स्त्री रचनाकारों पर बेमौजूं टिप्पणी देने की हिंदी साहित्य में ख़ासी लंबी परंपरा रही है. इस बार हुआ यह कि अमर्यादित अशिष्टता का जवाब भी अमर्यादित अशिष्टता से दिया गया. इतने बेतुकेपन के साथ कि आमजन असमंजस में पड़ गया कि भद्र जनों की अभद्रता पर रोए कि तर्कहीनता पर हंसे. मुद्दा बना, नया ज्ञानोदय पत्रिका के बेवफ़ाई विशेषांक में छपे साक्षात्कार में महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय का यह कहना कि "लेखिकाओं में होड़ लगी है यह साबित करने के लिए कि उनसे बड़ी छिनाल कोई नहीं है." लगे हाथों उन्होंने यह भी जोड़ दिया, "एक बहु प्रोमोटेड और ओवर रेटेड लेखिका की आत्मकथात्मक पुस्तक का शीर्षक ’कितने बिस्तरों पर कितनी बार’ हो सकता था. इस तरह के उदाहरण बहुत-सी लेखिकाओं में मिल जाएंगे."
राय का साक्षात्कार विमर्श का अनर्थ है. विमर्श किसी खास विषय पर खास लोगों द्वारा नहीं किया जाता
ज़ाहिर है कि छिनाल शब्द पर, जिसका अंग्रेज़ी पर्याय प्रॉिस्टट्यूट नहीं स्लट है, और जो दोनों भाषाओं में गाली की तरह प्रयुक्त होता है, लेखिकाओं को घोर आपत्ति हुई और उन्होंने उसे ज़ोरदार शब्दों में व्यक्त किया. साथ ही सभी प्रबुद्ध जनों ने महसूस किया कि जिस तरह राय साहब ने सभी लेखिकाओं की रचनात्मकता को नकारा था, वह ग़ैर ज़िम्मेदाराना और असाहित्यिक था. पर इससे पहले कि दूसरे मसले पर बहस होती, टीवी चैनलों ने गाली का मुद्दा झपट लिया और उसे रियल्टी शो में तब्दील कर दिया. दुर्भाग्यपूर्ण यह रहा कि विभूति नारायण राय बराबर उसमें आहुति डालते रहे.
इस बहस पर कुछ कहने से पहले मैं यह कहना ज़रूरी समझती हूं कि बेवफ़ाई का ताल्लुक सिर्फ़ देह से नहीं होता. पति या पत्नी के इतर किसी से दैहिक संबंध बनाना भर ही बेवफ़ाई नहीं है. बेवफ़ाई के अनेक अन्य हृदय विदारक रूप हैं. अगर पति, बीमारी या कष्ट में पत्नी की देखभाल नहीं करता; परिवार की आमदनी को दारू आदि के अपने शौक़ पर खर्च करके पत्नी-बच्चों को अभाव में रखता है तो वह संगीन बेवफ़ाई है. अगर कोई व्यक्ति बिला स्नेह, मित्रता, करुणा, संवेदना रखे, पति या पत्नी के साथ उसके पैसे, पदवी या सुविधा की खातिर रह कर उसे कष्ट पहुंचाता है तो यह पीड़क बेवफ़ाई है. ठीक उस तरह जैसे राजनेता का नागरिकों से धोखाधड़ी करना राष्ट्र से बेवफ़ाई है. दरअसल इनसान सिर्फ़ अंतःप्रज्ञा से नहीं, विवेक और विश्वास के साथ वफ़ा करता है. इसलिए बेवफ़ाई पर अंक निकालना कोई ग़लत काम नहीं माना जा सकता, जैसा कि आज कुछ लोग कह रहे हैं.
मुद्दा यह है कि क्या अपमानजनक अपशब्दों का संपादन न करने के लिए संपादक को खेद प्रकट नहीं करना चाहिए? मैं समझती हूं कि करना चाहिए. लेखक की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अपनी जगह है पर संपादक का कर्तव्य है कि उसे मानहानि का दायरा न तोड़ने दे. एक प्रबुद्ध स्तंभकार का कहना है कि इन ग़ैर ज़िम्मेदार शब्दों का प्रयोग राय ने साक्षात्कार के बहाव में किया है. काश ऐसा हुआ होता! अगर होता तो राय साहब पहले ही दिन उसके लिए खेद प्रकट कर माफ़ी मांग लेते. मुझे याद आ रहे हैं एक और राय, सत्यजित नाम था उनका. फ़िल्म के एक प्रसंग पर कोलकाता का नर्स समुदाय आहत हुआ तो एक दिन बर्बाद किए बिना, उन्होंने खेद प्रकट कर दिया. और एक यह राय साहब थे जो तीन दिन तक, छिनाल शब्द की उत्पत्ति पर भाषण देकर यह दुहराते रहे कि प्रेमचंद ने इसका क़रीब सौ बार इस्तेमाल किया है. बेचारे प्रेमचंद! गलत शब्द का इस्तेमाल हो गया, परवाह नहीं, प्रेमचंद का नाम लो और गंगा नहा लो. सब पाप धुल जाएंगे. हाल में एक प्रकाशन संस्थान से जब मैंने कहा कि सही पद ‘यादगारी कहानियां’ नहीं ‘यादगार कहानियां’ होगा तो उनका भी यही तर्क था कि ‘यादगारी’ शब्द का प्रयोग प्रेमचंद ने किया था.
इस प्रकरण का एक दुखद पहलू यह था कि लेखक बिरादरी ने एक मंत्री से हस्तक्षेप करने की मांग की और राय साहब ने अंततः मंत्री के कहने पर माफ़ी मांगी. दोनों ने विश्वविद्यालय की स्वायत्त गरिमा को ठेस पहुंचाई. माफ़ी मांगने का उनका अंदाज़ ख़ासा पुरलुत्फ़ था. उन्होंने कहा कि अधिकतर लेखिकाएं जिन्हें उनके बयान पर आपत्ति थी, उनकी मित्र थीं. हम तो यही समझे बैठे थे कि स्त्री की पुरुष से मैत्री है या नहीं, यह तय करने का अधिकार स्त्री का होता है, पुरुष का नहीं. अपनी कहूं तो मुझे राय साहब के शब्दों पर ही नहीं, उनके बाद के व्यवहार पर भी आपत्ति है और मैं उनकी मित्र छोड़, परिचित भी नहीं हूं. कोई पुरुष नारी-द्वेषी है या नारी-अनुरागी, यह उसका निजी मसला है और उससे हमें कुछ लेना-देना नहीं है. हमें मतलब है उस दृष्टि से, जिससे वह स्त्रियों के लेखन को देखता-पढ़ता है. राय साहब ने कहा िक वे लेखक हैं इसलिए उन्हें हर किसी के लेखन पर टिप्पणी करने का अधिकार है. ज़रूर है. लेखन पर, लेखक के व्यक्तित्व या उसकी नीयत पर नहीं. दुर्भाग्य से हिंदी टिप्पणी/समीक्षा/आलोचना की आधुनिक परंपरा यह बन गई है कि रचना अगर स्त्री करे तो रचना को दरकिनार कर चर्चा स्त्री विमर्श पर केंद्रित कर दो और उसकी मन मुताबिक व्याख्या करके लेखिका को बतलाओ कि वह क्या लिखे, क्या नहीं.
हमारी आलोचना की दुर्गति का एक कारण विमर्श को खांचों में बांटना रहा है. राय का साक्षात्कार भी विमर्श का अनर्थ है. विमर्श किसी खास विषय पर खास लोगों द्वारा नहीं किया जाता. विचार-विमर्श के दौरान विषय उत्पन्न होते हैं, जिन्हें हम अनेक कोणों से परखते हैं. विमर्श को खांचों में बांटने का मतलब है कि स्त्री(वादी) विमर्श करने का अधिकार केवल स्त्री का है. ज़ाहिर है हर स्त्री उसकी व्याख्या अपने तरीके से करेगी. वैसे भी रचना हो या विमर्श, हर साहित्यकार उसे स्वायत्त करता है. लिखे हुए को श्रेष्ठ या निकृष्ट बतलाने का अधिकार हर आलोचक-पाठक को है पर यह बतलाना कि लेखक (स्त्री) को क्या लिखना या सोचना चाहिए, किसी हिसाब से स्तरीय आलोचना या टिप्पणी नहीं मानी जा सकती. रचना पहले होती है, विमर्श का उसके भीतर से अनुसंधान किया जाता है. इसके उलट तथाकथित स्त्री(वादी) विमर्श के नाम पर लेखक को गरियाना कि वह उसके मनोनुकूल लिखे, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और साहित्य के मर्म को खारिज करता है.