'हर चुनाव में भाजपा का नक्सलवादियों से सौदा हो जाता है'

नितिन गडकरी ने आजमगढ़ यात्रा के लिए आपको औरंगजेब की औलाद कह डाला. आप उन्हें क्या जवाब देंगे?

देखिए मैं गडकरी जी की बातों को कोई महत्व नहीं देता. जिस तरह की भाषा वो इस्तेमाल करते हैं किसी सभ्य व्यक्ति से उसकी उम्मीद नहीं की जा सकती. उन्होंने तो एक और बयान दे दिया है कि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद में सरकार ने नक्सलवादियों को शामिल किया है. उन्हें शायद ये भी नहीं पता है या शायद उनकी शिक्षा दीक्षा ऐसी है कि नागरिक समाज के लोग, सामाजिक कार्यकर्ता, आहिंसा में विश्वास करने वाले, आम जनता के बीच रहकर उनकी रहनुमाई करने वाले उन्हें नक्सलवादी नज़र आते हैं. नक्सलवादी तो हिंसक लोग हैं, जबकि ये अंहिंसक, गांदीवादी कार्यकर्ता है जो बिना किसी पद के जनता के बीच काम करते हैं. गडकरी जी के बयान को मैं तरजीह नहीं देता. भारतीय जनता पार्टी को नितिन गडकरी के असंतुलित बयानों का खामियाजा भविष्य में भुगतना पड़ेगा.

‘ जिस तरह की भाषा वे इस्तेमाल करते हैं किसी सभ्य व्यक्ति से उसकी उम्मीद नहीं की जा सकती ‘

आजमगढ़ की ही बात करें, जब आपकी सरकार और मानवाधिकार आयोग ने बटला हाउस एनकाउंटर को सही कह दिया था तो फिर आज़मगढ़ जाने की जरूरत क्या थी? क्या यह सिर्फ राजनीतिक फायदे के लिए उठाया गया कदम था?

देखिए पुलिस ने सिर्फ इस आधार पर आज़मगढ़ के तमाम लड़कों को गिरफ्तार किया था कि उन्होंने बटला हाउस मुठभेड़ में मारे गए लड़कों से बातचीत की थी. सिर्फ बातचीत के आधार पर उनके ऊपर 50-60 मामले थोपकर गिरप्तार कर लिया गया है. छह जगहों पर चार राज्यों में सभी मामले फैले हुए हैं. अगर इसी गति से जांच प्रक्रिया चलती रही तो ये लड़के जीवन भर जेल से बाहर ही नहीं निकल पाएंगे. मेरा मकसद सिर्फ वहां जाकर देखना था कि जो आज़मगढ़ हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक हुआ करता था वहां आखिर ऐसा क्या हो गया है, वहां तो बाबरी मस्जिद ढहाने के बाद भी कोई दंगा नहीं हुआ था. पर वहां एक तरफ उलेमा काउंसिल ने मेरा विरोध किया और दूसरी तरफ आएएसएस वालों ने. उलेमा काउंसिल इन 26 परिवारों से धन उगाही कर रही थी. उनका शोषण कर रही थी.

पर आप बाकी लड़कों की बजाय मुख्य आरोपी शादाब के घर गए थे.

मैं ये नहीं कह रहा कि शादाब निर्दोष है या दोषी है. मेरी बस इतनी सी मांग है कि जांच तेज गति से हो वरना ये लड़के तो जीवन भर जेल में ही सड़ते रहेंगे.

क्या ये आतंकवाद के मुद्दे पर आपका और कांग्रेस का दोहरा रुख नहीं है? आजमगढ़ के आरोपियों के लिए जल्द से जल्द सुनवाई की मांग और अफजल गुरू की फांसी की फाइल दो साल तक आपके मुख्यमंत्री की टेबल से आगे नहीं बढ़ पाती.

भाई वहां तो फैसला हो चुका है. उसकी दया याचिका राष्ट्रपति के पास लंबित है. आप मुझे बताइए एनडीए के कार्यकाल में कितनी दया याचिकाओं पर कार्रवाई हुई थी. राजीव गांधी के हत्यारों के खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं की, अफजल गुरू का मामला भी एनडीए के कार्यकाल में आया था तब उन्होंने कुछ क्यों नहीं किया. मैं यह मानता हूं कि हमसे कुछ व्यवस्थागत चूक हुई है जिसे दूर करना हमारी जिम्मेदारी है ताकि इस तरह के मामलों को जल्द से जल्द और ईमानदारी से निपटाया जा सके.

नक्सलवाद को लेकर दो तरह की बातें सामने आ रही हैं. आप कुछ कहते हैं, गृहमंत्री कुछ कहते हैं.

ऐसा कुछ नहीं है. जो बात गृहमंत्री कह रहे हैं मैं भी वहीं कह रहा हूं.

तो फिर गफलत कहां पैदा हो रही है.

हमारे बीच किसी तरह की दुविधा नहीं है. दुविधा आप मीडिया के लोग पैदा कर रहे हैं.

आप उन्हें बौद्धिक अहंकार से पीड़ित कहते हैं, फिर उन्हें अपना अच्छा दोस्त भी कहते हैं. चिदंबरमजी कहते हैं कि उन्हें खुशी होगी अगर आप उनसे बेहतर गृहमंत्रालय चला सकें.

सवाल ही नहीं उठता. 2013 तक तो मैं संसद का चुनाव ही नहीं लड़ूंगा.

तो फिर मतभेद कहां पैदा हो रहे हैं. आपके मुताबिक सरकार को नक्सलवाद से किस तरह से निपटना चाहिए?

देखिए ये पूरी तरह से राज्य का मामला है. केंद्र के पास करने को बहुत कम होता है. हां मेरा मानना है कि जिस तरह से आंध्र प्रदेश ने नक्सलवाद को खत्म किया वो तरीका सबसे बढ़िया है. पर छत्तीसगढ़ की सरकार पर मेरा हमेशा से आरोप रहा है कि वहां की सरकार नक्सलवाद से निपटने में असफल रही है, उनकी नीतियां गलत हैं. भारतीय जनता पार्टी का नक्सलवादियों से हर चुनाव में सौदा हो जाता है. आप देखें की पिछले कुछ चुनावों में नक्सलवाद से प्रभावित बूथों पर भाजपा के पक्ष में एकतरफा वोट पड़ता है. इसकी क्या वजह है

आप सरकार की नीतियों की भी आलोचना कर देते हैं, अपनी पार्टी की लाइन से भी अलग चले जाते हैं. ये कांग्रेस में एक नया चलन है. इसकी हिम्मत कहां से आती है.

मैंने नक्सलवाद की समस्या को हमेशा पार्टी की नीतियों के हिसाब से ही निपटने की हिमायत की है और आज भी मैं इस पर कायम हूं. मेरा कभी सरकार की नीतियों से मतभेद नहीं रहा. मैं तो गृहमंत्रालय की ही बात कर रहा हूं. गृह सचिव चिट्ठी लिखकर कहते हैं कि आदिवासियों की समस्याओं पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए, मैं भी यही कह रहा हूं.

आपके हिसाब से नक्सलवाद से प्रभावी तरीके से निपटने का तरीका क्या है.

आंध्र प्रदेश सरकार ने जिस तरह से नक्सलवाद को खत्म किया उसी तरह से कर दीजिए. शाति वार्ताएं हुई, आदिवासियों का विश्वास जीतने के लिए जो किया जा सकता था वो किया गया, हम लोगों ने पदयात्राएं की, कुल मिलाकर जनता को हमने साथ लिया. अगर जनता को आप साथ नहीं लेंगे तो फिर कभी सफल नहीं हो पाएंगे. बड़े लोगों ने आदिवासियों की जमीने हथिया ली थी उन्हें वापस दिलवाई गईं. 

इसके दो पहलू हैं पहला आंध्र प्रदेश में बहुत हिंसक तरीके से नक्सलवाद का खात्मा किया गया दूसरे आंध्र का तरीका अब बाकी जगहों पर लागू नहीं हो सकता. मेरी कुछ नक्सली नेताओं और उनके समर्थकों से बातचीत हुई है, उनका सीधे कहना है कि सरकार ने उनके साथ धोखा किया था. पहले शांति वार्ताओं के जरिए उनके अंडरग्राउंड नेताओं को ओवर ग्राउंड करवा लिया फिर हिंसक तरीके से उनका सफाया कर दिया.

असल बात यह है कि आंध्र प्रदेश में नक्सलवाद काबू में है या नहीं. रमन सिंह में तो इच्छाशक्ति ही नहीं है. 

आखिरी सवाल गृहमंत्रालय और विदेश मंत्रालय के बीच भी रस्साकशी चल रही है. सरकार के बीच इतनी मतभिन्नता क्यों है?

मैं इस विषय में कुछ ज्यादा नहीं कहूंगा पर इतना जरूर कहूंगा कि एसएम कृष्णा ने जो कहा है उसमें कुछ हद तक सच्चाई है. ऐसे समय पर गृह सचिव का इस तरह का बयान आना कहां तक उचित है. इस पर सोचना चाहिए.