मणिपुर की मौन त्रासदी

फर्जी मुठभेड़ का सच सामने आने के बाद सुलगते मणिपुर का दौरा करके आईं शोमा चौधरी इस राज्य में चल रहे जटिल टकराव और उसमें छिपी उससे भी जटिल सच्चाइयों की थाह ले रही हैं. सभी फोटो: शैलेंद्र पांडेय

23 जुलाई 2009, मणिपुर की राजधानी इंफाल, बीटी रोड के एक व्यस्त बाजार में दिन रोज की तरह ही शुरू हो रहा था. असम राइफल्स में राइडर (डाक और सामान इधर-उधर पहुंचाने वाले) पी लुखोई सिंह ने अभी-अभी सीआईडी के एसपी तक एक पैकेट पहुंचाया था और अब वो सड़क के किनारे खड़े अपने एक दोस्त से बातें कर रहे थे. चतुर्थ श्रेणी के एक कर्मचारी गिमामगल अपनी साइकिल पर सवार होकर दफ्तर की तरफ जा रहे थे. उनसे कुछ ही दूर तीन बच्चों की मां निंगथोंजम केशोरानी अपनी फलों की रेहड़ी लगाकर ग्राहकों का इंतजार कर रही थीं. पास ही डॉक्टर से मिलकर आ रहीं डब्ल्यू गीता रानी एक ऑटोरिक्शा की तलाश में थीं. थोड़ी ही दूर पांच महीने की गर्भवती रबिना देवी अपने दो साल के बच्चे रसेल का हाथ पकड़े केले खरीद रही थीं. इसके बाद उन्हें मोबाइल की दुकान पर काम कर रहे अपने पति से मिलने जाना था. और 22 साल के चोंगखम संजीत (मुठभेड़ की आड़ में कत्ल) अस्पताल में भर्ती अपने एक रिश्तेदार के लिए दवाइयां खरीदने के लिए जा रहे थे. तभी अचानक एक नौजवान तलाशी ले रहे पुलिस के जवानों के चंगुल से निकल भागा. जब तक कोई कुछ समझ पाता माहौल गोलियों की आवाज से गूंज उठा. लुखोई सिंह ने खुद को बचाने के लिए अपनी मोटरसाइकिल की आड़ लेने की कोशिश की. मगर उन्हें गोली लगी और वो घायल हो गए. उन्होंने देखा कि दो पुलिसवाले भीड़ में फायरिंग करते हुए भाग रहे हैं.

डर यहां के लोगों की जिंदगी का अभिन्न हिस्सा बन चुका है. कहा जाता है कि मणिपुर में अकेले इस साल ही विद्रोहियों और सुरक्षा बलों के टकराव में अब तक 300 लोग अपनी जान गंवा चुके हैंगिमामगल ने भी धमाकों की आवाज सुनी मगर वो साइकिल चलाते रहे. कुछ देर तक तो उन्हें ये अहसास तक नहीं हुआ कि वो भी गोली का निशाना बन चुके हैं. उन्हें तो ये तब पता चला तब उन्होंने अपने बदन से खून बहता देखा और पाया कि उनका बायां हाथ बुरी तरह घायल हो चुका था. एन केशोरानी ने फायरिंग की आवाज सुनकर रेहड़ी को वहां से हटाने की कोशिश की. मगर इससे पहले कि वो ऐसा कर पातीं उनकी पीठ में गोली लगी और वो गिर गईं.  

गीतारानी ने भी गोलियों की आवाज सुनी और जब तक वो कुछ समझ पातीं उन्हें अहसास हुआ कि उनकी छाती से खून बह रहा है. एक गोली ने उन्हें भी अपना शिकार बना लिया था. रबिना देवी को कुछ सोचने का मौका ही नहीं मिला. गोली सीधे उनके माथे पर लगी और वो ढेर हो गईं. खून में डूबी अपनी मां को देखकर दो साल का रसेल चीखने लगा.

संजीत एक पीसीओ के पास खड़े थे. कुछ ही मिनट में पुलिस के कमांडो दस्ते ने उन्हें घेर लिया. चार लोग घायल हो गए थे और एक गर्भवती महिला की मौत हो गई थी. अब उन्हें ऐसा होने के पीछे की वजहें पैदा करने की जरूरत थी. इसलिए भीड़ भरे उस बाजार में, लोगों की नजरों के सामने दिन दहाड़े संजीत को एक मेडिकल स्टोर के भीतर ले जाया गया और फिर उसे बेहद नजदीक से गोली मार दी गई. इसके बाद उसका शव बाहर लाया गया और उसे रबिना देवी के शव के साथ एक ट्रक में डाल दिया गया.

ये सब और इसके बाद जो कुछ हुआ वो ऐसे हुआ मानो कुछ हुआ ही न हो. न तो इलाके की घेरेबंदी की गई और न ही फोरेंसिक विशेषज्ञों को बुलाया गया. जब ये घटना हुई तो राज्य विधानसभा का सत्र भी चल रहा था. दोपहर बाद मुख्यमंत्री इबोबी सिंह ने सदन में बयान दिया कि प्रतिबंधित उग्रवादी संगठन पीएलए के सदस्य संजीत ने तलाशी ले रही पुलिस से भागने की कोशिश में पांच लोगों को गोली मार दी मगर मणिपुर के बहादुर कमांडोज ने मुठभेड़ में उसे मार गिराया. मुख्यमंत्री के मुताबिक उससे 9 एमएम का एक माउजर भी बरामद हुआ. उनका ये भी कहना था कि विद्रोहियों की समस्या से निपटने के लिए उन्हें खत्म करने के सिवा कोई और चारा नहीं है (हालांकि बाद में वो इस बयान से मुकर गए). विपक्ष ने इस बयान पर कोई सवाल नहीं उठाया और बात आई-गई हो गई.

कल्पना कीजिए उस दादी की मनोदशा की जिसकी गर्भवती पोती को गोली मार दी गई हो और इसका विरोध करने की सूरत में जिस पर स्मोक बम फेंके जा रहे हों

मणिपुर ऐसी जगह बन चुकी है जहां ज्यादातर चीजें जैसी दिखती हैं या बताई जाती हैं वैसी असल में होती नहीं. डर यहां के लोगों की जिंदगी का अभिन्न हिस्सा बन चुका है. कहा जाता है कि अकेले इस साल ही विद्रोहियों और सुरक्षा बलों के टकराव में अब तक 300 लोग अपनी जान गंवा चुके हैं. मगर यहां सवाल उठाने की हिम्मत कोई नहीं करता. लोगों को कई बार शक तो होता है मगर सबूतों की गैरमौजूदगी में वो ज्यादा ध्यान नहीं देते. अक्सर जब भी कोई मरता है तो आस-पड़ोस वाले लोग एक ज्वाइंट एक्शन कमेटी बनाते हैं, प्रतीकात्मक प्रदर्शन किए जाते हैं, जिनके बाद कभी-कभी प्रतीकात्मक मुआवजा भी मिल जाता है. इसके बाद जिंदगी फिर से पहले वाले ढर्रे पर चलने लगती है. हर कोई अपने काम में व्यस्त होने की कोशिश करने लगता है.

इस बार भी ऐसा ही होना था अगर एक गुमनाम फोटोग्राफर ने संजीत की मौत के पलों को अपने कैमरे में कैद न किया होता. इस फोटोग्राफर को डर था कि स्थानीय अखबारों में ये तस्वीरें प्रकाशित होने से उसकी सुरक्षा को खतरा हो सकता है. इसलिए उसने तहलका से संपर्क किया. पिछले पखवाड़े इस घटना की पूरी रिपोर्ट तस्वीरों के साथ तहलका में प्रकाशित होते ही मानो भूचाल आ गया. राज्य में विरोध प्रदर्शन होने लगे. क्या नौजवान क्या बूढ़े क्या महिलाएं, हर तरफ लोगों की भीड़ सड़कों पर उतर पड़ी. जनता की मांग थी कि मुख्यमंत्री इस्तीफा दें और घटना की न्यायिक जांच की जाए.

जैसा कि विरोध प्रदर्शन के दौरान घायल हुईं और अब एक अस्पताल में अपना इलाज करा रहीं ए ग्यानेश्वरी कहती हैं, ‘तहलका ने हमारे भीतर दबी हुईं भावनाओं को रास्ता दिखा दिया है. इन हत्याओं का सच हम हमेशा से जानते थे. मगर हमारे पास कभी सबूत नहीं होता था इसलिए हम कुछ कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे. अब हममें वो हिम्मत आ गई है. अगर एक सब्जीवाला रबिना देवी के बैग को अपने पास न रख लेता तो कमांडोज उसमें भी एक पिस्टल रख देते और रबिना को भी उग्रवादी करार दे देते.’

इरेपक नामक स्थानीय अखबार के संपादक अरुण इरंगेबाम कहते हैं, ‘तहलका ने मणिपुर को जगा दिया है. लोगों में बहुत गुस्सा है.’ सामाजिक संगठन अपुनबा लुप के संयोजक दयानंद चिंगथम कहते हैं, ‘जिस तरह से तहलका सच्चाई को सामने लाया है उसके लिए उसका जितना धन्यवाद किया जाए कम है.’

‘काश आप ऐसी रिपोर्ट दो साल पहले छापते. हमारी पुलिस अब बेहद बेशर्म हो चुकी है.’ विडंबना देखिए कि ये शब्द एक ऐसे शख्स के हैं जो मणिपुर पुलिस के डीजीपी जॉय कुमार के दफ्तर में काम करता है. जैसा कि तय था, शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन शुरू होते ही राज्य सरकार अपनी चिरपरिचित सख्ती पर उतर आई. हर तरफ कमांडोज तैनात कर दिए गए. कर्फ्यू का ऐलान भी कर दिया गया और प्रदर्शनकारियों को तितर-बितर करने के लिए पानी की बौछारों और आंसू गैस का इस्तेमाल किया गया. रबिना देवी की दादी एमआरके राजेसना सहित कुछ बूढ़ी महिलाओं का एक दल राज्यपाल के घर की तरफ बढ़ रहा था. कमांडोज ने उन्हें रोक लिया. वे नारे लगाने लगीं, ‘अरेस्ट अस’ (हमें गिरफ्तार करो). इसकी बजाय पुलिसवालों ने उन पर स्मोक बम फेंकने शुरू कर दिए. कुछ महिलाएं इनसे बचने के लिए एक चिकन शॉप में घुस गईं और उन्होंने शटर बंद कर दिया. एक पुलिसवाले को शटर में एक दरार दिख गई. उसने उसी से तीन स्मोक बम भीतर फेंक दिए.

मणिपुर में आधिकारिक व्यवस्था का इस कदर सैन्यीकरण हो चुका है कि वह किसी भी समस्या को हल करने का सिर्फ एक ही तरीका जानती है-हिंसक दमन. टकराव वाली दूसरी जगहों की तरह यहां भी स्थितियां बड़ी जटिल हैं

कल्पना कीजिए उस दादी की मनोदशा की जिसकी गर्भवती पोती को गोली मार दी गई हो और इसका विरोध करने की सूरत में जिस पर स्मोक बम फेंके जा रहे हों. राजेसना कहती हैं, ‘मणिपुर की महिलाओं ने 1904 और 1939 में अंग्रेजों से मुकाबला किया था. एक और लड़ाई का वक्त आ चुका है. मैं सभी महिलाओं से आगे आने और लड़ाई में कूदने की अपील करती हूं.’

मणिपुर के सेंट्रल हॉस्पिटल में इस तरह की कहानियों की भरमार है. ऑटोरिक्शा चलाने वाले केएच लोखेन सिंह प्रदर्शनकारियों से अलग अपने काम से कहीं जा रहे थे कि पास से गुजर रहे एक कमांडो ने उन पर एक स्मोक बम फेंक दिया. उनका चेहरा बुरी तरह जल गया. झुलसे चेहरे और अंधी आंखों के साथ अब वे अस्पताल में पड़े हैं. उनके बिस्तर के नीचे एक चटाई बिछी है जिस पर उनकी दो साल की मासूम बच्ची संगीता सोई हुई है. रिपोर्ट के प्रकाशित होने के एक हफ्ते बाद पांच अगस्त 2009 को आखिरकार मुख्यमंत्री इबोबी सिंह ने एक प्रेस कॉंफ्रेंस बुलाई. इसमें उन्होंने माना कि इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बारे में उन्हें गलत जानकारी दी गई थी जिसके आधार पर उन्होंने अपना पिछला बयान दिया था. उन्होंने वादा किया कि घटना की न्यायिक जांच होगी. एक सब इंस्पेक्टर सहित छह कमांडोज को निलंबित कर दिया गया.

23 जुलाई की फर्जी मुठभेड़ मणिपुर की उस तस्वीर को बयां करती है जिसका रंग पूरी तरह से स्याह हो चुका है. ये उन भावनाओं की तहें खोल कर रख देती है जो मणिपुर के लोगों के दिल और दिमाग का अभिन्न हिस्सा बन चुकी हैं. एयरपोर्ट पर मिठाई की दुकान के मालिक से लेकर टैक्सी ड्राइवर, इतिहासकार, आम महिलाओं, पत्रकारों, कार्यकर्ताओं, डॉक्टरों तक किसी से भी बात कीजिए और आप पाएंगे कि यहां के लोगों ने वक्त के बेहतर होने की आस तक छोड़ दी है. हर किसी के पास अपनी कहानियां हैं. फिरौती, अपहरण, धमकियों, भ्रष्टाचार और हत्याओं की कहानियां.

मणिपुर का अर्थ है रत्नों की भूमि. बादलों को चूमते पहाड़ों के बीच बसे इस राज्य की खूबसूरती बताती है कि इसका ये नाम बेवजह नहीं पड़ा. मगर आज मणिपुर पूरी तरह से ढहने की कगार पर है. मणिपुर में चल रहे संकट की जडें खोजने के लिए हमें इतिहास में जाना होगा. इस राज्य का जब भारत में विलय हुआ तो ये काफी हद तक इसकी अनिच्छा के बावजूद हुआ था. यहां के मुख्य समुदाय – जिसे मेइती कहा जाता है – का 2000 साल पुराना इतिहास है. 1947 में जब अंग्रेज भारत छोड़कर गए तो मणिपुर के महाराजा ने इसे एक संवैधानिक राजतंत्र घोषित कर दिया और यहां की अपनी संसद के लिए चुनाव करवाए. 1949 में महाराजा भारत में इसका विलय करने पर सहमत हो गए हालांकि मेइती दावा करते हैं कि उन पर दबाव डालकर उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर किया गया. इसके बाद पहले इसे सबसे निचले राज्य यानी सी स्टेट का दर्जा दिया गया. 1963 में ये केंद्र शासित प्रदेश बना और आखिरकार 1972 में इसे राज्य बना दिया गया.

भारत सरकार के खिलाफ बगावत मणिपुर में 1964 में ही शुरू हो गई थी जब आजादी के लिए वहां पर यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट नाम का भूमिगत आंदोलन शुरू हुआ था. फिर 70 के दशक में पीएलए, प्रीपाक, केसीपी और केवाईकेएल जसे दूसरे संगठन भी अस्तित्व में आ गए जिनकी राष्ट्रवाद को लेकर अपनी-अपनी विचारधाराएं थीं. सांस्कृतिक और सामुदायिक नजरिए से देखें तो मणिपुर काफी विविधताओं वाला राज्य है. यहां की आबादी का 57 फीसदी मेइती हैं. ये परंपरागत वैष्णव हिंदू हैं और इनकी रिहाइश मुख्य रूप से घाटी में है. पहाड़ी इलाके में नागा, कूकी और मिजोचिन जनजातियों का बसेरा है. नागा और कूकी समुदाय, जिनमें कई उप-समुदाय भी हैं, में ज्यादातर ईसाई हैं. राज्य की आबादी में सात फीसदी मुसलमान भी हैं. पंगल कहे जाने वाले ये लोग घाटी के एक जिले थूबल में रहते हैं.

ऐतिहासिक रूप से मेइती हमेशा से खुद को पहाड़ी जनजातियों से ज्यादा श्रेष्ठ मानते और उसी तरह से व्यवहार करते रहे हैं. ऐसे में ये अलग-अलग समुदायों से अलग-अलग उग्रवादी संगठनों का पैदा होना स्वाभाविक ही है. हालत ये है कि महज 25 लाख की आबादी वाले इस राज्य में आज 40 के करीब उग्रवादी संगठन हैं. कुछ की लड़ाई भारत सरकार से है और ज्यादातर की एक-दूसरे से. गौर करने वाली एक बात ये भी है कि केंद्र से विकास के लिए जो पैसा आया वह घाटी में ही खर्च हुआ और पहाड़ियों तक नहीं पहुंच सका इसलिए धीरे-धीरे लड़ाई पहचान के लिए कम और पैसे के लिए ज्यादा हो गई. पैसे की इस लड़ाई में कई संगठन अनगिनत छोटे-छोटे धड़ों में टूट गए. जैसा कि मणिपुर का हर व्यक्ति दुख के साथ आपको बताएगा, ‘मणिपुर के हर उप-समुदाय का अपना ही एक उग्रवादी संगठन है और ऐसे हर संगठन का अपना अवैध वसूली का कारोबार चल रहा है.’

‘अगर कसाब पर मुंबई में हुए आतंकी हमले के लिए मुकदमा चलाया जा सकता है तो कानून के तहत मणिपुरी नौजवानों के साथ भी यही तरीका क्यों नहीं अपनाया जाना चाहिए?’

मणिपुर में अवैध वसूली की कहानियां आम हैं. जिस किसी के पास भी पैसा है उसे नियमित रूप से इसका सामना करना ही पड़ता है. इसके लिए धमकी भरे फोन कॉल्स, अपहरण या दुकानों और घरों पर हथगोले या चीनी बम फेंके जाना आम है. कभी-कभी तो ये संगठन इसके लिए हत्या भी कर डालते हैं. पैसे देने का ये खेल सिर्फ व्यक्तिगत स्तर तक सीमित नहीं है. हर सरकारी ठेके या विकास के फंड में एक तय हिस्सा भी इन संगठनों की भेंट चढ़ जाता है. ये हिस्सा अब कुल रकम के 38 फीसदी तक पहुंच चुका है. इस साल की शुरुआत में यहां पर राज्य सिविल सेवा के अधिकारी डॉ किशन को इसलिए गोली मार दी गई थी क्योंकि वे एक विकास फंड में वसूली का विरोध कर रहे थे. जैसा कि इतिहासकार लोकेंद्र अरमबम बताते हैं, ‘विचारधारा के स्तर पर उग्रवादी संगठनों में लगातार गिरावट आ रही है.’

हालात इतने खराब हो चुके हैं कि जो संगठन सिर्फ बड़ी संस्थाओं से ही वसूली कर रहे हैं और आम लोगों को परेशान नहीं कर रहे, उन्हें यहां सम्मान की नजरों से देखा जाने लगा है और उन्हें सिद्धांतवादी संगठन कहा जाता है. मणिपुर में हर तरफ इन संगठनों का बोलबाला है. इनमें से ज्यादातर अपनी एक समानांतर सरकार चलाते हैं जिसमें फाइनेंस इंचार्ज, ऑडिटर जनरल और सैन्य और सांस्कृतिक मामलों के सचिव भी होते हैं. इन संगठनों में आपसी टकराव भी होते रहते हैं. कुछ समय पहले हाइरोक नाम के एक गांव में दीवाली के उत्सव के दौरान केवाईकेएल नामक संगठन के उग्रवादियों ने एक लड़के और लड़की को गोलियों से भून दिया. ये संगठन चाहता था कि मेइती हिंदू धर्म से पूर्व के अपने इतिहास को अपना लें और ये घटना उन्हें सबक सिखाने के लिए अंजाम दी गई.

फिर भी ये संगठन और उनकी करतूतें मणिपुर में पसरी डर की छाया की सिर्फ एक वजह हैं. इससे भी दुर्भाग्यपूर्ण वजह है उस सरकार के काम करने का तरीका जिसे लोग अपनी जिंदगी की बेहतरी के लिए चुनते हैं. पूर्वोत्तर के लिए भारत सरकार का रवैया शुरुआत से ही राष्ट्रवाद को थोपने जैसा रहा है. पहचान के मुद्दे से जुड़ी जटिलताओं को हल करने में धैर्य या बातचीत की बजाय यहां पर दमन से काम लिया गया. 1958 में जब नागा आंदोलन चला तो इससे निपटने के लिए केंद्र सरकार ने औपनिवेशिक काल के एक कानून का इस्तेमाल किया जिसे सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून कहा जाता है. ये कानून ऐसा है कि सेना के किसी नॉन कमीशंड अधिकारी जैसे कि हवलदार को भी सिर्फ शक के आधार पर किसी को भी गिरफ्तार या टॉर्चर करने या अनिश्चित काल तक हिरासत में रखने की छूट मिल जाती है. इस कानून की आड़ में बिना सर्च वारंट के किसी के घर की तलाशी ली जा सकती है. कानून ये भी कहता है कि केंद्र सरकार की मंजूरी के बगैर किसी भी अधिकारी या जवान को सजा नहीं दी जा सकती. बीतते समय के साथ मणिपुर के अलग-अलग जिले इस कानून के तहत लाए गए और 1980 तक ये पूरे मणिपुर में लागू हो चुका था.

कल्पना कीजिए एक ऐसी जगह की जहां आए दिन कोई न कोई इंसान गोली का शिकार होता रहता है. जहां लोगों को पता है कि गोलियां चलाने वालों पर कोई कार्रवाई नहीं होने वाली, उन्हें कोई सजा नहीं मिलने वाली. कैसी होती होगी वहां के लोगों की मनोदशा. मणिपुर में इस बर्बर कानून के अमल में आने के बाद पिछले तीस सालों में गुमशुदगी, प्रताड़ना, बलात्कार और हत्या के सैकड़ों मामले खबरों में आते रहे हैं. दर्जनों मानवाधिकार रिपोटरें के बावजूद सेना के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई. 2004 में दशकों से यहां के निवासियों के भीतर उबल रहा लावा पहली बार तब फूट निकला जब मनोरमा नाम की एक महिला को असम राइफल्स के जवान जबर्दस्ती उसके घर से उठाकर ले गए. अगले दिन उसका शव मिला जो उसके साथ हुए बलात्कार और प्रताड़ना की कहानी कहता था. मणिपुर में इस घटना से एक भूचाल आ गया. राज्य में हर जगह विरोध प्रदर्शन हुए. करीब एक दर्जन महिलाओं ने निर्व होकर असम राइफल्स के मुख्यालय के सामने प्रदर्शन किया. उनके हाथ में तख्तियां थीं जिन पर लिखा हुआ था ‘इंडियन आर्मी रेप अस’.

इससे एक छोटा सा फर्क पड़ा. इस बर्बर कानून की समीक्षा के लिए जीवन रेड्डी कमेटी बनाई गई. इसकी सिफारिशें तो अब भी लागू नहीं हुई हैं पर इतना जरूर हुआ है कि राजधानी इंफाल से इस कानून और सेना को हटा लिया गया है. शहर से सेना भले ही हट गई हो मगर पिछले पांच साल में उसकी जगह एक दूसरे डर ने ले ली है इस डर का नाम है मणिपुर पुलिस कमांडोज या एमपीसी. दरअसल सेना के हटने के बाद राज्य और केंद्र सरकार ने राज्य पुलिस की एक ऐसी शाखा बनाने का फैसला किया जिससे विद्रोही तत्वों से सख्ती से निपटा जा सके. नतीजतन एमपीसी अस्तित्व में आया. चूंकि इसके और सेना के काम करने के तरीकों में कोई बुनियादी फर्क नहीं है इसलिए हालात अभी भी पहले जैसे ही हैं. जैसाकि इरेपक के संपादक अरुण इरेंगबाम कहते हैं, ‘एमपीसी को अपने खिलाफ किसी कार्रवाई का डर नहीं है इसलिए उसका रवैया भी वैसा ही है जैसा सैन्य बलों का था.’

मणिपुर के पूर्व राज्यपाल वेद मारवाह कहते हैं, ‘किसी भी राज्य की पुलिस का रिकॉर्ड मणिपुर पुलिस से ज्यादा खराब नहीं होगा. उस पर तो ये तक आरोप लग चुका है कि एक बार उसने फर्जी मुठभेड़ में अपने ही अधिकारियों की हत्या कर दी’

बात सही है. मणिपुर में आधिकारिक व्यवस्था का इस कदर सैन्यीकरण हो चुका है कि वह किसी भी समस्या को हल करने का सिर्फ एक ही तरीका जानती है-हिंसक दमन. टकराव वाली दूसरी जगहों की तरह यहां भी स्थितियां बड़ी जटिल हैं. एक तरफ उग्रवादियों की अति है जो वसूली और हत्या जैसी चीजों को अंजाम दे रहे हैं. जैसा कि पुलिस के एक बड़े अधिकारी कहते हैं, ‘या तो हम हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहें या फिर कुछ करने का फैसला करें. सच्चाई ये है कि पिछले दो साल में हम और भी तेजी से जवाबी हमले कर रहे हैं. पंजाब में देखिए समस्या कैसे दूर हुई. मैं मानता हूं कि हमारे लड़के कभी-कभी कुछ ज्यादा ही कर देते हैं मगर आप उनकी मानसिकता को भी तो समझें. वे भी किसी भी समय गोली का शिकार हो सकते हैं. वे भी तनाव में रहते हैं. हमारे पुलिस स्टेशनों में सुधार की जरूरत है. हमारे पास सिर्फ 10-15 लोग होते हैं जबकि हर पुलिस स्टेशन में ये आंकड़ा कम से कम 58 होना चाहिए. हमें और भी लोगों और हथियारों की जरूरत है.’

मगर ताकत की अधिकता ज्यादातर मामलों में इंसान का दिमाग खराब कर देती है. दो साल पहले जब मणिपुर पुलिस ने जवाबी हमले करने का फैसला किया तब से पुलिसिया अत्याचारों की घटनाओं में काफी बढ़ोतरी हो गई है. दिन-दहाड़े भीड़ भरे बाजार में संजीत की हत्या समस्या का सिर्फ एक लक्षण है. अकेले 2008 में ही हुई ऐसी हत्याओं (जो साबित नहीं हुईं) की सूची काफी लंबी है.

एक पल के लिए ये मान लेते हैं कि ये सभी लोग उग्रवादी थे. जैसा कि अपुंबा लप से जुड़े जॉनसन एलंगबाम कहते हैं, ‘अगर कसाब पर मुंबई में हुए आतंकी हमले के लिए मुकदमा चलाया जा सकता है तो कानून के तहत मणिपुरी नौजवानों के साथ भी यही तरीका क्यों नहीं अपनाया जाना चाहिए?’

कानून की गैरमौजूदगी ने मणिपुर की हवा में डर और शक घोल दिया है. इंफाल में घूमते हुए आप इस डर और शक को हर जगह महसूस कर सकते हैं. हथियारों से लैस कमांडोज से भरी जीपें शहर में घूमती रहती हैं जो मर्जी के मुताबिक किसी से भी बदसलूकी कर सकते हैं या उस पर गोली चला सकते हैं. सामाजिक कार्यकर्ता बताते हैं कि 2005 में पीएलए के एक उग्रवादी विकास ने लोखोन सिंह नाम के एक कमांडो को गोली मार दी थी. जवाबी हमले में विकास भी मारा गया. सिंह के अंतिम संस्कार के समय पुलिस विकास के घर में घुस गई और उसके परिवार के हर सदस्य को गिरफ्तार कर लिया गया. इसके बाद उसकी गर्लफ्रेंड नाओबी के साथ कथित तौर पर पुलिसवालों ने बलात्कार किया. जब नाओबी ने कोर्ट में बयान दिया तो एक अधिकारी ने मजिस्ट्रेट के सामने ही उसे धमकी दी. मगर उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई.

व्यवस्था ने मणिपुर के मानस में किस कदर डर बैठा दिया है इसका अंदाजा हमें तब भी हुआ जब मुठभेड़ की आड़ में संजीत की हत्या की खबर तहलका में छपने के बाद इंफाल में पत्रकारों और कार्यकर्ताओं ने हमें यहां आने से रोकने की काफी कोशिश की. उनका कहना था, ‘हम आपकी सुरक्षा की गारंटी नहीं दे सकते. कमांडोज उस फोटोग्राफर को हर जगह ढूंढ़ रहे हैं जिसने आपको तस्वीरें दीं.’ जिन पत्रकारों ने इंफाल में हमारी मदद की थी उन्होंने भी हमसे आग्रह किया हम मुख्यमंत्री की प्रेस कांफ्रेंस में उनसे कोई बात न करें क्योंकि इससे उनके लिए खतरा पैदा हो सकता है.

कभी पुलिस के शीर्ष अधिकारी रहे मणिपुर के पूर्व राज्यपाल वेद मारवाह कहते हैं, ‘किसी भी राज्य की पुलिस का रिकॉर्ड मणिपुर पुलिस से ज्यादा खराब नहीं होगा. उस पर तो ये तक आरोप लग चुका है कि एक बार उसने फर्जी मुठभेड़ में अपने ही अधिकारियों की हत्या कर दी. यहां पुलिस सामुदायिक आधार पर बंटी हुई है और ये सत्ताधारी पार्टी के सशस्त्र उग्रवादी दल की तरह काम करती है. यानी मणिपुर में एक बड़ी सीमा तक जंगलराज चलता है.’

एमपीसी अगर डर का एक नया नाम बन गया है तो इसके कारण साफ हैं. पहला और मुख्य कारण ये है कि इसे अपने खिलाफ किसी भी तरह की कार्रवाई का डर नहीं है. दूसरा अब सरकार की नीति ये है कि पुलिस और सेना की दोहरी ताकत का इस्तेमाल कर विद्रोहियों के पांव उखाड़े जाएं. इस वजह से पुलिस का तेजी से विस्तार किया जा रहा है. शुरुआत में एमपीसी में 300 लोग थे मगर जल्द ही ये संख्या 1000 तक जा पहुंची और अब सूत्रों के मुताबिक 1600 नए कमांडोज की भर्ती के लिए मंजूरी मिल गई है.

स्थानीय पत्रकार और कार्यकर्ता बताते हैं कि राज्य में कमांडोज आदि की जरूरत पैदा कर इनकी भर्ती की आड़ में एक अलग ही गड़बड़-घोटाला चल रहा है. बताया जाता है कि एक सब इंस्पेक्टर बनने के लिए आपको 10-15 लाख रुपए देने पड़ते हैं. कमांडो के लिए ये आंकड़ा पांच लाख और राइफलमैन के लिए एक से दो लाख के बीच होता है. इस घूस का एक हिस्सा बड़े नेताओं तक भी जाता है. सूत्र भी इस बात की पुष्टि करते हैं. अब जो इतना पैसा खर्च करेगा जाहिर है वो जल्दी से जल्दी  इसकी भरपाई भी करना चाहेगा. यही वजह है कि जिस अनुपात में पुलिस बल का विस्तार हो रहा है उसी अनुपात में पुलिस द्वारा वसूली की घटनाएं भी बढ़ रही हैं. पुलिस बल में पूर्व उग्रवादियों को भर्ती करने और उग्रवादियों को मार गिराने वाले कमांडोज को बहादुरी पुरस्कार देने का नतीजा ये हुआ है कि ये बल कुछ हद तक लालच, बदले और निरंकुश ताकत के मिश्रण से काम करने लगा है.

नाम न छापने की शर्त पर एक पुलिस अधिकारी कहते हैं, ‘मैं मानता हूं कि हमारे लड़कों में से 10-20 फीसदी खराब हो सकते हैं. मगर हमें उनके व्यवहार को दुरुस्त करना होगा और उन्हें ज्यादा मानवीय बनाना होगा. मैं ये भी मानता हूं कि विशेषाधिकार कानून में सुधार लाए जाने की जरूरत है, खासकर इसकी धारा चार और छह में जो लड़कों को किसी भी हालत में टॉर्चर करने या हत्या करने की छूट देती है. मगर देखा जाए तो हिंसा में जल्द कमी आने की उम्मीद कम ही है. हमें सफाई के लिए कम से कम दो साल चाहिए. जो शुरू हो चुका है हमें उसे खत्म करना होगा. और आप स्थानीय मीडिया में छपने वाली हर चीज पर यकीन न करें. पहले ये पता करें कि संबंधित अखबार किस संगठन का मुखपत्र है.’

वाकई में मणिपुर में सच को खोजना बहुत मुश्किल काम है. ये एक भ्रमित कर देने वाली दुनिया है जिसमें कदम रखते ही आप चकरा जाते हैं. आपको पता चलता है कि उग्रवादी और नेता दोस्त हैं. कमांडोज और फिरौती वसूलने वालों की भी आपस में साठगांठ है. दोस्त मुखबिर हैं. कानून का पालन सुनिश्चित करने वाले हत्याएं कर रहे हैं. यानी अप्रत्यक्ष रूप से हर हाथ एक दूसरे से कहीं न कहीं जुड़ा हुआ है. 2008 की शुरुआत में पुलिस ने बाबुपुरा में एक औचक छापा मारा. बाबुपुरा वो वीआईपी इलाका है जहां मंत्री और सरकारी अधिकारी भारी सुरक्षा में रहते हैं. एक शीर्ष पुलिस सूत्र के मुताबिक कांग्रेस के एक विधायक के घर में केवाईकेएल के 12 उग्रवादी पाए गए. सूत्र ने ये भी बताया कि एमपीसी के एक सदस्य के घर में यूएनएलएफ के कुछ लोग मिले. लोग बताते हैं कि नेता खुद ही उग्रवादी संगठनों को राज्य में आने वाली नई योजनाओं के बारे में बता देते हैं और इसके बदले में उनकी कृपादृष्टि की अपेक्षा करते हैं.

इस पुलिस सूत्र की मानें तो मणिपुर का मीडिया भी वहां फैली कई मरीचिकाओं का एक हिस्सा है. अलग-अलग अखबारों के अलग-अलग झुकाव हैं जिनके हिसाब से उनका रुख तय होता है. उदाहरण के लिए चार अगस्त को द संगाई एक्सप्रेस नामक एक अखबार ने एक प्रतिबंधित अलगाववादी संगठन केसीपी(एमसी) की तीसरी वर्षगांठ की खबर बड़ी ही प्रमुखता के साथ छापी. फिर अगले ही दिन इस अखबार ने खबर के नाम पर इस संगठन की तरफ से वोदाफोन कंपनी को दी गई धमकी छाप दी. खबर के शब्दों पर गौर कीजिए, ‘केसीपी की क्रांतिकारी सरकार के सेक्रेटरी इंचार्ज ताबुंगा मेइती ने कहा है कि वोदाफोन के दफ्तर पर हुआ बम हमला पहली और आखिरी चेतावनी थी क्योंकि कंपनी संगठन को कुछ वित्तीय मदद देने की अपील पर ध्यान नहीं दे रही है..देश के लिए लड़ते केसीपी जैसे महत्वपूर्ण संगठन को चलाने के लिए पैसे की जरूरत होती है.’

इरेपक के अरुण कहते हैं, ‘ये सही है कि भूमिगत संगठन हमारे अखबारों को अपने नोटिस बोर्ड की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश करते हैं.’ अरुण ने कुछ साल पहले केवाईकेएल के हिसाब से चलने से इनकार कर दिया था जिसके लिए उन्हें धमकियां मिलने लगीं और फिर उन्हें छह महीने तक भूमिगत होना पड़ा. इसके बाद उन्होंने फैसला किया कि भगोड़े जैसी जिंदगी से तो मौत भली और वे पहले की तरह अपना काम करने लगे.

मगर सब ऐसे नहीं होते. ऐसे ही एक संपादक बेबाकी से कहते हैं, ‘मैं यूएनएलएफ की विचारधारा को काफी पसंद करता हूं.’ खुरई में संजीत की मां इनाओतोंबी सफेद कपड़ों में चुपचाप बैठी हैं. उन्होंने फैसला किया है कि वे अपने बेटे के श्राद्ध की रस्म तब तक पूरी नहीं करेंगी जब तक इस घटना की न्यायिक जांच शुरू नहीं होती और मुख्यमंत्री इस्तीफा नहीं दे देते.

इनाओतोंबी ने काफी दर्द ङोला है. उनके काफी रोकने के बावजूद संजीत 13 साल की उम्र में प्रतिबंधित संगठन पीएलए में शामिल हो गया था. 20 साल की उम्र में उसे छाती में कोई चोट लगी और उसने संगठन छोड़ दिया. इसके बाद वो दो साल ही और जी सका. इनाओतोंबी के तीन और बेटे हैं और उनकी चिंता ये है कि वे अपने इन बेटों के गुस्से और डर पर किस तरह काबू पाएंगी. जब आस-पड़ोस वाले पत्थर से एक लोहे के खंबे को बजाते हैं जो इस बात का सूचक है कि कर्फ्यू के बावजूद लोग विरोध प्रदर्शन के लिए इकट्ठा हों तो वो अपने बेटों को इन प्रदर्शनों में जाने से रोक लेती हैं.

संजीत की हत्या में कई सबक छिपे हैं. पहला ये कि अगर राज्य अपने सुरक्षा बलों को कानून से ऊपर रखेगा तो ऐसा करके वह नई समस्याओं के बीज ही बोएगा. मणिपुर में तीन पीढ़ियों से हिंसा और डर का ऐसा माहौल बना हुआ है कि हालात सामान्य होने की वहां के लोग दूर-दूर तक कल्पना तक नहीं कर सकते. हालात ऐसे हैं कि किसी खाकी वर्दी वाले को देखते ही निर्दोष बच्चों का भी भागने का मन करता है और किसी बच्चे को भागता देख खाकी वर्दी वालों का उस पर गोलियां चलाने का. सवाल ये है कि 13 साल का एक बच्चा क्यों पीएलए में शामिल हुआ? जवाब न तो कानून के पास है न ही इसके रखवालों के. अलग-अलग गुटों की लड़ाई झेल रहे मणिपुर के दिल का जख्म अब नासूर बन चुका है. और इस घाव को न तो सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून भर सकता है और न एमपीसी.

सवाल ये भी है कि प्रदेश को मुख्यधारा से अलग-थलग रखे जाने के उस तर्क में कितना दम है जो पिछले तीस सालों से अलगाववादी संगठनों के समर्थन को जिंदा रखे हुए है? अरुण पूछते हैं, ‘क्या भारतीय मानस में हमारे लिए कोई जगह है?. भारत में तो कभी हमारा स्वागत नहीं हुआ.’ पूर्वोत्तर मामलों के पूर्व मंत्री मणिशंकर अय्यर इस बात को आधारहीन बताते हुए कहते हैं, ‘दसवीं और बारहवीं पंचवर्षीय योजना में पूर्वोत्तर में निवेश के लिए चौदह लाख करोड़ रुपये रखे गए हैं. पूर्वोत्तर में भारत की चार फीसद आबादी बसती है मगर केंद्रीय विकास फंड का दस फीसदी नियमित तौर पर इसके लिए रखा जाता है. मणिपुर में तात्कालिक जरूरत इस बात की है कि इसके सारे समुदाय एकजुट हों. इसे समावेशी सरकार के साथ समावेशी विकास की जरूरत है.’

मगर केंद्र सरकार इस मामले पर इतनी संवेदनशील नहीं दिखती. पूर्वोत्तर मामलों के मंत्री बीके हांडिक से जब हमने मणिपुर संकट के बारे में बात करनी चाही तो उनका जवाब था, ‘कानून-व्यवस्था हमारी जिम्मेदारी नहीं है.’ मगर ये होनी चाहिए क्योंकि मणिपुर में सेना केंद्र सरकार की मंजूरी से ही भेजी गई है. प्रसिद्ध लेखक डेविड फ्रीडमैन ने कहा है, ‘सीधे ताकत का इस्तेमाल किसी भी समस्या को हल करने का कमजोर तरीका होता है जो आमतौर पर या तो छोटे बच्चे अपनाते हैं या बड़े देश.’

उम्मीद की जानी चाहिए कि जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग बच्चे नहीं हैं. वे इस बात को समझेंगे.