यूं रंगमंच की राह चला मैं

सिनेमा की तरह थियेटर के प्रति भी मेरा लगाव जिस माहौल में पनपा वो ऐसा था जिसे इस तरह की चीजों के लिए जरा भी माकूल नहीं कहा जा सकता. पेशे से प्रशासनिक अधिकारी मेरे वालिद बेहद कड़कमिजाज थे. वो चाहते थे कि मैं डॉक्टर बनूं और इज्जत कमाऊं. लेकिन मुझे एक्टिंग पसंद थी जो उनकी नजर में घटिया दर्जे का काम था. यही वजह थी कि मुझे शुरू से ही बर्बाद करार दे दिया गया था. उन्हें मैं एक ऐसा लड़का लगता था जो किसी काम का नहीं था.

अलीगढ़ जैसे शहर में चेयर्स जैसे नाटक का मंचन या तो बहादुरी की सबसे बड़ी मिसाल कहा जा सकता है या फिर बेवकूफी की. मेरी कोशिश इन दोनों के कहीं बीच की रहीऐसा कई सालों तक चलता रहा. मैं किसी भी हालत में एक्टिंग के जरिये मशहूर होने के अपने ख्वाब को छोड़ने के लिए तैयार नहीं था. नतीजा घर में खूब लड़ाई होती. गुस्सा, लानत, बेइज्जती..हर तरह के हथियार से काम लिया जाता. मगर क्या मजाल कि मैं टस से मस हो जाऊं. लगता था जैसे मुझ पर कोई साया हो.

मैंने कम उम्र में ही घर छोड़ दिया था. इसके बाद कई साल तक मेरे वालिद से मेरी बात नहीं हुई. फिर मेरी पहली फिल्म निशांत आई. उन्होंने भी ये देखी और उन्हें ये अच्छी लगी. मगर हमारा रिश्ता पूरी तरह से पटरी पर आता उससे पहले ही वो गुजर गए. उनका जाना मेरी जिंदगी में एक ऐसा खालीपन छोड़ गया जो आज तक नहीं भर पाया है. उनकी मौत के बाद मैंने उनके एक जोड़ी जूते अपने पास रख लिए थे, स्टैंडर्ड बाटा नॉटी ब्वॉय शूज जिनकी उम्र अब कम से कम पचास साल हो चुकी होगी. कभी-कभी मैं इन्हें अपने नाटकों के दौरान पहन लेता हूं और सोचता हूं कि क्या वो मुझे कहीं से देख रहे होंगे. थियेटर से लगाव का बीज मुझमें सेंट जोजेफ के दौरान पड़ा जो नैनीताल में मेरा बोर्डिंग स्कूल था. वहां पर नाटक, ऑपरा वगैरह होते रहते थे. वैसे तो ये स्कूल था मगर यहां पर नाटकों का मंचन बड़े ही भव्य स्तर पर किया जाता था. हालांकि मुझे वहां कभी भी मंच पर आने का मौका नहीं दिया गया. मैं पढ़ने-लिखने में भी होशियार नहीं था और इसका मतलब था हर चीज में पीछे रहने का दर्द ङोलना. मैं खामोशी से इस दर्द को सहता रहा.

फिर भी नाटकों का जादू मेरे सर चढ़कर बोला करता था. स्कूल में हमें बहुत सी बढ़िया फिल्में देखने को भी मिलीं. और कहा जाए तो मेरी असली शिक्षा बुनियादी रूप से यही फिल्में और नाटक रहे. मेरी जिंदगी के सांचे को इन्होंने ही ढाला. साल में एक बार ज्योफरी केंडल का ब्रिटिश थियेटर ग्रुप शेक्सपियराना भी वहां आता था. मैंने अपनी जिंदगी में केंडल से महान अभिनेता और इंसान नहीं देखा. उनका काम मुझे अब भी राह दिखाता है. थियेटर के काम को उन्होंने नए मायने दिए. वो हमेशा कहा करते थे, ‘मैं कोई एक्टर या डायरेक्टर नहीं हूं, मैं एक मिशनरी हूं और मेरा मिशन है शेक्सपियर के काम को फैलाना.’

रिहर्सल के लिए जुगाड़ टेक्नॉलॉजी से काम चलाना पड़ता था. ये डबल डेकर बस के ऊपरी फ्लोर पर होती थी या फिर दोपहर के वक्त लोकल ट्रेन में जब वे खाली चलती थीं

केंडल के मंचन का एक पहलू मुझे हमेशा बड़ा चकित करता था. हमारे स्कूल में जो नाटक होते थे उनमें जंगल, नदी, ड्राइंग रूम जसी चीजों को दिखाने के लिए गत्ते से बने सेट्स इस्तेमाल होते थे. मगर केंडल के नाटकों में ऐसा कोई सेट नहीं होता था. बल्कि उनके नाटकों के दौरान मंच की पृष्ठभूमि काली होती थी और वे एक कुर्सी और हैट जैसी कम से कम चीजों के साथ मंच पर प्रकट होते थे. मुझे इसकी वजह समझने में कई साल या कहिए कि दशक लग गए. और जब मैं इसे समझा तो मुझे इस बात की खुशी हुई कि सौंदर्यबोध की अपनी यात्रा में मैं खुद ही उस नतीजे पर पहुंच गया हूं जिस पर कभी केंडल भी पहुंचे होंगे.

स्कूल के बाद घरवालों के दबाव में मैं अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी गया. यहां फिर से मुझे कुछ ऐसे लोग मिले जिन्होंने मुझे निराशा से उबारा और जिनका मैं जिंदगी भर शुक्रगुजार रहूंगा. ये थे बेकेट, चेखव, शॉ और खासकर एक जाहिदा जदी जिन्होंने मुझे न सिर्फ वेटिंग फॉर गोडॉट और चेयर्स जैसे नाटक पढ़वाए (जिनका मुझे न सर समझ में आता था न पैर) बल्कि जो इस पर भी अड़ी रहीं कि मैं मंच पर उनका हिस्सा भी बनूं. अलीगढ़ जैसे शहर में चेयर्स जैसे नाटक का मंचन या तो बहादुरी की सबसे बड़ी मिसाल कहा जा सकता है या फिर बेवकूफी की. मेरी कोशिश इन दोनों के कहीं बीच की रही.

अलीगढ़ के बाद अगला पड़ाव था नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा यानी एनएसडी. यहां इब्राहीम अलकाजी की शानदार मंच प्रस्तुतियां थीं जिनकी भव्यता सम्मोहित करने वाली थी. बारीकी उनके काम की खासियत थी और नाटक के हर पहलू से जुड़ी छोटी से छोटी चीज पर भी बेहद ध्यान दिया जाता था फिर चाहे वो किसी चरित्र के जूते हों या पृष्ठभूमि में किसी पेड़ की पत्तियों का रंग.

एनएसडी के बाद बारी थी पुणे के एफटीआईआई की. यहां आने के बाद पांच साल तक मैं थियेटर से कटा रहा. फिर एक दिन बेंजामिन गिलानी और मैं जुनून  के सेट पर बैठे बातें कर रहे थे कि अचानक बेंजामिन बोले, ‘मैं तुम्हारे साथ एक नाटक करना चाहता हूं. चलो एक कोशिश करते हैं.’ बेंजामिन भी एफटीआईआई से ही निकले थे और मेरी और उनकी पहली मुलाकात के वक्त से ही जमने लगी थी. हमारे शौक भी मिलते-जुलते थे मगर हमारा स्वभाव बिल्कुल जुदा था. शायद यही वजह है कि तीन दशक बाद आज भी हम अच्छे दोस्त हैं.

ग्रोतोवस्की का कहना था कि थियेटर का मतलब ज्यादा ताम-झाम नहीं हैं. दो लोग मिलें और बात करने लगें तो इसी को थियेटर कहा जा सकता है

बेंजामिन की राय थी कि हमें वेटिंग फॉर गोडॉट करना चाहिए. मैं अपनी कुर्सी से लगभग उछलता हुआ बोला, ‘अरे नहीं! मुझे तो इसका एक भी शब्द समझ में नहीं आता.’ मगर बेंजामिन अपनी जिद पर अड़े रहे और हम आगे बढ़ चले. हम यानी टॉम ऑल्टर, बेंजामिन, एफटीआईआई में हमारे प्रोफेसर तनेजा और मैं. हमने एक साल तक इसकी तैयारी की. इसमें पढ़ना और रिहर्सल जैसी चीजें शामिल थीं. हौसला कायम रखने के लिए हमने इसके कुछ दूसरे मंचन भी देखे. इनमें से एक गुजराती में भी था जिसे देखकर हमारा आत्मविश्वास बढ़ा. गोडॉट और वो भी गुजराती में, यानी इस तरह की चीजें भी मुमकिन थीं.

तो इस तरह तीस साल पहले 29 जुलाई 1979 को हमने गोडॉट का पहला शो किया. ये बुरी तरह फ्लाप रहा. इसके बाद हमने इसे इसके हाल पर छोड़ दिया. छह महीने बाद हमने एक बार फिर इसके बारे में सोचा. उन दिनों ओमपुरी का मजमा के नाम से अपना एक ग्रुप था. हमने उनसे कहा कि वे हमारे प्रायोजक बन जाएं. आखिर एक साल बाद हमें बांबे के सोफिया कालेज से इस नाटक के प्रदर्शन का निमंत्रण मिला. हमें दो हजार छात्रों की भीड़ के सामने दो शो करने थे. दर्शकों की प्रतिक्रिया शानदार रही. पहली बार हमें लगा कि हम कुछ अच्छा कर रहे हैं. मंचन में हमने मुश्किल से 1000 रुपए खर्च किए होंगे. इस तरह से इन प्रदर्शनों से जो भी पैसा मिला वह हमारा शुद्ध लाभ था. इस सफलता के बाद हमारा अपना ग्रुप वजूद में आया. बेंजामिन ने इसका नाम रखा मॉटली वक्त के साथ प्रोफेसर तनेजा और टॉम की राह अलग हो गई और रत्ना (पाठक शाह), बेंजामिन, आकर्ष खुराना और मैं मॉटली प्रोडक्शंस के अहम सदस्य बन गए.

आज मॉटली विदेश में शो करता है और कभी-कभी तो हमें एक शो के 15 हजार डॉलर तक मिल जाते हैं. मगर जब तीस साल पहले हमने अपने सफर की शुरुआत की थी तो हालात ऐसे नहीं थे. एनसीपीए के पास 50 दर्शकों की क्षमता वाला एक छोटा सा थियेटर था जिसमें सिर्फ हिंदी के नाटक होते थे. इसके अलावा दादर के छबील दास हाईस्कूल के पास एक छोटा सा ऑडिटोरियम था जिसे वो किराए पर देता था. बांबे का सारा प्रयोगवादी थियेटर, चाहे वो मराठी हो, गुजराती या हिंदी, यहीं पैदा हुआ. यहीं पर अरविंद और सुलभा देशपांडे ने आविष्कार की शुरुआत की और यहीं से नाना पाटेकर और रोहिणी हटंगड़ी जैसे कलाकार भी निकले. यही वो जगह थी जहां उन दिनों हम 10-12 दर्शकों के सामने शो करते थे. रिहर्सल के लिए जुगाड़ टेक्नॉलॉजी से काम चलाना पड़ता था. ये डबल डेकर बस के ऊपरी फ्लोर पर होती थी या फिर दोपहर के वक्त लोकल ट्रेन में जब वे खाली चलती थीं. रिहर्सल की जगह पर एक हैट उल्टा करके रखा होता था और किसी दुर्लभ दिन कोई उसमें 100 रुपये का नोट डाल देता था. हालांकि ज्यादातर दिन इसके नसीब में एक, पांच या फिर ज्यादा से ज्यादा दस रुपये के नोट होते थे.

तो वो भी दिन थे. और आज ये दिन हैं कि मॉटली में शामिल होने की चाह में नौजवान एक मील लंबी लाइन लगा देते हैं. मैं उन सब से कहता हूं कि जाइए और अपने बूते कुछ करिए. हर एक में कुछ न कुछ खास होता है और इंसान उसे तभी पा सकता है जब वो अपने मकसद के जुनून और उसके रास्ते में आने वाली मुश्किलों से दोचार हो. मॉटली में हमने शुरुआत से ही ये फैसला कर लिया था कि हम कलाकारों की संख्या कम से कम रखेंगे. इसकी वजह सिर्फ यही नहीं थी कि ज्यादा कलाकारों को ज्यादा पैसा देना पड़ता बल्कि ये भी थी कि ज्यादा कलाकारों को एक साथ रखने में बड़ी मुश्किलें होती थीं. अक्सर कोई बीमार हो जाता या किसी को कोई बहुत जरूरी काम पड़ जाता. हमारे नाटक भी छोटे-छोटे होते थे जिनमें ज्यादा ताम-झाम नहीं होता था. ताम-झाम के लिए पैसे की जरूरत होती थी और हम कोई ब्रॉडवे तो थे नहीं.

मगर एक दिन मेरे भीतर छिपा हुआ इब्राहिम अलकाजी का सपना बाहर निकल आया और मैंने जूलियस सीजर करने का फैसला किया. ये 1992 की बात है. विक्रम कपाड़िया इसके सहनिर्देशक थे. हमारे पास 70 कलाकारों की कास्ट थी. इसमें केके मेनन भी थे जो भीड़ में खड़े एक्स्ट्राज में से एक थे. हमने इसमें काफी पैसा खर्च किया मगर कोई इसे देखने नहीं आया. इस नाटक ने हमारी जेब की हालत खस्ता कर दी. मुझे लगा था कि जूलियस सीजर तो हर स्कूल में पढ़ाया जाता है और कम से कम छात्र तो इसे देखने के लिए उमड़ेंगे ही. मगर आए तो सिर्फ कुछ टीचर्स और वो भी दूसरे दिन. और वो भी इस बात से बेहद नाराज हुए कि हमने नाटक में बदलाव कर दिया था. हमारी खूब हूटिंग हुई.

जूलियस सीजर के सदमे से उबरने के बाद हमने डियर लायर नाम का एक नाटक किया. इसमें सिर्फ दो कलाकार थे. आज 20 साल बाद भी इसका मंचन हो रहा है. गोडॉट को चलते हुए 30 साल हो गए हैं और इस्मत आपा के नाम को 10. धीरे-धीरे हम अपने मुकाम तक पहुंच गए हैं. मुख्यधारा के सिनेमा से ऊबकर मैं 1981 में अपनी गाढ़ी कमाई के 35 हजार रुपये खर्च कर पोलैंड चला गया था ताकि थियेटर जगत के दिग्गज जेर्जी ग्रोतोवस्की के साथ काम कर सकूं. उनकी किताब टुवर्ड्स अ पुअर थियेटर पढ़कर मैं उनका मुरीद हो गया था और आज भी मुझे लगता है कि थियेटर पर मैंने जितनी भी किताबें पढ़ी हैं उनमें से ये सबसे ज्यादा गहराई से इस दुनिया के बारे में कहती है. हालांकि उनसे मेरी मुलाकात थोड़ी निराशाजनक रही मगर इसने मुझे खोज की एक अहम राह पर धकेल दिया.

ग्रोतोवस्की ब्रॉडवे के बहुत बड़े आलोचक थे. उनका सवाल था कि जब विशेष प्रभाव पैदा करने के मामले में थियेटर कभी भी सिनेमा की बराबरी नहीं कर सकता तो फिर ये इस मामले में सिनेमा से मुकाबला करने पर क्यों आमादा है? वो कहते थे कि आदमी को अपनी बात दूसरों तक पहुंचाने की जरूरत होती है और इसी जरूरत से थियेटर का जन्म हुआ है इसलिए अपनी बात पहुंचाने के लिए हमें मंच पर बड़े-बड़े किले, हेलीकॉप्टर आदि जैसी भव्यताओं की जरूरत नहीं होनी चाहिए. ग्रोतोवस्की का तर्क था कि थियेटर का असली जादू दर्शक की कल्पना को जगाने में है इसलिए संसाधनों की कमी हमारी कमजोरी नहीं ताकत होनी चाहिए. उनके मुताबिक अगर आप हर ऊपरी चीज को हटा दें – सेट्स, लाइट्स, कॉस्ट्यूम्स – तो आपको बस साधारण कपड़े पहने एक अभिनेता की जरूरत है जो मेहनत करने के लिए तैयार हो और बस हो गया थियेटर तैयार. ग्रोतोवस्की का कहना था कि थियेटर का मतलब ज्यादा ताम-झाम नहीं हैं. दो लोग मिलें और बात करने लगें तो इसी को थियेटर कहा जा सकता है. बाद में वो अपने इस तर्क को इतना आगे ले गए कि उन्होंने इसमें से संवाद की जरूरत को भी हटा दिया.

मगर मुझे ये सब चीजें धीरे-धीरे ही समझ में आईं. ग्रोतोवस्की की वजह से ही मैं केंडल के थियेटर के उस अंदाज को समझ पाया जो कभी मैंने सालों पहले अपने स्कूली दिनों में देखा था. केंडल भी अपने सेट पर ज्यादा ताम-झाम नहीं रखते थे और इसके बावजूद मैंने अपनी जिंदगी में उससे ज्यादा जादुई थियेटर नहीं देखा. इसलिए जब हमने अपना थियेटर ग्रुप बनाया तो हमने किस्सागोई की उस कला पर ज्यादा जोर रखा जो हमेशा से हमारे समाज में रही है. मॉटली प्रोडक्शंस में हमारी कोशिश ये रहती है कि हम दर्शकों की कल्पना को जगाएं. इस्मत चुगताई, मंटो और मोहन राकेश की कहानियों पर आधारित श्रंखला और हाल ही में दास्तानगोई के जरिए हम यही कर रहे हैं.

दास्तानगोई का हिस्सा बनने के बाद मुझे लगता है जैसे मैंने अपना घर पा लिया है. कला के नजरिये से देखा जाए तो इससे बड़ी चुनौती कोई नहीं और अब मैं बाकी की जिंदगी यही करना चाहता हूं. महमूद फारुकी ने सिनेमा की वजह से खत्म हो चुकी इस महान कला को जिलाने के लिए जो काम किया है इसके लिए उनका जितना शुक्रिया किया जाए कम है. अलकाजी की शैली वाले थियेटर के लिए मेरा जो पागलपन था दास्तानगोई ने उसे खत्म कर दिया. अब मेरी इस तरह का थियेटर करने की कोई इच्छा नहीं. बल्कि मुझे तो अब इसे देखने में भी मजा नहीं आता.

अब मेरा सिर्फ एक ही सपना है कि मॉटली मेरे बाद भी जिंदा रहे. बदकिस्मती से इसे अब मेरे साथ ही जोड़कर देखा जाने लगा है मगर मैं चाहता हूं कि ये मेरे बगैर भी चले. मैं चाहता हूं कि लोग मॉटली को इसके काम के लिए जानें, नसीरुद्दीन शाह की वजह से नहीं.