‘मुझे सिर्फ़ 72 घंटों का समय दें’

पिछले कुछ महीनों से सरकार की ओर से लगातार बयान आ रहे थे कि महाराष्ट्र चुनाव के बाद ऑपरेशन ग्रीन हंट ‘नक्सलवादियों के खिलाफ युद्ध’ शुरू किया जाएगा. पर आपके बातचीत के प्रस्ताव के बाद इनपर कुछ हद तक विराम लगा है. नक्सलवादियों के खिलाफ सरकार के पहले आक्रामक और फिर नरम रुख की क्या वजहें रहीं? और माओवादी हिंसा को खत्म करने का सबसे सही रास्ता क्या है?

मैंने गृह मंत्रालय में किसी भी दस्तावेज पर ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ लिखा नहीं देखा. यह पूरी तरह से मीडिया की खोज है

युद्ध हर कोई पसंद करता है, खासतौर से मीडिया. आपको यह हर देश में देखने को मिलेगा चाहे वह अमेरिका में 9/11 के बाद हो या भारत में 26/11 के बाद. लेकिन आपको स्थिति की गंभीरता को कम नहीं करना चाहिए. इस समय सात राज्यों के कई जिले सीपीआई (माओवादी) के नियंत्रण में हैं और वहां के प्रशासन को उन्होंने पूरी तरह से ठप्प कर रखा है. तब भी सरकार ने ज्यादा कुछ कहने-सुनने की बजाय राज्य सरकारों से मश्विरा करके सिर्फ समस्या सुलझाने की दिशा में प्रयास किया. हमने ऐसा जनवरी में किया, फिर अगस्त में. हम इस नतीजे पर पहुंचे कि माओवादियों के खिलाफ समन्वित कार्रवाई की जाए, हमने अपने इस फैसले को सार्वजनिक भी किया. केंद्र ने राज्यों में अर्धसैन्य बल भेजने, उन्हें इंटेलीजेंस सूचनाएं देने, प्रशिक्षण, उपकरण और तकनीकी सहायता उपलब्ध कराने का प्रस्ताव भी दिया. आप मेरा एक भी बयान बताइए जहां मैंने माओवादियों के खिलाफ ‘आक्रामक’ रुख अपनाया हो. मैं इस बात को नहीं मानता कि सरकार ने पहले भड़काऊ बयान दिए फिर नरम रवैया अपना लिया. जब हमने इस मसले पर मुख्यमंत्रियों से बात की तो इसे ‘आक्रामक रुख’ कहा गया और हमारे माओवादियों से बात करने की बात को नरमी कहा गया.

पहले माओवादियों से हथियार डालने को कहना और फिर केवल हिंसा छोड़ने को कहना क्या आपके रुख में एक बड़ी  तब्दीली नहीं है.

मैंने ऐसा कभी नहीं कहा कि वे हथियार डाल दें. मुझे पता है वे ऐसा नहीं करेंगे, यह उनकी विचारधारा के खिलाफ है. दुर्भाग्य से हमारे मीडिया ने इस अंतर पर ध्यान नहीं दिया.

कई सरकारी अधिकारियों ने मीडिया में ऑपरेशन ग्रीन हंट की बात की थी, लेकिन आपने और गृह सचिव गोपाल पिल्लई ने इसपर हाल ही में बयान दिया कि यह सब मीडिया की उपज है. तो क्या अब हम मान लें कि वास्तव में ऐसा कुछ नहीं होने वाला? और यदि कुछ हो रहा है तो आने वाले महीनों में क्या होने वाला है?

ऑपरेशन ग्रीन हंट कुछ नहीं है. आप उस अधिकारी का नाम बताइए जो ऐसा कुछ है, मैं उसके खिलाफ कार्रवाई करूंगा. मैंने गृह मंत्रालय में किसी भी दस्तावेज पर ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ लिखा नहीं देखा. यह पूरी तरह से मीडिया की खोज है. जहां तक आने वाले समय की बात है, जिन इलाकों में प्रशासन लगभग खत्म हो गया है उसे बहाल करने में, आपको पुलिस के  ज्यादा समन्वित प्रयास देखने को मिलेंगे. और इसके  लिए हम अर्धसैन्य बलों, खुफिया तंत्र और सूचनाओं के माध्यम से पुलिस की सहायता करेंगे.

लेकिन आपने हाल ही में इंडियन एक्सप्रेस में एक बयान दिया था कि यदि जरूरत पड़ी तो आप सेना या राष्ट्रीय राइफल को भी बुला सकते हैं. आपने यह भी कहा था कि नागरिक समाज ‘आतंक का माहौल’ बनाने में सहयोग कर रहा है इसलिए अब उसे किसी एक को ‘चुनना’ चाहिए. व्यवस्था की जोर-जबर्दस्ती के खिलाफ आवाज उठाना तो हर नागरिक का संवैधानिक कर्तव्य है, इसका मतलब यह तो नहीं कि वे माओवादी हिंसा का समर्थन कर रहे हैं. लोगों के ऐसे काले-सफेद आकलन का क्या मतलब? हमें दो शैतानों में से एक को क्यों चुनना चाहिए? आप लोकतांत्रिक स्वरों को अपराधी बनाकर उन्हें माओवादियों के साथ क्यों रखना चाहते हैं?

लेकिन कानून और प्रशासन राज्य का  विषय है. यदि मैं ज्यादा हस्तक्षेप करूंगा तो वे संविधान में राज्य के विषय वाली सूची मुझे थमा देंगे

मेरी बातों के गलत उल्लेख के लिए मैं आपको दोष नहीं देता. मैंने इनके साथ रहना सीख लिया है. आपने इंडियन एक्सप्रेस में दिए मेरे बयान से तीन चीजों का उल्लेख किया और तीनों ही गलत हैं. वहां मुझसे पूछा गया था कि क्या सेना बुलाई जाएगी?  मैंने कहा था नहीं, आंतरिक सुरक्षा से जुड़े अभियानों में सेना का उपयोग नहीं होगा लेकिन यदि जरूरी हुआ तो कुछ खास परिस्थितियों में सेना के कमांडो बुलाए जा सकते हैं. कमांडो को आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई के लिए तैयार किया गया है और उनका उपयोग पूरी सावधानी से किया जाता है.

दूसरा उल्लेख आपने यह किया कि मैंने नागरिक समाज को दो (राज्य प्रायोजित हिंसा और माओवादी हिंसा) में से एक चुनने को कहा. आप मुझे बताएं कि ऐसा मैंने कहां कहा था. अपने बयान में मैंने माओवादियों के हिंसा के इतिहास और सशस्त्र संघर्ष से राज्य का नियंत्रण अपने हाथ में लेने की उनकी नीति की ओर इशारा किया था. फिर मैंने यह कहा था कि हम लोकतांत्रिक गणराज्य की अवधारणा से बंधे हुए हैं. इसलिए नागरिक समाज को अब यह चुनना होगा कि वे सरकार के वर्तमान स्वरूप को चाहते हैं या एक सशस्त्र मुक्ति संघर्ष और फिर वंचितों की तानाशाही. आप इस कठोर चयन से मुंह नहीं मोड़ सकते. आप भारत के नागरिक हैं, यहां रह रहे हैं और आपको, मुझे और हर एक को इनमें में एक को रास्ता चुनना ही होगा. किशनजी, कोबाद गांधी और उनके जैसे दूसरों लोगों को इनमें से एक को चुनने का अधिकार है और वे तय कर चुके हैं. मैं भी अपना विकल्प चुन चुका है. भले ही इसमें कमियां हों लेकिन मैं एक लोकतांत्रिक गणतंत्र चाहता हूं. मैंने संविधान के तहत शपथ ली है. और अब सरकार के इस स्वरूप को बचाना मेरी जिम्मेदारी है जिसे मैंने, आपने और हमारी पिछली पीढ़ियों ने चाहे सही हो या गलत पर चुन लिया था. और यहां मैं बस यही कह रहा हूं कि दूसरों को भी इन विकल्पों में से एक को चुनना होगा. इसका मतलब दो तरह की हिंसा में से किसी एक को चुनना नहीं है. तो जब आप मेरे उस बयान के बारे में कहती हैं जहां मैं एक विकल्प चुनने की बात करता हूं तो आपको इसका संदर्भ भी बताना चाहिए कि मैंने किन चीजों में से चुनने की बात की थी.

ठीक बात है. लेकिन कुछ लोग तो माओवादियों को निशाना बनाने वाले अभियानों का विरोध करेंगे ही. हालांकि हमने एक प्रजातांत्रिक गणतंत्र में रहने का विकल्प चुना है लेकिन यह हमें इसकी खामियां बताने से नहीं रोकता. जब हम सरकार के दमन या निर्दोंषों को होने वाले नुकसान की ओर इशारा करते हैं तब आप गृहमंत्री होने के नाते न्याय के माहौल में बेहतरी लाने की कोशिश क्यों नही करते? क्या आप यह नहीं कह सकते कि पुलिस या अर्धसैन्य बलों की ज्यादतियों को सहन नहीं किया जाएगा?

मैं इस बात पर पूरी तरह सहमत हूं. हमारा लोकतंत्र खामियों से भरा है और ये दिनों-दिन बढ़ती जा रही हैं. हमें इस पर बहस करनी चाहिए और इसे सुधारने के लिए संघर्ष और पूरी कोशिश करनी चाहिए. चाहे यह प्रक्रिया कितनी ही धीमी क्यों न हों, इस दौरान हम कितने ही हताश क्यों न हों लेकिन सरकार के वर्तमान स्वरूप को खत्म न होने दें. एक ही दिन में व्यवस्था पूरी तरह से नहीं सुधारी जा सकती. संविधान में, अदालत, मानवाधिकार आयोग, अल्पसंख्यकों और अनुसूचित जाति-जनजाति के आयोगों, सूचना आयोग और चुनाव आयोगों को जिम्मेदारी दी गई है कि वे सरकार के कामकाज पर निगाह रखें. यदि ये संस्थाएं ठीक से काम करें तो हमारा तंत्र ठीक हो जाएगा. सबसे निराशाजनक बात यह है कि इनमें से कई संस्थाएं फैसले करने में हिचकती हैं या वे एक तरह से निष्क्रिय हैं. इससे हमारी व्यवस्था में खामियां बढ़ती हैं. कुछ निश्चित नियमों को लागू करना मेरे अधिकारक्षेत्र में आता है. उदाहरण के लिए, मैंने यह साफ-साफ कह रखा है कि राज्य या केंद्र स्तर पर पुलिस जिसे भी हिरासत में लेगी उसे 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के  सामने पेश करना होगा. मैं फर्जी मुठभेड़ों के बिल्कुल खिलाफ हूं. पुलिस और अपराधियों की मुठभेड़ में लोग मर सकते हैं, लेकिन यदि आप किसी को हिरासत में लेते हैं तो उसे मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाना चाहिए. मैं यह बात पूरे यकीन के साथ कह सकता हूं कि जब से मैं गृहमंत्री बना हूं पुलिस द्वारा हिरासत में लिया गया कोई भी व्यक्ति मुठभेड़ में नहीं मारा गया.

यदि एसपीओ कानून का उल्लंघन करते हैं, जबर्दस्ती हिंसा करते हैं तो उन्हें सजा मिलनी चाहिए. लेकिन जब एक चुनी हुई राज्य सरकार हो तो उन्हें कानून के पालन के प्रति रवैया बदलने को कहने के अलावा मैं ज्यादा कुछ नहीं कर सकता

मैं आपको यह भी यकीन दिला सकता हूं कि कुछ नियमों का पालन अब विशेष रूप से सुनिश्चित किया जाता है. टॉर्चर चैंबर का ही मामला लें. मैंने इस बारे में गहन पड़ताल कराई है; इस समय देश की केंद्रीय एजेंसियों के नियंत्रण में एक भी टॉर्चर चैंबर नहीं है. यदि आपको भरोसा नहीं है तो आप मुझे ऐसे किसी भी चैंबर के बारे में बताएं, उसे भी समाप्त कर दिया जाएगा. इसी तरह से माओवादियों के मामले में हमारी समन्वित नीति के तहत मेरा निर्देश है जब तक हम पर गोली न चलाई जाए, हम गोली नहीं चलाएंगे और केवल खुफिया सूचनाओं के आधार पर ही अभियान चलाए जाएंगे. व्यापक स्तर पर तलाशी अभियान नहीं चलाए जाएंगे क्योंकि इससे स्थानीय आबादी हमारे खिलाफ हो जाती है. मुझे पंजाब का अनुभव है और इस तरह के खतरों के बारे में जानता हूं. मेरा कहने का मतलब है कि सरकार के हर अंग को अपनी जिम्मेदरी सही ढंग से निभानी चाहिए. यदि आपके जिले में एक सक्षम डिस्ट्रिक्ट जज है और वैसा ही मजबूत और निडर मजिस्ट्रेट है तो आपराधिक न्याय तंत्र में कहीं कुछ भी गलत नहीं हो सकता.

समस्या यही है कि बहुत-सी बातें यहां गलत हो रही हैं. मणिपुर में इसी साल अब तक 285 से ज्यादा फर्जी मुठभेड़ें हो चुकी हैं. तहलका ने भी जुलाई में एक स्तब्ध कर देने वाली मुठभेड़ की तस्वीरें छापी थीं. छत्तीसगढ़ में नक्सलियों की हिंसा की आलोचना करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार सलवा जुडम के एसपीओ की कारगुजारियां उजागर करने की कोशिशें कर रहे हैं, वहां ये लोग आदिवासियों के घर जला रहे हैं, महिलाओं से बलात्कार कर रहे हैं. लोगों का सरकार पर से भरोसा उठ चुका है क्योंकि वहां आदिवासी एफआईआर भी दर्ज नहीं करा सकते. नागरिक अधिकार समूहों का कहना है कि नक्सलवादियों से शांतिवार्ता का तब तक कोई मतलब नहीं है जब तक न्यायतंत्र पर लोगों का भरोसा बहाल न किया जाए. क्या आप इस संकटग्रस्त इलाके को कोई संदेश नहीं दे सकते कि इस तरह की जबर्दस्ती स्वीकार नहीं की जाएगी? उन कुछ एसपीओ को गिरफ्तार कर लें जिनके खिलाफ शिकायतें मिली हैं..

मुझे खुशी है कि आपको लगता है कि मेरे पास इतनी ताकत है. लेकिन कानून और प्रशासन राज्य का  विषय है. आप जो भी कह रहीं हैं वह सब राज्यों के अधिकार-क्षेत्र में आता है. इसके लिए आपको उन प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों और गृहमंत्रियों से बात करनी चाहिए. यदि मैं ज्यादा हस्तक्षेप करूंगा तो वे संविधान में राज्य के विषय वाली सूची मुझे थमा देंगे.

यह कहकर आप अपने को बचा रहे हैं?

नहीं, मैं कह रहा हूं कि आप यह सवाल संबंधित लोगों के सामने उठाइए. मैं जब गृहमंत्री बना था तो सबसे पहला मसला मेरे सामने सलवा जुडम का ही था और मैंने सार्वजनिक और निजी तौर पर मुख्यमंत्री से कह दिया था कि मैं इस बात के पक्ष में नहीं हूं कि राज्य में सरकार से बाहर के लोगों को इस तरह की जिम्मेदारी सौंपी जाए. यह पुलिस का काम है. वैसे जहां तक मेरी जानकारी है सलवा जुडम की गतिविधियां धीरे-धीरे न के बराबर हो गई हैं.

नहीं, एसपीओ के पास अभी भी बंदूकें हैं, सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया है कि सलवा जुडम के कारण जिन गांवों को खाली कराया गया है वहां लोगों को दोबारा बसाया जाए, लेकिन एसपीओ ऐसा नहीं होने दे रहे हैं.

हो सकता है. लेकिन एसपीओ राज्य सरकार के अंतर्गत कार्य करते हैं. पंजाब में भी एसपीओ थे. एसपीओ कश्मीर में भी हैं. एक हिसाब से वे राज्य सरकार के कर्मचारी होते हैं. यदि एसपीओ कानून का उल्लंघन करते हैं, जबर्दस्ती हिंसा करते हैं तो उन्हें सजा मिलनी चाहिए. लेकिन जब एक चुनी हुई राज्य सरकार हो तो उन्हें कानून के पालन के प्रति रवैया बदलने को कहने के अलावा मैं ज्यादा कुछ नहीं कर सकता. निष्पक्षता और न्याय की जरूरत को पूरा करना राज्यों के मुख्यमंत्रियों का काम है.

आपने शांति वार्ता की जो बात की है वह उपदेशात्मक नहीं है. इसमें आपने सभी महत्वपूर्ण मसलों, जैसे भूमि अधिग्रहण, खनन, औद्यौगीकरण, वन अधिकार और स्थानीय प्रशासन को शामिल करने की बात की है. फिर भी ‘सिटीजेंस इनीशिएटिव फॉर पीस’ संगठन को लगता है कि आपको ऐसा कुछ करना चाहिए ताकि लोगों का न्याय व्यवस्था में भरोसा बहाल हो. उनका कहना है कि भले ही यह कितना ही सांकेतिक क्यों न हो आप नक्सल प्रभावित इलाकों में जनसुनवाइयां आयोजित क्यों नहीं करवाते?

यदि कोई नागरिक अधिकार संगठन या आदिवासियों के प्रतिनिधि इसे आयोजित कराते हैं तो मैं इसमें भाग लेने को तैयार हूं.

क्या मैं यह बात में ऑन रिकॉर्ड मानूं? हिमांशु कुमार का कहना है आपको माओवादियों से बात करने की तो जरूरत ही नहीं है, आप बस लोगों से सीधे बात करना शुरू कर दें, लोग अपने आप ही माओवादियों से दूर हो जाएंगे और उनका भारतीय गणतंत्र में भरोसा बहाल हो जाएगा. इन स्थानों पर गरीबी हटाने वाले कार्यक्रम तो हैं ही नहीं ऊपर से सरकार यहां अपने सबसे दमनकारी रूप में दिखती है.

मैं राज्य सरकारों से बात करूंगा. मैं वन अधिकारों, औद्योगीकरण, जमीन अधिग्रहण और विकास जैसे मुद्दों पर बातचीत में मदद  करूंगा

श्री श्री रविशंकर के कुछ अनुयायी मुझसे मिलने आए थे. यह अलग बात है कि मैं उनकी राजनीति से सहमत नहीं हूं लेकिन मैंने उनसे कहा कि यदि वे इन इलाकों में काम करना चाहते हैं और आदिवासियों को हिंसा का समर्थन छोड़ने और सरकार में भरोसा रखने के लिए  राजी करते हैं तो जहां तक होगा मैं आपकी मदद करूंगा. मैंने उनसे कहा कि मैं राज्य सरकारों से कहूंगा कि वे उनकी मदद करें और जहां भी जरूरत होगी आदिवासियों से बात करने मैं खुद भी आऊंगा. लेकिन उसके बाद उन्होंने मुझसे कभी संपर्क नहीं किया.

एक अलग संदर्भ में बात करें तो आपने कहा था कि झारखंड में राष्ट्रपति शासन होने के  कारण आप कई काम कर पाए, हालांकि वह भी नक्सल प्रभावित राज्य है. यदि छत्तीसगढ़, उड़ीसा और प. बंगाल की कमान आपको सौंप दी जाती या वहां कांग्रेस का शासन होता तो आप किस तरह के सुधारात्मक कदम उठाते?

इस मसले पर मेरी स्पष्ट राय है, पहली चीज है यह सुनिश्चित करना कि किसी तरह की हिंसा नहीं होगी. खूनखराबे के माहौल में कोई किसी की नहीं सुनता, कोई किसी पर भरोसा नहीं करता और तब कुछ नहीं किया जा सकता. हो सकता है यह संदर्भ से अलग बात हो लेकिन यह गांधी की भूमि है और उन्होंने ही कहा था कि सभ्य समाज में हिंसा का कोई स्थान नहीं होता. मैं उनकी तरह संत तो नहीं हूं लेकिन मेरा दृढ़ता से मानना है कि हमारे लोकतंत्र में हिंसा का कोई स्थान नहीं है. इसलिए हर किसी को, भारत सरकार को भी, हिंसा छोड़नी ही चाहिए. हमें इस बात पर भी एकराय होना चाहिए कि नागरिक प्रशासन, जिसमें चाहे जितनी खामियां क्यों न हों, उसे कुछ काम करने के लिए समय और मौका देना चाहिए. यही झारखंड में हुआ, सिर्फ ढाई महीनों में हमने कई उपलब्धियां हासिल की हैं. यदि आपको मुझपर यकीन नहीं तो उनसे पूछिए जो पहले शिकायत कर रहे थे. एक साल पहले तक कहा जा रहा था कि राज्य असफल हो चुका है. आज वहां जन वितरण प्रणाली महिलासमूहों के हाथ में है, लोगों को वृद्धावस्था पेंशन मिल रही है, गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों को मुफ्त राशनकार्ड वितरित किए गए हैं, कई स्कूल खोले गए हैं और इनमें शिक्षकों की नियुक्ति की गई है. जिस दिन चुनावों की घोषणा हुई मैंने सुनिश्चित किया कि 1000 स्वास्थ्यकर्मियों और डॉक्टरों की नियुक्ति हो जाए. यहां दसवीं कक्षा के छात्रों को साइकिलें दी गई हैं. वन्य अधिकार उल्लंघन के हजारों केसों को वापस लिया गया है. और यह सब इसलिए संभव हो पाया क्योंकि हमने इन इलाकों पर काफी हद तक नियंत्रण स्थापित कर लिया था. मैं नहीं जानता कि ऐसा क्यों हुआ लेकिन माओवादियों ने कभी-भी हमारे इन कामों में बाधा नहीं डाली.

सामाजिक कार्यकर्ता भी ठीक यही कह रहे हैं कि झारखंड में आपने कोई सैन्य अभियान नहीं चलाया, आपको इसकी जरूरत ही नहीं पड़ी. आपने बस जमीनी स्तर पर प्रशासन सुधारने से शुरूआत की और माओवादियों की हिम्मत नहीं पड़ी कि वे इन कामों में बाधा डालें. वे जानते हैं कि जिस काम से जनता का भला हो रहा है यदि वे उसे बिगाड़ेंगे तो जनता उनके खिलाफ हो जाएगी. तो ऐसा ही आप छत्तीसगढ़ या दूसरी जगहों पर क्यों नहीं करते?

ऐसा नहीं है कि झारखंड में माओवादियों ने हिंसा नहीं की. फ्रांसिस इंदुवर की हत्या ऐसा ही मामला है. अब उन्होंने चुनावों के बहिष्कार का ऐलान किया है. वे कहते हैं कि हम कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा को निशाना बनाएंगे और सजा देंगे. हिंसा के लिए कौन जिम्मेदार है और किसे इसे रोकना चाहिए की बहस की बजाय  माओवादी मेरी अपील को मानकर यह क्यों नहीं कहते, ‘हां, हम हिंसा को रोक देंगे और अब हमें गृहमंत्री की प्रतिक्रिया का इंतजार है.’  फिर मुझे दो-तीन दिन का वक्त दिया जाए क्योंकि मुझे केंद्र और राज्य दोनों सरकारों में शामिल लोगों से बात करनी होगी. मैं कोई तानाशाह नहीं हूं, मुझे सभी से मश्विरा करना होगा. एक बार वे हिंसा रोकने की बात कहते हैं और असल में ऐसा करते भी हैं तो यदि उनके ऐसा कहने और मेरी प्रतिक्रिया के दौरान जो कि उन्हें 72 घंटों में निश्चित ही मिल जाएगी, यदि किसी तरह की हिंसा नहीं होती तो मैं ऐसा जवाब देने की स्थिति में होऊंगा जिससे कि हिंसा हमेशा-हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी और विकास का रास्ता साफ हो जाएगा. माओवादियों से बातचीत भी की जा सकती है. लेकिन सबसे पहले उन्हें कहना होगा कि वे हिंसा रोक रहे हैं.

यह एक बड़ा बयान है. कोई भी इससे असहमत नहीं हो सकता. आपने कुछ अहम मुद्दों का जिक्र किया मसलन भूमि अधिग्रहण, वनाधिकार, स्थानीय प्रशासन, औद्योगीकरण. आखिर इनके बेहतर तरीके क्यों नहीं खोजे जाते? खासकर खनन की बात करें तो लोगों को शिकायत है कि इन इलाकों में सुरक्षा बलों के अभियानों का मुख्य मकसद संसाधनों से समृद्ध जमीन पर कब्जा करना है. टाटा और एस्सार जसी कंपनियों ने सरकारों के साथ सहमति पत्रों (एमओयू) पर हस्ताक्षर किए हैं. आपको लगता है कि सलवा जुडम या सरकार की यहां पर नियंत्रण स्थापित करने की जल्दबाजी इन्हीं सहमति पत्रों का नतीजा है?

मुझे लगता है कि आप उस डरावनी योजना को देख रही हैं जिसका असल में कोई अस्तित्व ही नहीं है. सहमति पत्र अलग-अलग समय पर अलग-अलग सरकारों के कार्यकालों के दौरान बने हैं, माओवादी हिंसा के इस हद तक पहुंचने से काफी पहले. फिर भी मैं प्रधानमंत्री से यह दरख्वास्त करने के लिए तैयार हूं कि सभी सहमति पत्रों पर रोक लगा दी जाए और झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और दक्षिण बिहार में जिन सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर हुए हैं उन सबकी व्यापक समीक्षा करने के बाद ही यह फैसला लिया जाए कि कौन-से सहमति पत्रों पर अमल होना चाहिए – सुधार या बिना सुधार के साथ.

यह बात आप ऑन रिकार्ड कह रहे हैं.

हां, ऐसा ही है. मगर मुझे नहीं लगता कि मुख्य मुद्दा यह है. असल मसला यह है कि माओवादियों की विचारधारा में संसदीय व्यवस्था एक सड़ चुकी व्यवस्था है. वे मानते हैं कि सशस्त्र क्रांति ही संसद को खत्म करने और लोगों की तानाशाही स्थापित करने का एकमात्र विकल्प है. यह एक मूलभूत विचारधारा वाला नजरिया है. ऐसे में कौन उनसे बहस करे और बताए कि आप गलत हैं? अगर कोई इस तरह का रुख रखता है तो मैं इसमें कुछ नहीं कर सकता लेकिन..

(बात को काटते हुए) मैं माओवादियों को किनारे रखते हुए फिर से भारत सरकार पर ध्यान केंद्रित करना चाहती हूं.

लेकिन अगर वे इस तरह का नजरिया भी रखते हैं और हिंसा का रास्ता छोड़कर सरकार से उन मुद्दों पर बात करना चाहते हैं जिनकी उन्हें चिंता है, तो भी मैं इसके लिए तैयार हूं. मैं राज्य सरकारों से बात करूंगा. मैं वन अधिकारों, औद्योगीकरण, जमीन अधिग्रहण और विकास जैसे मुद्दों पर बातचीत में मदद करूंगा. मगर अब तक मेरी पेशकश पर माओवादियों की प्रतिक्रिया यही रही है कि उनसे हिंसा बंद करने को कहना अतार्किक, बेतुका और उन लोगों को धोखा देने जैसा है जिनके लिए वे लड़ रहे हैं! दो दिन पहले ही उन्होंने बंगाल में चार पुलिसकर्मियों की हत्या कर दी. ये पुलिसकर्मी तो गश्ती दल का हिस्सा भी नहीं थे! सवाल यह है कि माओवादियों को जज, कानूनवेत्ता और जल्लाद बनने का अधिकार किसने दिया?

मैं फिर से वही सवाल करती हूं. यह व्याख्या करने का अधिकार माओवादियों को क्यों हो कि निष्पक्ष, न्यायपूर्ण और जनकल्याणकारी तरीके क्या होने चाहिए? भारत में खनन एक विवादित मुद्दा है. आप इस बारे में क्या सोचते हैं? आप तो ऐसा मानने वालों में से हैं कि खनन और विकास का आपस में अभिन्न रिश्ता है.

हां, मैं ऐसा मानता हूं. कोई भी देश अपने प्राकृतिक और मानव संसाधनों के बगैर विकास नहीं कर सकता. खनिज संपदा का दोहन करके उसे लोगों के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए. और ऐसा क्यों न हो? क्या वे किसी म्यूजियम की शोभा बढ़ाने के लिए हैं? हम इस तथ्य का आदर करते हैं कि आदिवासी नियमगिरी पहाड़ी की पूजा करते हैं. मगर मुझे बताइए कि क्या इससे उनके बच्चे स्कूल में पढ़ सकेंगे या फिर उनके पैरों को जूते मिल जाएंगे? क्या इससे उनकी कुपोषण की समस्या हल हो जाएगी और स्वास्थ्य सुविधाओं तक उनकी पहुंच बढ़ जाएगी? खनन पर सदियों से विवाद चलता रहा है. इसमें कोई नई बात नहीं है.

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