दुविधाग्रस्त बचपन से लेकर असल पहचान पाने और अपने जैसे तमाम लोगों के प्रेरणा स्रोत बनने तक देश के पहले घोषित शाही समलैंगिक मानवेंद्र सिंह गोहिल एक मुश्किल और लंबे सफर के राही रहे हैं, बता रही हैं मंजुला नारायण
खुद को सार्वजनिक रूप से समलैंगिक घोषित करने वाले किसी भारतीय शाही खानदान के पहले सदस्य से मिलने की उत्सुकता लिए मैं मुंबई के मलाड स्थित उस फ्लैट की घंटी बजाती हूं. दरवाजा खुलता है और 44 साल के मानवेंद्र सिंह प्रकट होते हैं. ऊंचा कद, चूड़ीदार सूट, कानों में हीरे के कुंडल और लंबा तिलक.. राजपीपला घराने के इस राजकुमार को देखकर एक पल के लिए मैं जैसे ब्रिटिश राज के दिनों में पहुंच जाती हूं. उनका अभिवादन किस तरह से किया जाए इस असमंजस में कुछ सोच ही रही होती हूं कि वे हाथ पकड़कर मुझे घर के भीतर ले जाते हैं और इस दुविधा को खत्म कर देते हैं.
‘वह जिंदगी को नया मोड़ देने वाला अनुभव था. मुझे अहसास हुआ कि मुझमें कुछ तो गड़बड़ है. लगा कि मुझे खुद के बारे में जानने की जरूरत है.’
ये मानवेंद्र सिंह की अपनी दुनिया है जहां वे अपने हमराही प्रज्वल मिस्किन के साथ रहते हैं. 27 साल के प्रज्वल एक फार्मा कंपनी में काम करते हैं. उनका व्यक्तित्व खासा आकर्षक है और कहा जा सकता है कि अगर उनका झुकाव इस तरह का नहीं होता तो कोई भी लड़की उन पर आसानी से फिदा हो सकती थी. दीवारों पर नजर दौड़ाने पर मुझे अगल-अलग मुद्राओं में पुरुषों की निरावृत तस्वीरें नजर आती हैं. मानवेंद्र कहते हैं, ‘ये घर में आने वाले लोगों को इस बात के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए हैं कि ये एक समलैंगिक का घर है. जब डिलीवरी ब्वॉयज घंटी बजाते हैं तो हम उन्हें जान-बूझकर भीतर आने देते हैं ताकि वे ये सब देख सकें.’
मानवेंद्र बताते हैं कि जब वे छोटे थे तो उन्हें ये बताने के लिए कोई नहीं था कि वे औरों से कुछ अलग हैं. वे बताते हैं, ‘मैं 12 साल का था जब मुझे अहसास हुआ कि बांबे स्कॉटिश स्कूल के दूसरे लड़कों की तरह मैं लड़कियों की तरफ आकर्षित नहीं होता था. इसकी बजाय मेरा आकर्षण अपने शिक्षकों और दोस्तों के प्रति था.’ मगर बचपन में मानवेंद्र की भावनाएं समझने वाला कोई नहीं था. वे कहते हैं, ‘राजसी परिवारों में माता-पिता के साथ हमारे रिश्ते बेहद औपचारिक ही होते हैं. हमें उनसे नजरें मिलाने की इजाजत नहीं होती. वे मुझे महाराजकुमार कहकर बुलाते थे और मैं उन्हें महाराज कहकर.’
मानवेंद्र बताते हैं कि नौ साल तक वे अपनी आया को ही अपनी मां समझते थे. चूंकि वे शाही घराने के उत्तराधिकारी थे इसलिए सुरक्षा के लिए उनके चारों तरफ नौकरों का जमावड़ा लगा रहता था. वे कहते हैं, ‘इसका नतीजा ये हुआ कि स्कूल के दौरान मेरा कोई दोस्त ही नहीं था. कोई ऐसा नहीं था जिस पर मैं भरोसा कर सकूं.’ काफी समय तक मानवेंद्र को समझ में ही नहीं आता था कि ऐसा क्यों है. वे बताते हैं, ‘मैं ये सोचते हुए बड़ा हुआ कि समलैंगिक झुकाव वाला मैं दुनिया का अकेला इंसान हूं. मुझे ये भी लगता था कि समय के साथ सब ठीक हो जाएगा.’
यही सोचकर उन्होंने झाबुआ की राजकुमारी चंद्रिका के साथ विवाह के लिए हामी भर दी. उन्हें लगा कि शादी के बाद उनका ये झुकाव खत्म हो जाएगा. पत्नी के साथ उनकी जमी तो मगर ऐसी नहीं कि इस शादी को पूर्ण कहा जा सकता. नतीजतन 15 महीने के बाद ही दोनों अलग हो गए. मानवेंद्र कहते हैं, ‘वह जिंदगी को नया मोड़ देने वाला अनुभव था. मुझे अहसास हुआ कि मुझमें कुछ तो गड़बड़ है. लगा कि मुझे खुद के बारे में जानने की जरूरत है.’
इसके बाद मानवेंद्र ने समलैंगिकों के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे अशोक राव कवि से संपर्क किया. 1995 में वे समलैंगिक पुरुषों के लिए काम करने वाले देश के पहले संगठन हमसफर ट्रस्ट से जुड़ गए. राव कवि के प्रोत्साहन से उन्होंने लक्ष्य की स्थापना की. वडोदरा, अहमदाबाद और राजकोट में समलैंगिकों के लिए काम करने वाले इस संगठन में आज 120 डॉक्टर, काउंसलर और लैब टेक्नीशियन हैं.
मानवेंद्र अब तक खुद को समझ चुके थे इसलिए उन्होंने अपनी पहचान को सार्वजनिक करने का फैसला किया. जैसा कि वे बताते हैं, ‘जब मैंने 2006 में खुद को समलैंगिक घोषित किया तो समलैंगिकता को तो छोड़िए ज्यादातर लोगों को एचआईवी/एड्स के बारे में भी ज्यादा जानकारी नहीं थी. मुझे भरोसा था कि मेरे ऐसा करने से लोगों का ध्यान इन मुद्दों की तरफ भी जाएगा.’ मगर इसकी प्रतिक्रिया में जो हुआ उसकी मानवेंद्र ने कल्पना भी नहीं की थी. राजपूत समुदाय के लोगों ने उनकी तस्वीरें और पुतले जलाए. उनके माता-पिता ने उन्हें जायदाद से बेदखल करने की धमकी दी और विश्व हिंदू परिषद की राज्य इकाई ने चेतावनी दी कि इसके परिणाम अच्छे नहीं होंगे.
लेकिन मानवेंद्र सिंह सच्चे योद्धा की तरह डटे रहे. जायदाद से बेदखल करने की प्रतिक्रिया में तो वे शांत रहे मगर कट्टरपंथियों को उन्होंने एक ही वार में चित कर दिया. उन्होंने धमकी दी कि वे विहिप के ऐसे सदस्यों को बेनकाब कर देंगे जो दबे-ढके तौर पर समलैंगिक हैं. हंसते हुए मानवेंद्र कहते हैं, ‘बात वहीं खत्म हो गई.’ वे आगे जोड़ते हैं कि खासकर हिंदू धर्म में समलैंगिक संस्कृति को काफी पहले ही स्वीकार किया जा चुका है. जैसा कि वे कहते हैं, ‘हमारे कई प्राचीन मंदिरों जैसे कि खजुराहो, दहोद और मोधरा में समलैंगिकता को दर्शाती मूर्तियां हैं. अहमदाबाद के पास बहुचाराजी देवी का मंदिर है जो समलैंगिकों की देवी हैं और ढाई हजार साल पुराने कामसूत्र में समलैंगिकों के लिए विभिन्न स्थितियों का वर्णन मिलता है. जो लोग समलैंगिकता को पश्चिम से आयातित संस्कृति बताते रहते हैं उन्हें पता ही नहीं कि वे क्या कह रहे हैं.’
उधर, राजपीपला में लोगों को शुरू में ये जानकर झटका लगा मगर फिर वे अपने महाराजकुमार के साथ हो गए. बुजुर्गों ने उनकी ईमानदारी के लिए उन्हें सराहा और कई कॉलेजों के प्रधानाचार्यों ने उन्हें अपने यहां सेक्शुएलिटी पर भाषण देने के लिए आमंत्रित किया. मानवेंद्र दुनिया भर में चर्चित नाम हो गए. वे ऑपरा विनफ्रे के मशहूर शो में मेहमान के तौर पर नजर आए और अब उनके माता-पिता को भी उनसे कोई शिकायत नहीं है.
आज मानवेंद्र की जिंदगी सरपट रफ्तार से भाग रही है. हाल ही में उन्होंने एक ब्रिटिश रियलिटी टीवी शो में हिस्सा लिया. वे एड्स पीड़ितों और समलैंगिकों के लिए एक वृद्धाश्रम बनाने और देश में समलैंगिक पर्यटन को बढ़ावा देने की योजना पर भी काम कर रहे हैं. मानवेंद्र हारमोनियम बजाना भी सीख रहे हैं और साथ ही राजपीपला के किसानों को जैविक खाद का इस्तेमाल करने के लिए भी प्रोत्साहन दे रहे हैं. और मिस्किन तो उनके साथ हैं ही.
विदा लेने से पहले आप ये पूछने से खुद को नहीं रोक पाते कि समलैंगिकों की प्रेम कहानी एक सामान्य प्रेम कहानी से किस तरह अलग होती है. मानवेंद्र जवाब देते हैं, ‘हमारे भीतर भी उसी तरह की रूमानी भावनाएं होती हैं. फर्क सिर्फ यही होता है कि ज्यादातर मामलों में पति और पत्नी की भूमिका स्पष्ट नहीं होती.’