गैरसैंण का सच

जब भी चुनाव नजदीक आते हैं तो उत्तराखंड क्रांति दल (उक्रांद) गैरसैंण का ढोल बजाना शुरू कर देता है. इस शोरगुल से उसे कितना लाभ मिला यह किसी से छुपा नहीं. लेकिन देखा जाए तो गैरसैंण की लड़ाई को उक्रांद ने तभी पीछे धकेल दिया था जब 1993 में उसने उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार को समर्थन दिया. वह अपनी समर्थित सरकार से गैरसैंण में भाजपा सरकार द्वारा पूर्व में स्वीकृत सरकारी भवनों का निर्माण नहीं करा सका.
1991-92 में उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार थी. पार्टी उत्तराखंड राज्य और गैरसैंण को इसकी  राजधानी बनाने के पक्ष में थी. इस प्रक्रिया की शुरुआत के लिए उसने गैरसैंण में कुछ सरकारी भवनों का निर्माण करने की कार्रवाई प्रारंभ की. योजना के तहत गैरसैंण में शिक्षा विभाग की ओर से जमीन खरीदी गई जिसपर अपर शिक्षा निदेशालय एवं डाइट के दो बड़े भवनों के निर्माण की स्वीकृति पर्वतीय विकास विभाग से दी जा चुकी थी.

राजधानी के लिए देहरादून का चयन राजनैतिक न होकर प्रशासनिक निर्णय था19 नवंबर 1991 को गैरसैंण में एक विशाल जनसभा का आयोजन किया गया. इसमें अनेक विधायक शामिल हुए. मैं भी एक काबीना मंत्री की हैसियत से वहां था. धूमधाम से दोनों भवनों का शिलान्यास हुआ. लक्ष्य यही था कि गैरसैंण में भवनों का निर्माण कराते हुए इस स्थान को राजधानी के योग्य बनाया जाए. हम लोग वहां तुरंत कुछ अन्य विभागों जैसे राजस्व, पर्यटन, खेल, आदि के लिए भी भवनों के निर्माण की योजना बना रहे थे. काम शुरू करने की औपचारिकताएं पूरी की जा रही थीं कि 6 दिसंबर 1992 को भाजपा की सरकार गिर गई.

उसके बाद छह महीने के राष्ट्रपति शासन काल में रोमेश भंडारी राज्यपाल रहे. उनके समय में भी कांग्रेसियों ने भवन निर्माण के काम में कोई रुचि नहीं दिखाई. 1993 में मुलायम सिंह की सरकार बनी और उक्रांद ने उसे समर्थन दिया. लेकिन न मुलायम ने भवनों के निर्माण की कार्रवाई की न उक्रांद ने इसके लिए दबाव बनाया. उस समय अगर उन भवनों का निर्माण हो जाता तो कुछ अन्य भवन भी बन जाते और राजधानी बनाने में कठिनाई नहीं होती. जिस दिन उत्तरांचल राज्य बना उस दिन गैरसैंण को राजधानी बनाने के तर्क को इसी कारण बल नहीं मिला कि गैरसैंण में कार्यालयों के लिए कोई शासकीय भवन नहीं था.

राज्य बन जाने के बाद भाजपा सरकार द्वारा 2000 में राजधानी आयोग का गठन किया गया. इसे छह माह का समय दिया गया था. लेकिन जब छह माह के बाद भी इसकी कोई रिपोर्ट नहीं आई तो तत्कालीन मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी ने आयोग की निरर्थकता भांपकर इसे भंग कर दिया. 2002 में जब कांग्रेस की सरकार बनी तो सर की बला टालने के लिए उसने फिर आयोग को जीवित किया और अपने पूरे कार्यकाल में उसे पालते रहे. तीन-चार महीनों के काम को पांच साल तक खींचते रहे. आखिर बहाना अच्छा था कि राजधानी का प्रश्न आयोग के सम्मुख है. दूसरी ओर देहरादून को ही स्थायी राजधानी बनाने के उद्देश्य से अनेक भवनों का निर्माण करके जनता की आंखों में धूल झोंकी जाती रही. जब 2007 में भाजपा की सरकार बनी तो उसने स्पष्ट कर दिया था कि रिपोर्ट प्रस्तुत हो या ना हो आयोग का बोझ और अधिक नहीं ढोया जाएगा. आयोग ने भी भांप लिया था कि अनुत्तर होकर भी और जिंदगी नहीं मिल पाएगी इसलिए उसने उसी कांग्रेस के पक्ष की रिपोर्ट बनाई जिससे उसे लंबा जीवनदान मिला था.

संसद में उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक पारित होने के बाद केंद्र ने उत्तर प्रदेश सरकार को राजधानी पर  फौरन निर्णय करने को कहा था. इस पर तत्कालीन मुख्यमंत्री रामप्रकाश गुप्त द्वारा 9 सितंबर 1999 को बैठक बुलाई गई जिसमें उत्तराखंड के सभी सांसद, विधायक, मुख्य सचिव आदि उपस्थित थे. चूंकि मात्र दो माह बाद 9 नवंबर 1999 को राज्य का गठन होना था इसलिए एक प्रशासनिक निर्णय लिया गया कि देहरादून, हरिद्वार और रामनगर में जहां भी सबसे अधिक सरकारी कार्यालयों  और  आवास की व्यवस्था उपलब्ध हो वहीं अस्थायी राजधानी बनाई जाए. इस प्रकार देहरादून का चयन राजनीतिक न होकर प्रशासनिक निर्णय था.

जब अस्थायी राजधानी देहरादून बन गई तो नारायण दत्त तिवारी सरकार द्वारा राजधानी आयोग को लंबा जीवन देकर स्थायी राजधानी के प्रश्न को टालने जैसा वातावरण बनाया गया. सवाल उठता है कि देहरादून अस्थायी राजधानी है तो सरकार द्वारा स्थायी राजधानी का निर्णय स्वयं विधानसभा के माध्यम से क्यों नही लिया गया और देहरादून में इतने भारी-भरकम भवनों का निर्माण क्यों कराया गया? स्पष्ट है कि उस समय सत्ता में हर किसी द्वारा इस तथ्य को स्वीकारा जा चुका था कि अब राजधानी देहरादून में ही रहेगी और यही आज सच भी लग रहा है. इस तरह 1992 में गैरसैंण के प्रति जो उत्साह था उसे उक्रांद और कांग्रेस ने लगभग समाप्त कर दिया है. उत्तराखंडी भी समझ चुके हैं कि 2012 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले गैरसैंण को राजधानी बनाने के लिए उक्रांद का हल्ला उठेगा, संभवतः कांग्रेसी भी इस खेल में अपनी ताल ठोकेंगे और चुनाव के बाद यह मुद्दा शायद हमेशा के लिए लुप्त हो जाएगा. 

केदार सिंह फोनिया

(भाजपा नेता और बदरीनाथ से विधायक)