एक हजार से अधिक की आबादी वाला अल्लाहपुर किसी आम गांव जैसा ही है- फूस की झोंपड़ियां और पक्के मकान, गांव के बीच में तालाब और आम के पेड़ों के बीच से निकलती सड़क पर बिछी हुई लाल ईंटें. अगर आपने गांव के नाम पर ध्यान दिया हो तो आपको जानकर थोड़ी हैरानी हो सकती है कि इस गांव में सिर्फ एक मुसलिम परिवार है, बाकी सभी घर हिंदुओं के हैं. और अल्लाहपुर के पास की नहर पार करें तो एक दूसरा गांव मिलेगा, भगवानपुर. मुख्य सड़क से गांव की तरफ मुड़ते ही घर शुरू हो जाते हैं- यहां तीन सौ परिवारों में सिर्फ 30 हिंदू हैं. बाकी परिवार मुसलिमों के हैं.
70 वर्षीय बिंदेश्वरी प्रसाद उत्साह के साथ बताते हैं, ‘पर्व-त्योहार में भले शामिल नहीं हो पाएं लेकिन शादी-गमी में सब शामिल होते हैं. अल्लाहपुर में एक मुसलिम परिवार है. कभी हमारे यहां कथा भागवत हुई तो उसे सुनने वे लोग भी आते हैं, खाना-पीना भी करते हैं’
भारतीय समाज में रहते हुए आदमी जिस तरह चीजों को देखने लगता है उसमें आबादी के समीकरण के हिसाब से नामों का ऐसा मिलाप अचंभे में डाल देता है. जाने कब से ये गांव कमोबेश इस संतुलन के साथ सहजता से रहते आए हैं. समाजवादी आंदोलन से जुड़े रहे स्थानीय पत्रकार नजीर मलिक पास के ही डुमरियागंज के हैं. बचपन से उनका आना-जाना इन गांवों की तरफ रहा है. वे बताते हैं कि उन्हें कम से कम तीन पीढ़ियों से इन गांवों के बसे होने की जानकारी है.
तीन पीढ़ियां. मतलब लगभग 150 साल. कोई नहीं जानता कि इन गांवों के नाम किसने रखे होंगे. जो सब जानते हैं वह है साथ रहने का शऊर. 70 वर्षीय बिंदेश्वरी प्रसाद उत्साह के साथ बताते हैं, ‘पर्व-त्योहार में भले शामिल नहीं हो पाएं लेकिन शादी-गमी में सब शामिल होते हैं. अल्लाहपुर में एक मुसलिम परिवार है. कभी हमारे यहां कथा भागवत हुई तो उसे सुनने वे लोग भी आते हैं, खाना-पीना भी करते हैं.’
तो देश-दुनिया में इतनी घटनाएं होती रहती हैं. सांप्रदायिक तनाव पैदा होते रहते हैं. चुनाव आते रहते हैं. क्या कभी किसी तरह की फूट नहीं पड़ी? वे कहते हैं, ‘क्या कोई फूट डालेगा? जब वे हममें मिल जाएंगे और हम उनमें तो कोई क्या फूट डालेगा? यहां भाजपा वाले भी वोट मांगने आते हैं और कांग्रेस वाले भी.’ लेकिन कभी-कभी लगता है कि साथ रहने का यह शऊर शायद थोड़ा दूर रहने के कारण पैदा हुआ है. अल्लाहपुर के ही जयंत्री प्रसाद कहते हैं, ‘इस गांव में होते तो शायद कुछ खटपट होती, लेकिन वे दूसरे गांव में हैं वह भी थोड़ी दूर है. नजदीक होते तो शायद कुछ खटपट हो भी सकती थी.’
अल्लाहपुर के अकेले मुसलिम परिवार के मुखिया रुआब अली अपने घर के सामने भैंसों का चारा काट रहे हैं. खेती उनका मुख्य पेशा है, साथ में वे सिलाई का काम भी कर लेते हैं. वे अपने पुश्तैनी मकान में रहते हैं और गांव में अकेला मुसलिम परिवार होने में उन्हें कोई मुश्किल नहीं है. हालांकि उनके परिवार की एक महिला कहती हैं, ‘हम चाहते हैं कि किसी दूसरे गांव चले जाएं जहां और भी मुसलिम रहते हों. यहां अच्छा नहीं लगता.’ रुआब अली और उनके भाई हजरत अली उस महिला की बातों पर ध्यान नहीं देते. लेकिन वह महिला अपनी बात पूरी करती है, ‘हमें पर्व-त्योहारों पर दूसरे गांव जाना पड़ता है. इसीलिए अच्छा नहीं लगता. बाकी तो यहां कोई दिक्कत ही नहीं है.’
भगवानपुर से आज किसी की बरात गई है, इसलिए अधिकतर लोग गांव में नहीं हैं. बात करने के लिए गांव के आखिरी छोर पर एक घर के पास अब्दुल मजीद मिलते हैं. उनकी बातें सुनकर अल्लाहपुर के बिंदेश्वरी प्रसाद की बातें याद आ जाती हैं, ‘इस गांव में 30 हिंदू परिवार भी रहते हैं. लेकिन कभी कोई दिक्कत नहीं हुई. सब मिल-जुलकर रहते हैं.’ नजीर मलिक कहते हैं, ‘यह मिथक बना दिया गया है कि जहां मुसलमानों की आबादी ज्यादा है, वहां दंगे होते हैं. इस पूरे इलाके और खासतौर से भगवानपुर-अल्लाहपुर इलाके में मुसलिम आबादी खासी है. लेकिन यहां कभी दंगे नहीं हुए. झगड़े जरूर हुए हैं, लेकिन वे हिंदुओं-मुसलमानों के झगड़े नहीं थे. वे जमींदारों और किसानों के बीच के संघर्ष थे, जिनमें दोनों के धर्म अलग-अलग हुआ करते थे.’