प्रभाष जोशी होते तो इस स्तंभ में लिखते कि मुथैया मुरलीधरन के विदाई टेस्ट को देवता भी ऊपर से देख रहे होंगे और फूल बरसा रहे होंगे. इंद्र ने वर्षा रोकी होगी, मरुत ने हवाओं को नियंत्रित किया होगा और नियति का देवता अपने लेखे को दुरुस्त करने में जुटा होगा. यह उदात्तता उनकी शैली नहीं, सहज मानसिकता थी. जब वह ऐसा कुछ लिखते तो सपाट, और पत्रकारिता की इकहरी निगाहों से दुनिया को देखने और पढ़ने वाले लोगों को लगा करता कि प्रभाष जोशी भावनाओं में बह जाते हैं.
उन्होंने आख़िरी टेस्ट में अपने सारे संचित कौशल, अनुभव और ऊर्जा का इस्तेमाल किया और इसे अपने और टीम दोनों के लिए यादगार बना डालालेकिन यह किसी मुरली, सचिन या सुनील गावस्कर का करिश्मा नहीं था जिनकी वजह से प्रभाष जोशी नाम के पत्रकार का गला रुंध जाता था, उसकी कलम खुशी में चमकते आंसुओं की स्याही से लिखने लगती थी. यह मनुष्यता के प्रति उनकी निष्कंप आस्था थी, यह मानवीय उपलब्धियों के प्रति उनमें सहज ढंग से जगता और उमगता गौरव का भाव था जो उन्हें कभी कवि बना डालता था और कभी ऋषि.
मुरलीधरन के विदाई टेस्ट ने एक ऐसी ही उपलब्धि का चरम क्षण बनाया जिसपर रीझा और रोया जा सके. देवताओं के फूल हमने देखे नहीं, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि मैदान से विदा हो रहे मुरलीधरन पर सारी दुनिया ने फूल बरसाए. ऐसे कई लोग थे- और इनमें शायद ख़ुद मुरली भी रहे हों- जो मानते थे कि उनमें पुरानी चमक नहीं रह गई है, कि भारत के पिछले दौरे में भारतीय बल्लेबाजों ने उनकी गेंदों की उड़ान कतर दी थी, उनके घुमाव छीलकर रख दिए थे और वे बस एक महान गेंदबाज़ की छाया भर रह गए थे. इसलिए कम लोगों को उम्मीद थी कि गॉल के अपने आख़िरी टेस्ट में आठ विकेट चटखाकर मुरली 800 विकेट हासिल करने का करिश्मा कर ही दिखाएंगे. भारतीय क्रिकेट के जानकारों के सामने तो बस कपिलदेव का उदाहरण था जो 432 विकेट की मंज़िल तक, बिल्कुल घिसटते हुए, भारतीय क्रिकेट की सदाशयता के कंधों पर टंगकर, हांफते और निचुड़ते हुए पहुंचे थे.
मुरली ने लगातार सीमित की जा रही गेंद को उसका आत्मविश्वास लौटाया और क्रिकेट को उसका आकर्षण भीमुरली को अपने लिए यह नियति मंजूर नहीं रही होगी. इसलिए जब उन्होंने देखा कि वे अपनी टीम के लिए पहले की तरह उपयोगी नहीं रह गए हैं तो उन्होंने खुद को किनारे करने का फैसला किया. लेकिन उन्होंने अपने आख़िरी टेस्ट में अपने सारे संचित कौशल, अनुभव और ऊर्जा का इस्तेमाल किया और इसे अपने और टीम दोनों के लिए यादगार बना डाला. दरअसल, इस मोड़ पर पता चलता है कि सिर्फ कौशल नहीं होता जो किसी को महान बनाता है, यह उसकी अपनी जिद, उसके भीतर का रगड़ खाता लोहा होता है जो अपने-आपको साबित करने के लिए खुद को सान पर चढ़ाता रहता है.
मुरली के 800 टेस्ट विकेट और 1,300 से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय विकेट सिर्फ गेंदबाज़ी की उपलब्धि नहीं हैं. वे ब्रैडमैन के 99.94 के बल्लेबाज़ी औसत जितने ही अविश्वसनीय लगते हैं और सचिन तेंदुलकर के अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में 100 को छू रहे टेस्ट शतकों जितने ही अभेद्य. जब भी किसी खिलाड़ी के खाते में ऐसी अविश्वसनीय लगती उपलब्धियां दिखती हैं तो वह अपने खेल के दायरे के बाहर चला जाता है. मुरलीधरन भी पेले और माराडोना की तरह, जेसी ओवंस और ध्यानचंद की तरह, रोजर फेडरर और पीट सैंप्रास की तरह, माइकल फेल्प्स और यूसेन बोल्ट की तरह अपने खेल की सरहद फलांगकर उस अप्रतिम आकाशगंगा का हिस्सा हो गए हैं जिससे खेलों की मनुष्यता बनती है, उसकी विराटता झांकती है.
मुरलीधरन के संदर्भ में इस विराटता के पहलू कई हैं. मुरलीधरन के साथ एक युग ख़त्म हो रहा है, यह क्लीशे जैसा वाक्य कहने वाले लोग अकसर अपने इस कथन की मार्मिकता से अनभिज्ञ रहते हैं. लेकिन इस विदाई के साथ वाकई एक युग ख़त्म हुआ है. शेन वॉर्न, अनिल कुंबले और मुरलीधरन की उस महान स्पिन त्रयी ने हमेशा-हमेशा के लिए गेंद रख दी है जिसने अस्सी के दशक में मृत बताई जा रही स्पिन गेंदबाज़ी को जिंदा किया, उसे नए सिरे से परिभाषित किया, उसमें नए हथियार जो़ड़े और इसके सहारे वर्षों तक अपनी टीमों को जीत दिलाई. बेदी की फ्लाइटेड और चंद्रशेखर की गुगली पीछे छूट गई और दूसरा, टॉप स्पिन, जूटर, स्लाइडर जैसे कई नए शब्द शेन वॉर्न और मुरलीधरन की गेंदबाज़ी को समझने का जरिया बन गए.
दूसरी और ज्यादा अहम बात यह है कि जिन 18 वर्षों में मुरलीधरन खेले उसमें दुनिया ने अपने कई महान क्रिकेटर देखे. बल्लेबाजी में सचिन तंेदुलकर, ब्रायन लारा, रिकी पॉन्टिंग, राहुल द्रविड़, मैथ्यू हेडेन, सनत जयसूर्या, इंजमाम उल हक़, स्टीव वॉ, सहवाग और गेंदबाज़ी में मुरली, शेन वॉर्न, अनिल कुंबले, मैकग्रा, पोलोक, कर्टनी वाल्श सब इसी दौर की देन हैं. इस दौर ने कैलिस जैसा ऑलराउंडर देखा है जिसके रिकॉर्ड महानतम ऑलराउंडर गैरी सोबर्स को चुनौती देते प्रतीत होते हैं. गिलक्रिस्ट, संगकारा और महेंद्र सिंह धोनी जैसे विकेटकीपर बल्लेबाजों की पंक्ति ने तो विकेटकीपिंग को जैसे बिल्कुल पुनर्परिभाषित कर डाला है. लेकिन यह पूरा दौर अब अपने अंतिम पड़ाव पर है. स्पिन त्रयी जा चुकी, ब्रायन लारा और मैथ्यू हेडेन अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से विदा हो चुके, 2011 तक सचिन और द्रविड़ भी बल्ला टांग चुके होंगे और रिकी पॉन्टिंग अपने हांफते हुए आखिरी कुछ टेस्ट मैचों की दहलीज पर होंगे. इस लिहाज से यह क्रिकेट का वह चरम है जहां हम एक खेल को उसकी संपूर्णता में आखिरी बार देख रहे हैं. क्योंकि इसके बाद जो दौर आ रहा है वह क्रिकेट को मूलभूत तौर पर बदलता लग रहा है. इस प्रक्रिया को समझे बिना हम मुरली और उसके दौर की विदाई के मतलब को ठीक से समझ नहीं पाएंगे.
70 और 80 के दशक तक अंग्रेज भद्रजनों की औपनिवेशिक विरासत के तौर पर थक चुका टेस्ट क्रिकेट जब काफी सुस्त और अनाकर्षक हो चला था, उसमें पुराना तेज नहीं बचा था और अतिरिक्त सुरक्षात्मकता चली आई थी, तभी उसमें एकदिवसीय मैचों के रूप में नया खून आया. इस नए खून ने खेल की आत्मा भी बदल दी. औपनिवेशिक भद्रता और उसमें निहित दंभी चरित्र की जगह एक प्रतिस्पर्द्धात्मक स्फूर्ति और उससे पैदा हुई पहचान की नई आक्रामकता ने ले ली. यह खेल शुरू गोरों ने किया था, लेकिन इसे ठीक से दक्षिण एशिया के गरीब मुल्कों ने सीखा और साधा. खेल की शैली और मिज़ाज बदले तो टेस्ट भी रोमांचक हो उठे. क्रिकेट महानगरों से उठकर छोटे शहरों तक चला आया. 21वीं सदी की भारतीय क्रिकेट टीमों में रांची से लेकर कोच्चि तक और मुरादाबाद से लेकर भड़ूच तक के खिलाड़ी दिखने लगे. वैसे देखें तो मुरलीधरन भी श्रीलंका के संकटग्रस्त समाज के उस हिस्से और तबके से आते हैं जिसने हाल के दशकों में सबसे ज्यादा चोट खाई है.
लेकिन कुलीन घरों और शहरों से मध्यवर्गीय समाजों तक पहुंचे इस क्रिकेट को अब बाज़ार अपने हिसाब से अनुकूलित कर रहा है. जाने-अनजाने वह उसके अनूठेपन पर भी हमला कर रहा है. क्रिकेट इकलौता खेल है जिसमें गेंदबाज़ी और बल्लेबाज़ी के तौर पर दो बिल्कुल अलग विधाएं एक-दूसरे से टकराती हैं. क्षेत्ररक्षण इसमें एक तीसरा आयाम जोड़ता है. यह बहुआयामिता फुटबॉल, हॉकी या बास्केटबॉल जैसे खेलों में नहीं है. लेकिन बाज़ार लगातार इस कोशिश में है कि क्रिकेट को सिर्फ बल्लेबाजों का खेल बनाकर छोड़ दिया जाए. वह बल्ले को नई हैसियत दे रहा है और गेंद के लिए नई सरहदें बांध रहा है. 50 ओवरों का मैच किसी गेंदबाज के लिए महज 10 ओवर का होता है और 20 ओवरों का मैच सिर्फ 4 ओवर का. नोबॉल फेंकने की सजा सिर्फ एक रन नहीं, अब एक अतिरिक्त गेंद भी है जिसपर बल्लेबाज आउट नहीं होता. यानी बल्ला लगातार बड़ा बनाया जा रहा है, गेंद लगातार छोटी की जा रही है. इस ढंग से देखें तो एक वास्तविक खतरा यह है कि औपनिवेशिक कुलीन विरासत से आधुनिक मध्यवर्गीय जुनून का हिस्सा बनने वाले इस खेल को एक मुनाफाखोर अल्पतंत्र अपने मुनाफे के लिए सिर्फ एक तमाशा- एक इंटरटेनमेंट शो- बना कर न छोड़ दे. आईपीएल के संस्करणों में यही होता लग रहा है.
पर यह सिर्फ क्रिकेट के बाहरी स्वरूप के लिए नहीं, उसके अंदरूनी चरित्र के लिए भी ख़तरनाक है. टी-20 के रोमांच का जो झाग है उसमें स्मृति और ठहराव के लिए कोई अवकाश नहीं है, कला और विचार के लिए भी नहीं. वह किसी ऐडवेंचर स्पोर्ट्स की तरह एक ऐसा खेल है जिसमें बल्लेबाज़ हाराकिरी के लिए आते हैं. इस नए अभ्यास की वजह से इन दिनों क्रिकेट में रन खूब बन रहे हैं. लेकिन अंततः इनमें वह कलात्मक शास्त्रीयता घट रही है जो टेस्ट मैचों का सौंदर्य बोध गढ़ती है. यानी बहुत संभव है कि क्रिकेट के संक्षिप्तीकरण के पहले पड़ाव ने अगर टेस्ट मैचों को नई संभावनाओं से जोड़ा तो दूसरा पड़ाव उस अति तक पहुंच जाए जहां क्रिकेट दूसरे खेलों की तरह इकहरी बल्लेबाजी के प्रदर्शन का तमाशा भर रह जाए, उसमें वह गहराई न दिखे जो क्रिकेट की गौरवशाली अनिश्चितता को एक बड़ा मूल्य बनाती है.
मुरलीधरन का एक मूल्य इस तथ्य में भी निहित है. वे जैसे धारा के विरुद्ध गेंद को घुमाते और मनचाहे नतीजे पैदा करते रहे. जिस दौर में क्रिकेट का प्रतिष्ठान बल्ले को ज्यादा से ज्यादा बड़ा और मारक बनाता रहा, उस दौर में मुरली की फिरकी गेंद को वह जादुई घुमाव देती रही जिसने क्रिकेट को सिर्फ बल्ले की बादशाहत का गुलाम नहीं बनने दिया. इस घुमाव पर हैरान होने वालों ने मुरली को चकर करार दिया, उनकी गेंदों को नो बॉल ठहराते रहे और अंततः उन्हें मजबूर किया कि वे अपनी बांहों के घुमाव को बिल्कुल वैज्ञानिक ढंग से सही साबित करें और इसपर आईसीसी की मुहर लगवाएं. मुरली ने यह जंग जीती और लगातार सीमित की जा रही गेंद को उसका आत्मविश्वास लौटाया और क्रिकेट को उसका आकर्षण भी. हम सिर्फ कल्पना कर सकते हैं कि अगर गॉल टेस्ट में भारत ने भी श्रीलंका की ही तरह बल्लेबाजी की होती तो हमारे सामने बस एक नीरस और बेनतीजा मैच होता. यह नहीं हुआ तो इसलिए कि मुरलीधरन सचिन और धोनी जैसे बल्लेबाजों के विकेट ले उड़े.
ऐसे मुरली का आखिरी मैच प्रभाष जोशी ने छोड़ा नहीं होगा. वे भी कहीं ऊपर से फूल बरसा रहे होंगे.
प्रियदर्शन