पुराने चने और प्रवचन : वंस अपॉन अ टाइम इन मुंबई

फिल्‍म वंस अपॉन अ टाइम इन मुंबई
निर्देशक मिलन लूथरिया
कलाकार अजय देवगन, कंगना, प्राची देसाई

अब आप अंडरवर्ल्ड पर फिल्म बना रहे हैं तो इसका यह मतलब तो नहीं कि आपके सारे डायलॉग भी बारूद की तरह हों जो देखने वालों के सर पर फूटें. हां-हां, हम जानते हैं कि आपको फिल्म के जरिए बहुत बड़ी बातें कहनी हैं, हमें जिंदगी का दर्शन सिखाना है, लेकिन फिर भी जब फिल्मों में सब-कुछ ज्यादा वास्तविक होता जा रहा है, मिलन लूथरिया जी, आपके बेपढ़े भाई लोग हर बात में ‘लहरों से टकराकर ही किनारा मिलता है’ जैसे ब्रह्मवाक्य ही क्यों बोलते हैं? कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि उन्होंने किसी शायर या उपदेशक से तालीम हासिल की है और गलती से इस धंधे में आ गए हैं.

पुराने के सब बुरे अर्थों में यह पुरानी तरह की फिल्म है. एक भी चीज अनपेक्षित नहीं, एक भी किरदार विश्वसनीय नहीं. एक भला डॉन, एक बुरा डॉन और लाचार पुलिस. भला डॉन फिल्म का नायक है और फिल्म बेशर्मी से उसे मसीहा बताती रहती है. ऐसा करते हुए फिल्म इतनी गलत है कि अपने फर्ज के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार पुलिस अफसर आपको खलनायक लगने लगता है. यह भी बॉलीवुड का एक पुराना चलन है जिसपर करोड़ों तालियां पीटी जा चुकी हैं.

अजय और कंगना के बीच के कुछ अच्छे दृश्यों के बावजूद कंगना के हिस्से में ज्यादा कुछ नहीं आया है. हां, कंगना फिल्म का सबसे आकर्षक हिस्सा हैं और पंचलाइननुमा डायलॉगों से बचने के लिए आप चाहते हैं कि वे जल्दी जल्दी परदे पर आएं. प्राची का किरदार सिर पीटने की हद तक बेवकूफ है और उससे आप जुड़ते ही नहीं तो सहानुभूति कैसे होगी? बाकी बहुत सी चीजें हैं जो आदर्श मुंबइया फिल्मों की तरह हैं. हीरो (जिसे विलेन होना चाहिए था लेकिन चूंकि वह अजय देवगन है, इसलिए…) देश के गृहमंत्री के शयनकक्ष में कभी भी पहुंचकर उन्हें डरा सकता है. इमरान हाशमी कभी प्यार में और कभी गुस्से में बेचारी मासूम-सी प्राची को नोचकर खा जाने को आतुर हों, फिर भी प्राची उनकी पूजा करने जैसा प्यार करेंगी. चूंकि फिल्म नायकप्रधान है और निर्देशक जी को डर है कि बोरिंग न हो जाए इसलिए कुछ महत्वपूर्ण दृश्यों में कंगना और प्राची अपने प्रेमियों के साथ खड़ी होकर गर्व से मुस्कुराती भी रहती हैं.

अच्छी पीरियड फिल्म की खासियत होती है कि उसका पीरियड होना उसकी कहानी की भीतरी परत में घुला रहता है और उसपर अलग से आपका ध्यान नहीं जाता. यह बताने के लिए कि यह सत्तर के दशक की कहानी है, उसे बॉबी के पोस्टर नहीं दिखाने पड़ते और मोनिका माई डार्लिंग नहीं बजाना पड़ता. उसके किरदारों के कपड़े ही नहीं, भाषा और सोच भी बदलती है. यह भूल भी जाएं तो भी किसी भी दौर के अपराधी इतने दार्शनिक तो कम से कम नहीं होते.

गौरव सोलंकी