वो पोस्टरों से गायब थे, लंबे समय से उन्होंने लोगों के सामने वाइब्रैंट गुजरात की हुंकार नहीं भरी थी, न ही मंदिरों के नगर अंबाजी में आने वाले श्रद्धालुओं को ही स्वागत करते उनके आदमकद पोस्टर दिख रहे थे. विधानसभा सत्र में भी वो बिल्कुल शांत नजर आए. ऐसा लगता था मानो उनकी पकड़ ढीली पड रही है – डॉक्टर हड़ताल पर चले गए थे, जहरीली शराब का विवाद उठ खड़ा हुआ था, पार्टी स्थानीय निकाय के चुनाव हार गई, अमूल सहकारी संघ से भी उनका कब्जा जाता रहा.
मोदी का जादू फैलाने में गुजरात कांग्रेस की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. वो खुद को मोदी की बी टीम के रूप में देखकर ही खुश है
शिमला में जब उनकी पार्टी उथल-पुथल से बेहाल थी तो वे मॉल में घूम रहे थे. आम चुनावों में प्रधानमंत्री पद की दावेदारी का जुमला उछाल कर पार्टी और आडवाणी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को धक्का पहुंचाने वाले मोदी किसी आम क्षेत्रीय नेता जैसा व्यवहार कर रहे थे. मीडिया और विपक्षी कांग्रेस से लेकर उनके समर्थक तक उनकी हताशा को लेकर खुसर-फुसर करने लगे थे. ये तब और मुखर हो गई जब उन्होंने विधानसभा के उपचुनावों में पार्टी के प्रचार से दूर रहने की घोषणा की. ऐसा लगा कि उनकी किस्मत अब ढलान की ओर है. सुप्रीम कोर्ट ने भी 2002 के दंगों में उनकी भूमिका की जांच के लिए एसआईटी को आदेश दे दिया था और गुजरात हाई कोर्ट ने जसवंत सिंह की पुस्तक से प्रतिबंध हटा दिया था. मगर तभी विधानसभा के उप चुनावों में उनकी पार्टी सात में से पांच सीटें जीत गई. उन्होंने इसका श्रेय कार्यकर्ताओं को देने में कोई देरी नहीं लगाई. कहा गया कि मोदी वापस आ गए हैं. पर वो गए कहां थे?
बीते कुछ महीने जवाबदेही के थे. जब उनके सहयोगी उनको लेकर बड़बोलापन दिखा रहे थे तो उन्होंने रणनीतिक चुप्पी साध रखी थी. हालांकि गुजरात पर उनकी पकड़ पर किसी को शंका नहीं थी. बल्कि लोकसभा चुनाव में उन्होंने एक सीट बढ़ाने के साथ अपने धुर विरोधी शंकर सिंह वघेला को भी मात दी थी. सवाल राष्ट्रीय राजनीति में उनके प्रभाव को लेकर उठ रहे थे. इन सब पर चुप्पी साध कर उन्होंने न केवल भाजपा के अंदर छीज रही अपनी प्रतिष्ठा को बचाया बल्कि कुछ ऐसा भी किया जिससे उन्हें जबर्दस्त फायदा हुआ. उन्होंने बिना देरी किए जसवंत सिंह की किताब पर प्रतिबंध लगा दिया और वजह जिन्ना नहीं बल्कि सरदार पटेल के ऊपर की गई टिप्पणी को बताया गया. पटेल ही वो राष्ट्रीय नेता हैं जिन्हें भाजपा अपना मानने का दावा करती है, पर उनकी खूबियों के लिए कम और एक ऐसे व्यक्ति के रूप ज्यादा जिसके साथ नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने बहुत अन्याय किया था. वो एक ऐसे प्रतीक हैं जिनसे मोदी अपनी भी तुलना करते हैं – एक ऐसा नेता जो अपनी सियासत और जनता के प्रति समर्पित रहा लेकिन जिसे कांग्रेस और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ताकतों द्वारा बदनाम किया जाता रहा. जसवंत सिंह की किताब पर प्रतिबंध इसी प्रतीकात्मक राजनीति की उपज था. मोदी पटेल की विरासत और गुजरात की अस्मिता के संरक्षक के रूप में उभरे. गुजरात कांग्रेस ने भी उनकी नकल की. एक केंद्रीय मंत्री ने भी पुस्तक पर प्रतिबंध की वकालत की. जब तक ये ठीक किया जाता, नुकसान हो चुका था. हर बहस में भाजपा द्वारा गुजराती अस्मिता के सवाल और कांग्रेसी मंत्री के बयान को खूब उछाला गया. प्रतिबंध भले हटा हो लेकिन मकसद तो पूरा हो ही गया था.
मोदी का जादू फैलाने में गुजरात कांग्रेस की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. वो खुद को मोदी की बी टीम के रूप में देखकर ही खुश है. 2007 के चुनाव में इसने भाजपा के असंतुष्टों के इर्द-गिर्द अपनी रणनीति बुनी थी, जिससे पार्टी के समर्पित कार्यकर्ताओं और मतदाताओं को काफी निराशा हुई. असहिष्णुता के मामले में – चाहे वो पुस्तक पर प्रतिबंध का मामला हो या फिर फिल्म पर – तो ये मोदी से स्पर्धा करती नजर आई. इससे उस नागरिक समाज का कांग्रेस से मोहभंग हुआ जो असहिष्णुता का विरोधी है. गुजरात में प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी समाजिक संगठनो ने उठा रखी है. ये संगठन कानूनी लड़ाइयां तो लड़ सकते हैं लेकिन राजनैतिक जिम्मेदारी के लिए तो राजनीतिक पार्टी को ही आगे आना होगा. 2002 के दंगों के पीड़ितों के न्याय की लड़ाई में कांग्रेस मूक दर्शक ही बनी रही और उसकी राजनीतिक अक्षमता इशरत जहां के मामले में भी उजागर हुई.
देखा जाए तो विधानसभा के उपचुनाव नरेंद्र मोदी की भाजपा का नहीं बल्कि कांग्रेस का इम्तिहान थे. जो सात सीटें दांव पर लगी थी उनमें से छह पर उसका कब्जा था.इस बीच मोदी को एक बार फिर से राष्ट्रीय राजनीति की महत्वाकांक्षाओं को साकार करने का अवसर हाथ लग चुका है. 14 सितंबर को मोदी आम सहमति से गुजरात क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष चुन लिए गए. अब मोदी का नया नारा है –‘क्रिकेट, सामाजिक परिवर्तन के लिए!’. मोदी आईपीएल की नई टीम के माध्यम से एक बार फिर से ‘गुजरात का गौरव’ पुनर्स्थापित करने वाले हैं और ‘‘वाइब्रैंट गुजरात’’ से बढ़िया इस टीम का और बला क्या नाम हो सकता है.
त्रिदिप सुहृद