गैरसैंण पर गैर हुए सब

राज्य आंदोलन के दौरान और उसके बाद के कुछ सालों तक भी हर उत्तराखंडी गैरसैंण को अपनी राजधानी मान चुका था. लेकिन राज्य बनने के बाद निहित स्वार्थों के चलते यह एक बार जो उपेक्षित हुआ तो फिर होता ही चला गया. अब एक बार फिर गैरसैंण को राजधानी बनाने का मुद्दा सुर्खियों में है.  मनोज रावत की रिपोर्ट

तुम भी सूणा, मिन सूणयाली

गढ़वालै ना कुमौ जाली

उत्तराखंडे राजधानी

बल देरादूणे मा राली

लोकप्रिय गढ़वाली गायक नरेंद्र सिंह नेगी के इस हालिया चर्चित गीत का मतलब यह है कि उत्तराखंड की राजधानी न गढ़वाल में बनेगी और न कुमायूं में, बल्कि देहरादून में ही रहेगी. नेगी ने यह गीत उत्तराखंड की स्थायी राजधानी के चयन के लिए गठित दीक्षित आयोग की रिपोर्ट आने के बाद लिखा और गाया था.

1994 में गठित कौशिक समिति की रिपोर्ट के अनुसार तब 69.21 फीसदी लोग गैरसैंण को राजधानी बनाने के पक्षधर थे

संयोग देखिए कि इस गीत का वीडियो संस्करण पिछले दिनों तभी बाजार में आया है जब उत्तराखंड की राजधानी का मुद्दा एक बार फिर गरमा रहा है. दरअसल, हाल ही में केंद्र सरकार के योजना व संसदीय कार्य राज्य मंत्री वी नारायण सामी ने गढ़वाल के सांसद सतपाल महाराज को उनके द्वारा संसद में पूछे गए प्रश्न के जवाब में बताया कि केंद्र सरकार के 13वें वित्त आयोग ने उत्तराखंड राज्य को विधानसभा के निर्माण के लिए 88 करोड़ रुपये की धनराशि स्वीकृत की है. महाराज ने केंद्र से उत्तराखंड में विधानसभा निर्माण के लिए धन की मांग की थी. अभी विधानसभा अस्थायी राजधानी देहरादून में कामचलाऊ भवन पर चलाई जा रही है. केंद्रीय मंत्री ने यह भी कहा था कि स्थायी विधानसभा का निर्माण गैरसैंण में हो या देहरादून में यह राज्य सरकार को तय करना है. 88 करोड़ रुपए स्वीकृत होने और महाराज द्वारा देहरादून के साथ ‘गैरसैंण में भी’ विधानसभा बनाए जाने की मांग ने एक बार फिर से गैरसैंण मुद्दे को हवा दे दी. विडंबना देखिए कि राज्य आंदोलन के दिनों में और उसके बाद के कुछ सालों तक भी हर उत्तराखंडी चमोली जिले के कस्बे गैरसैंण को अपनी राजधानी मान चुका था. लेकिन लंबे समय से इस मुद्दे की अनदेखी के चलते खुद गैरसैंण क्षेत्र के लोगों ने भी इसे राज्य की स्थायी राजधानी के रूप में देखने के सपने पालना छोड़ दिया है.

गैरसैंण के सफर में हमें एक बुजुर्ग मिलते हैं जो एक स्थानीय कहावत कहते हुए यहां के लोगों की मनोदशा बताते हैं जिसका अर्थ यह है कि ‘लोग रो-रोकर, थक-हारकर सो गए हैं.’ उत्तराखंड आंदोलन में सक्रिय रहे स्थानीय पत्रकार पुरुषोत्तम असनोड़ा पूछते हैं, ‘वर्ष 1990 से आंदोलनरत गैरसैंणवासियों को राजनीतिक दलों से छल के अलावा और क्या मिला?’ उनका कहना गलत नहीं है. राज्य बनने के बाद भाजपा हो या कांग्रेस या फिर उत्तराखंड क्रांति दल (उक्रांद), सभी पार्टियों ने गैरसैंण के मुद्दे पर उदासीनता दिखाई है. इस अनदेखी की एक झलक आदिबदरी से गैरसैंण तक बांज-बुरांस के खूबसूरत जंगलों के बीच से गुजरती हुई सड़क की खस्ता हालत भी देती है.

आंदोलनकारियों को राजधानी के रूप में गैरसैंण क्यों पसंद था, पूछने पर असनोड़ा एक दिलचस्प किस्सा बताते हैं. उनके मुताबिक उक्रांद के जन्म के बाद 1989 में एक बार पूर्व विधायक विपिन त्रिपाठी गैरसैंण से गुजर रहे थे. बातों-बातों में उनके मुंह से निकल गया कि गैरसैंण ही उत्तराखंड की राजधानी होगी. उसी यात्रा में त्रिपाठी के साथी और उक्रांद के संस्थापक अध्यक्ष डीडी पंत ने तत्काल त्रिपाठी की इस अनायास वाणी को समर्थन दे दिया. इसके साथ ही गढ़वाल व कुमायूं की इस हृदयस्थली का नाम प्रस्तावित राज्य उत्तराखंड की राजधानी के लिए चल पड़ा. 1990 से तो गैरसैंण राज्य निर्माण आंदोलन की जनअभिव्यक्तियों का केंद्र ही बन गया. 1990 में राम मंदिर आंदोलन के दौरान उत्तराखंड की 19 में से 17 विधानसभा सीटें जीतने वाली भाजपा को उत्तराखंड में ऐसे किसी स्थायी भावनात्मक मुद्दे की तलाश थी जिसके द्वारा भविष्य के चुनावों में भी इसी तरह की सफलता को दोहराया जा सके. अलग राज्य के लिए प्रबल उत्कंठा और राजधानी के रूप में गैरसैंण से पहाड़वासियों के भावनात्मक लगाव को भांपते हुए भाजपा ने 19 नवंबर 1991 को गैरसैंण में तीन मंत्रियों और कई विधायकों की मौजूदगी में भारी जनसभा की और उसी दिन शिक्षा विभाग के संयुक्त निदेशक (पर्वतीय), डाइट सहित अन्य कार्यालयों का उद्घाटन करके गैरसैंणवासियों के सपनों को पंख लगा दिए. लेकिन सपने सपने ही रहे. क्षेत्र प्रमुख जानकी रावत बताती हैं, ‘उस दिन की गई तीन घोषणाओं में से केवल एक पूरी की गई है. गैरसैंण में कन्या हाईस्कूल खोलने की. यह काम भी घोषणा के दस साल बाद हुआ है.’

भाजपा की अप्रत्याशित पहल के बाद अलग राज्य का झंडाबरदार, क्षेत्रीय दल उक्रांद भला कैसे पीछे रहता. उसने भी 25 जुलाई 1992 को गैरसैंण में एक महाअधिवेशन किया. इसमें कस्बे के आसपास के 50 किमी लंबे व 30 किमी चौड़े क्षेत्र का नाम, वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के नाम पर ‘चंद्रनगर’ रखकर इसे प्रस्तावित उत्तराखंड की राजधानी घोषित किया गया. 
15 मार्च 1994 से गैरसैंण में इस मुद्दे पर 167 दिन लंबा क्रमिक अनशन चला. इसमें हजारों लोगों ने हिस्सा लिया. उत्तराखंड लोक वाहिनी के शमशेर सिंह बिष्ट बताते हैं, ‘संभवतया विश्व में पहली बार हुआ होगा कि राज्य बनने से पहले ही वहां के जनमानस ने किसी स्थान को राजधानी स्वीकार कर लिया हो.’ उसके बाद तो गैरसैंण राज्य निर्माण आंदोलन की धुरी बन गया. मुजफ्फरनगर कांड के बाद 1994 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने राजधानी के चयन के लिए कौशिक समिति बनाई. इसकी रिपोर्ट के अनुसार उस समय 69.21 प्रतिशत लोग गैरसैंण को राजधानी बनाने के पक्षधर थे. 1995 में राष्ट्रपति शासन के दौरान राज्यपाल मोती लाल बोरा ने पूर्व में घोषित देहरादून और श्रीनगर में मिनी सचिवालयों की स्थापना का विरोध होने पर गैरसैंण में मिनी सचिवालय के सर्वे के लिए सात लाख रुपए दिए थे. 

इसके बाद गैरसैंण में 8 फरवरी 1996 से शुरू हुए 45 दिन लंबे आमरण अनशन को पुलिस ने पांच किस्तों में तोड़कर अनशनकारियों को उठाया. राज्य बनने से ठीक पहले 23 सितंबर 2000 को उत्तराखंड महिला मंच ने गैरसैंण में जोरदार रैली की थी जिसमें हजारों लोगों की भीड़ उमड़ी थी. प्रसिद्ध आंदोलनकारी बाबा मोहन ‘उत्तराखंडी’ ने राज्य निर्माण तथा गैरसैंण को राजधानी बनाने के मुद्दे पर 13 बार अनशन किया. अलग राज्य के बाद गैरसैंण में राजधानी बनाने की मांग के लिए आमरण अनशन करते बाबा को अनशन के 38वें दिन, 8 अगस्त 2004 को गैरसैंण के पास बेनीताल से जबरन उठाया गया. 9 अगस्त 2004 को ‘बाबा उत्तराखंडी’ पुलिस हिरासत में मृत पाए गए. एक बार फिर पहाड़ आंदोलन की आग में जलने लगे. अक्टूबर 2004 से स्थायी राजधानी के निर्माण के लिए ‘उत्तराखंड महिला मंच’ने गैरसैंण में 67 दिन लंबा आमरण अनशन किया. उस समय प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी. कुछ दिनों पहले बाबा की शहादत के बाद उपजे जनाक्रोश से घबराए प्रशासन ने 8-9 अक्टूबर को अनशनकारियों पर जमकर लाठी चार्ज किया. इस दौरान गिरफ्तार हुई स्थानीय निवासी धूमा देवी बताती हैं, ‘राज्य आंदोलन के दौरान गैरसैंण में उत्तर प्रदेश पुलिस और प्रशासन ने भी इतना अत्याचार नहीं किया था.’ इसके बाद भी विभिन्न संगठनों ने यहां राजधानी बनाने को लेकर 2004 व 2005 में देहरादून से गैरसैंण तथा देहरादून से बागेश्वर तक पदयात्राएं कीं.

लेकिन फिर आग ठंडी पड़ने लगी और राजधानी बनाने को लेकर शुरू हुआ यह जनांदोलन छिटपुट प्रदर्शनों तक सीमित रह गया. अब चमोली में हर जिला पंचायत व गैरसैंण में क्षेत्र समिति की बैठकों में गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाए जाने का रस्मी प्रस्ताव हर बार पास हो जाता है. उधर, गैरसैंण के आम ग्रामीणों को डर है कि राजधानी बनने के बाद उनकी खेती की जमीनें राजधानी निर्माण के लिए छिन जाएंगी. इस बारे में बात करने पर स्थानीय भाजपा नेता रामचंद्र गौड़ बताते हैं, ‘यह देहरादून में अरबों रुपए लगा चुकी प्रॉपर्टी डीलर लाबी द्वारा फैलाया भ्रम है.’ वैसे भी आंदोलन से लेकर राज्य निर्माण तक राजधानी बनने की आस में गैरसैंण में भी सड़क किनारे की सारी जमीन बिक चुकी थी.

विधानसभा बनाने और स्थायी राजधानी जैसे मुद्दों पर भविष्य में जमकर राजनीति होने की संभावना है. नए परिसीमन के बाद मैदानी क्षेत्रों की विधानसभा सीटों की बढ़ी संख्या को देखते हुए इस मुद्दे पर राष्ट्रीय दलों में असमंजस है. कांग्रेस के पांच सांसदों में से सतपाल महाराज के अलावा अल्मोड़ा से कांग्रेसी सांसद प्रदीप टम्टा ही गैरसैंण के पक्षधर हैं. पर्वतीय क्षेत्र की वकालत करते हुए वे कहते हैं, ‘गैरसैंण को तो उत्तराखंडवासियों ने पहले ही राजधानी मान लिया था. अब इसे राजधानी स्वीकार करने में देर नहीं की जानी चाहिए.’ टम्टा आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहते हैं, ‘राज्य औद्योगिक पैकेज तथा अन्य सुविधाएं तो पर्वतीय क्षेत्र के नाम पर लेता है परंतु इस पर्वतीय प्रदेश की राजधानी पर्वतीय कस्बे गैरसैंण में घोषित करने पर हीला-हवाली की जा रही है.’ टम्टा के दावे की पुष्टि इस बात से भी होती है कि इस साल मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ ने वार्षिक योजना की बैठक में योजना आयोग के सामने राज्य के 77 प्रतिशत भूभाग को पर्वतीय बताया था और विकास के लिए अतिरिक्त धन की मांग की थी. विधानसभा गैरसैंण में बनाने पर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष विशन सिंह चुफाल बताते हैं, ‘जल्दी ही दीक्षित आयोग की रिपोर्ट विधानसभा में रखी जाएगी, फिर सरकार कोई निर्णय लेगी.’ वैसे निजी रूप से चुफाल राज्य के केंद्र स्थल में राजधानी बनाने के पक्ष में हैं.

राज्य के लिए आंदोलनरत रही ताकतों में अब जबर्दस्त वैचारिक बिखराव है. उक्रांद में पुष्पेश त्रिपाठी के अलावा अन्य नेता अब खुलकर उन मुद्दों पर खुद बोलते नहीं दिखते जिनपर वे कभी राज्य भर में बवाल करते रहते थे. उक्रांद के बाद अब पीसी तिवारी की अध्यक्षता में वर्ष 2008 में गैरसैंण में ‘उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी’ के प्रथम अधिवेशन के साथ नए क्षेत्रीय दल का जन्म हुआ है. पार्टी के महासचिव प्रभात ध्यानी बताते कि उनका दल भी गैरसैंण को राजधानी के रूप में मान्यता देता है.

राज्य के मुख्यमंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ कर्णप्रयाग से 3 बार विधायक रहे हैं. गैरसैंण कर्णप्रयाग विधानसभा का ही हिस्सा है. राज्य भर में जमकर दौरे करने वाले ‘निशंक’ मुख्यमंत्री बनने के बाद अभी तक गैरसैंण नहीं पहुंचे हैं. यह भी गौरतलब है कि पिछले 20 सालों से कर्णप्रयाग विधानसभा से लगातार भाजपा के विधायक जीतते आए हैं.

जिस गीत का जिक्र शुरु में आया है उसकी निर्णायक पंक्ति में नेगी कहते हैं- ‘या भी लडै़ लगीं राली’, यानी गैरसैंण को राजधानी बनाने की लड़ाई जारी रहेगी. वे सही लगते हैं. पर्वतीय राज्य और राजधानी का सपना देखने वाली जनता के मन में अब सब कुछ उल्टा होते देख असंतोष पनप रहा है. इसे समय रहते न पहचाना गया तो हो सकता है कि उत्तराखंड में एक और जनांदोलन छिड़ जाए.