह साहब की इस सफाई पर भी कई सवाल हैं. अगर नाम गलती से छपा था तो इसे आठ साल तक सही करने की सुध किसी को क्यों नहीं आई? किरबिल स्थित रामसेवक के घरवाले कहते हैं कि उन्हें आज तक किसी ने यह नहीं बताया है कि रामसेवक करहियां मुठभेड़ में मारे जाने वालों में शामिल था. साल भर गायब रहने के बाद उन्होंने रामसेवक को मरा हुआ मानकर उसका क्रियाकर्म आदि कर दिया. अगर रामसेवक मारा गया था तो उसके परिजनों को पुलिस ने इसकी जानकारी देना क्यों जरूरी नहीं समझा?

पुलिस की कहानी में जब इतनी खामियां हैं तो फिर यह कैसे मान लिया जाए कि मारा गया व्यक्ति वास्तव में रामसेवक ही था? और अगर पुलिस की यह नई वाली कहानी सही है तो फिर अगले दो साल तक सुरेश के परिजनों पर पुलिस कर्मकांड करवाने और मृत्यु प्रमाणपत्र बनवाने के लिए दबाव क्यों डालती रही?

अब रॉबर्ट्सगंज स्थित नक्सल सेल की कुशलता की बात कर लेते हैं. यह सेल सिर्फ नक्सल से जुड़े मसलों के लिए ही बना है जहां एक आईपीएस स्तर के अधिकारी के नेतृत्व में पूरा अमला नक्सलवाद से राष्ट्र की लड़ाई लड़ रहा है. लेकिन इस सेल के मुखिया कैलाश सिंह से फोन पर हुई बातचीत का हाल सुनिए (क्योंकि वे अपने दफ्तर में नहीं थे, न ही मिलने के लिए तैयार थे), ‘हम इस संबंध में कुछ नहीं बता सकते. हमारे पास इस मुठभेड़ से जुड़ी कोई जानकारी नहीं है. आपको एसपी साहब से बात करनी पड़ेगी. वही सारी जानकारी रखते हैं.’ यहां बताते चलें कि एसपी प्रतींदर सिंह से संपर्क की तमाम कोशिशें बेकार गईं. उन्होंने न तो फोन उठाया और न ही हमारे एसएमएस का जवाब दिया.  यहां फिर कुछ सवाल खड़े होते हैं. सिर्फ नक्सल मामले की देख-रेख के लिए बने नक्सल सेल के पास आखिर इतने बड़े एनकाउंटर से जुड़ा कोई दस्तावेज क्यों नहीं है? अगर पुलिस की कहानी सही है तो फिर जिले के आल अधिकारी बचते क्यों फिर रहे हैं? पुलिस की कहानी के फर्जी होने का एक सबूत और भी है. सोनभद्र पुलिस के वरदहस्त और कुछ स्थानीय ख्यातिनाम पत्रकारों के सहयोग से निकलने वाली पत्रिका ‘कम्युनिटी पुलिसिंग इन सोनभद्र’. इसके एक अध्याय में करहियां मुठभेड़ में मारे गए चारों कथित नक्सलियों के नाम राजकुमार, राजू गोंड़ बसंत लाल और सुरेश ही दर्ज हैं. इस पत्रिका का विमोचन 21 मई को उत्तर प्रदेश के राज्यपाल बीएल जोशी ने लखनऊ में किया था और 17 मई को प्रदेश के पुलिस महानिदेशक करमवीर सिंह ने. इससे यह बात भी साबित होती है कि एक झूठ को छिपाने के लिए सोनभद्र पुलिस झूठ पर झूठ बोले जा रही है और ऐसा करने में अपने ही जाल में उलझती भी जा रही है.

यहां से एक बार फिर हम वापस 2002 में लौटते हैं. 21 अप्रैल, 2002 की रात करहियां में मुठभेड़ के बाद सोनभद्र राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हो गया था. इस मुठभेड़ को अंजाम देने वाले पांच या छह पुलिसवालों को बिना बारी के (आउट ऑफ टर्न) प्रोन्नत कर दिया गया था. तमाम कोशिशों के बाद भी म्योरपुर चौकी के इंचार्ज या पुलिस के अन्य अधिकारी उस मुठभेड़ से लाभ पाने वाले पुलिसवालों के नाम बताने को तैयार नहीं हुए. अपने स्तर पर इकट्ठा की गई जानकारी के हिसाब से तत्कालीन म्योरपुर पुलिस चौकी प्रभारी अभय राय और मुंशी राम अवध यादव प्रोन्नति पाने वालों में शामिल थे. यहां एक खतरनाक प्रवृत्ति पर ध्यान देने पर कुछ और बातें साफ हो जाएंगी. 2 सितंबर, 2003 को करहियां से महज पांच-छह किलोमीटर दूर स्थित रनतोला में पुलिस ने दो निर्दोष युवाओं को फर्जी मुठभेड़ में मार गिराया था. फरवरी, 2010 में इस मामले में 14 पुलिसवालों को सोनभद्र की स्थानीय अदालत ने दोषी ठहराते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई है. गौरतलब है कि इनमें से भी कई पुलिसवाले ‘बिना बारी के’ प्रोन्नत किए जा चुके थे. इन परिस्थितियों को ध्यान में रखने पर करहियां कांड और भी संदिग्ध हो जाता है.

रॉबर्ट्सगंज के प्रतिष्ठित समाजसेवी अजय शेखर सोनघाटी की नक्सल समस्या का एक विस्तृत फलक सामने रखते हैं, ‘सोनभद्र में नक्सलवाद शेर आया शेर आया वाली कहानी की तरह है. 2002 के आसपास छिटपुट घटनाएं हुई थीं, लेकिन जिस तरह से इसका हौव्वा अब खड़ा किया जा रहा है उसके पीछे पैसा और प्रमोशन है. नक्सलवाद के नाम पर जिले में अनाप-शनाप धन आ रहा है और पुलिसवालों को नक्सिलयों को मारने पर प्रमोशन मिल जाता है. रनतोला कांड की सच्चाई सबके सामने है.’

शेखर की बात सही लगती है, वरना क्या वजह हो सकती है कि जब एडीजी उत्तर प्रदेश कहते हैं कि सोनभद्र में नक्सलवाद न के बराबर है तो अगले ही दिन यहां का स्थानीय प्रशासन ऐसे उछलने लगता है जैसे गर्म तवे पर पांव पड़ गया हो.