1980 की गर्मियों की बात है. स्टार और स्टाइल पत्रिका की खोजी रिपोर्टर भारती एस प्रधान तेज धूप में चेन्नई की गलियों की खाक छानने में जुटी हुई थीं. प्रधान को तलाश थी एक पुजारी की जिसके बारे में उन्हें बस इतना ही पता था कि उसका नाम श्रीनिवास आचार्य है और उसने एक ऐसी शादी करवाई है जिसकी खबर पूरे देश में तहलका मचा सकती है.
‘वे बॉलीवुड के सबसे ज्यादा चहेते अभिनेता थे और उनके लिए सब माफ था. आप हाथ बढ़ाइए और वे आपको गले लगा लेंगे. आप गले मिलने के लिए बढ़िए और आपके लिए शाम को एक जाम की पेशकश हो जाएगी.’आखिरकार प्रधान को वह पुजारी मिल गया और उस गोपनीय शादी की विस्तृत जानकारी भी. उन्हें पता चला कि इस आचार्य ने मुंबई में किसी दिलावर खान की शादी हेमामालिनी से करवाई थी. प्रधान को अहसास हो चुका था कि उनके पास उस वक्त की सबसे सनसनीखेज खबर है. दिलावर खान और कोई नहीं बल्कि करोड़ों प्रशंसकों वाले एक्शन हीरो धर्मेंद्र थे.
हालांकि कुछ दूसरे ऐसे लोग भी थे जिनका कहना था कि असल में शादी तो 21 जून 1979 को ही हो चुकी थी मगर इस खबर को जान-बूझकर परदे में रखा गया ताकि धर्मेंद्र की पहली पत्नी प्रकाश कौर को इसका पता न चले. कौर और धर्मेंद्र की शादी को तब तक 25 साल हो चुके थे और उन्होंने धर्मेंद्र को तलाक देने से मना कर दिया था. अपनी जिंदगी के इस सबसे बड़े संकट पर बाद में एक सहेली से बात करते हुए कौर का कहना था, ‘धर्मेंद्र के दोहरे व्यक्तित्व को समझना हो तो आपको उनकी फिल्म जुगनू देखनी चाहिए.’
इस खबर ने रातोंरात प्रधान को स्टार बना दिया. बॉलीवुड में इस खुलासे से खलबली मच गई. कुछ को हैरत थी कि धर्मेंद्र ऐसा कैसे कर सकते हैं. मगर ज्यादातर लोगों को गरम-धरम और ड्रीम गर्ल की ये जोड़ी बढ़िया लगी. इसलिए हैरत की बात नहीं थी कि इस शादी ने धर्मेंद्र की लोकप्रियता में और भी इजाफा कर दिया. प्रधान याद करती हैं, ‘इसके एक साल बाद मैं उनसे मिली. वे हैरान थे कि आखिर मुझे इस शादी की भनक कैसे लग गई थी.’ मगर प्रधान ने धर्मेंद्र को ये नहीं बताया कि ये धमाका और भी बड़ा हो सकता था अगर उनके फोटोग्राफर बीके सनिल ने शादी की तस्वीरों वाला वह फिल्म रोल इस दंपत्ति को लौटा नहीं दिया होता जो गलती से उनके हाथ लग गया था.
इस कहानी को सुनकर धर्मेंद्र के छोटे बेटे बॉबी देओल मुस्कराते हुए कहते हैं, ‘वे बॉलीवुड के सबसे ज्यादा चहेते अभिनेता थे और उनके लिए सब माफ था. आप हाथ बढ़ाइए और वे आपको गले लगा लेंगे. आप गले मिलने के लिए बढ़िए और आपके लिए शाम को एक जाम की पेशकश हो जाएगी.’ बॉबी के मुताबिक ये लोगों का धर्मेंद्र के प्रति प्यार ही था जिसकी वजह से बॉलीवुड ने इतनी आसानी से उनकी चर्चित दूसरी शादी को स्वीकार लिया. इसके अलावा धर्मेंद्र का व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था कि कोई उनसे नफरत कर ही नहीं सकता था. दूसरी शादी से कुछ साल पहले ही उन्हें दुनिया के सबसे खूबसूरत लोगों में शुमार किया गया था. धर्मेंद्र के बाद बॉलीवुड इस उपलब्धि से लंबे समय तक महरूम रहा और 1997 में कहीं जाकर सलमान खान ने इस स्थितिको बदला.
किसी भी फिल्म स्टार की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वह पुरुषों और महिलाओं, दोनों में कितना लोकप्रिय है. धर्मेंद्र इस मामले में किस्मत के धनी रहे. यानी महिलाएं भी उनकी दीवानी थीं और पुरुष भी उन्हें खूब पसंद करते थे. 1974 में मीना कुमारी और उनके पति कमाल अमरोही के चर्चित अलगाव और फिर मीना कुमारी के धर्मेंद्र से जुड़ाव के बारे में काफी कुछ जानकारी रखने वाले बॉबी कहते हैं, ‘महिलाएं मेरे पिता की जिंदगी से अभिन्न रूप से जुड़ी हुई हैं.’
शूटिंग के दौरान धर्मेंद्र लाइटब्वॉयज को चुपके से पैसे दिया करते थे. बदले में लाइटब्वॉयज का काम ये होता था कि वे शॉट के दौरान कोई गड़बड़ कर दें ताकि धर्मेंद्र थोड़ा और देर तक हेमामालिनी के नजदीक रह सकेंधर्मेंद्र और मीना कुमारी की जोड़ी 1965 में बनी फिल्म काजल में चमकी. इस फिल्म में धर्मेंद्र ने एक ऐसे शख्स का किरदार निभाया था जिसे हीरोइन अपने भाई की तरह मानती है मगर उसके पति को इस रिश्ते पर शक होता है. 1966 में इन दोनों की दूसरी फिल्म फूल और पत्थर आई जो सुपरहिट रही. इस फिल्म में मीना कुमारी का किरदार एक दुखी विधवा का था जो सुरक्षा के लिए धर्मेंद्र की ओर देखती है.
हालांकि ये भी एक विडंबना ही थी कि लगातार हिट फिल्में देने और अपार लोकप्रियता के बावजूद हिंदी सिनेमा के इस हीमैन की झोली से फिल्मी पुरस्कार दूर ही रहे. 1997 में कहीं जाकर उन्हें फिल्मफेयर का लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार मिल सका. दिलीप कुमार और उनकी पत्नी सायरा बानो से ये पुरस्कार लेते हुए धर्मेंद्र ये बताते हुए थोड़ा भावुक हो गए कि कैसे इतनी हिट फिल्में देने के बावजूद कभी उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फिल्मफेयर अवार्ड नहीं मिला जबकि उनकी प्रतिभा, फिल्मफेयर द्वारा आयोजित एक आयोजन में ही खोजी गई थी. धर्मेंद्र ने अपनी बात खत्म की ही थी कि दिलीप कुमार एक पल गंवाए बिना बोल पड़े, ‘कोई बात नहीं, जब भी मैं ऊपरवाले से मिलूंगा मेरी उससे एक ही शिकायत होगी कि उसने मुझे धर्मेंद्र जितना हैंडसम क्यों नहीं बनाया.’ माहौल हंसी और तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा.
ये धर्मेंद्र की खूबसूरती और अभिनय प्रतिभा ही थी कि उन्होंने 1960 में आई दिल भी तेरा हम भी तेरे से लेकर 2007 में प्रदर्शित जॉनी गद्दार तक 250 फिल्मों में अपना लोहा मनवाया. आज यकीन करना मुश्किल है कि हकीकत, बंदिनी, फूल और पत्थर, सत्यकाम, जुगनू, राजा जानी, चुपके-चुपके, मेरा गांव मेरा देश, सीता और गीता और शोले जैसी सफल और यादगार फिल्में देने वाले धर्मेंद्र को कभी वह श्रेय नहीं मिला जिसके वे हकदार थे.
जाने-माने फिल्मकार गुलजार हैरानी जताते हैं कि आखिर इस अभिनेता ने क्यों हर बार अपनी फिल्म की हीरोइनों मीना कुमारी, नूतन, माला सिन्हा और सुचित्रा सेन को ही सारी वाहवाही लूटने दी और खुद सिर्फ एक रोमांटिक भूमिका में संतुष्ट रहे. शायद इसकी वजह ये रही कि गठीले बदन के होने के बावजूद उनके व्यक्तित्व में एक खास मुलायमियत थी और लाखों में एक उनकी हंसी उनके अभिनय से लोगों का ध्यान भटका देती थी.
भारतीय सिनेमा के इस आदर्श लवर ब्वॉय पर गुलजार कहते हैं, ‘मेरे लिए धर्मेंद्र सबसे अच्छे देवदास हैं क्योंकि केवल वे ही ऐसे हैं जिनकी जवानी उनके साथ बनी रही जबकि पारो और चंद्रमुखी उम्र के साथ आगे बढ़ गईं.’
सामंतवादी ठाकुर के शोषण से लड़ते जाट हीरो को लोगों ने पसंद किया और गुलामी, यतीम, बंटवारा और क्षत्रिय जैसी फिल्मों से धर्मेंद्र हीरो के रूप में थोड़ा लंबे समय तक चल पाए. मगर ये वह दौर था जो फौरन ही खत्म भी हो गया
प्यार और शराब को लेकर धर्मेंद्र से जुड़े किस्से अब मिथक सरीखे बन चुके हैं. लेखिका और टीवी एंकर अनुपमा चोपड़ा ने अपनी किताब द मेकिंग ऑफ शोले में इन किस्सों में से कई का जिक्र किया है. शोले का सेट बैंगलोर के पास स्थित एक गांव रामनगरम में बनाया गया है. चोपड़ा याद करती हैं कि किस तरह शूटिंग के दौरान धर्मेंद्र लाइटब्वॉयज को चुपके से पैसे दिया करते थे. बदले में लाइटब्वॉयज का काम ये होता था कि वे शॉट के दौरान कोई गड़बड़ कर दें ताकि धर्मेंद्र थोड़ा और देर तक हेमामालिनी के नजदीक रह सकें. चोपड़ा हंसते हुए बताती हैं, ‘लाइटब्वॉयज को इससे रोमांच भी मिलता था और पैसे भी. शूटिंग खत्म होने तक उनमें से हर एक लगभग 1500 रुपए कमा चुका था. एक बार खूब पीने के बाद धर्मेंद्र आधी रात को बैंगलोर स्थित होटल से अचानक निकले और अकेले ही पैदल चलते हुए गांव तक पहुंच गए. इसके बाद वे वहां एक चट्टान पर सो गए. वे प्यार और शराब दोनों साथ-साथ संभाल सकते थे.’
मगर धर्मेंद्र की जिंदगी में प्यार और शराब के अलावा भी बहुत सी दूसरी चीजें हैं जिनके लिए उन्हें याद किया जाता है. 1960 और 1970 के दशक के दौरान उनके फिल्मी सफर पर नजर डाली जाए तो उनके कई रूप दिखते हैं. कहीं उनमें अमिताभ वाला एंग्री यंग मैन दिखता है,
कहीं वादियों में तराने छेड़ता शम्मी कपूर और कहीं आत्ममुग्ध राजेश खन्ना. इन खासियतों के बल पर धर्मेंद्र ने हर फिल्म अपने मजबूत कंधों पर संभाली. लड़ाई के दृश्यों के दौरान वे जब भी चिल्लाते, कुत्ते..तो सिनेमा हॉल में बैठे दर्शकों कों को एक अजीब सा आनंद मिलता. ये डायलॉग धर्मेंद्र के साथ अभिन्न रूप से जुड़ गया था.
बॉलीवुड के इतिहासकार दिनेश रहेजा कहते हैं, ’60 के दशक की उनकी फिल्में संगीत और ड्रामा आधारित रहीं जबकि 70 के दशक में मेरा गांव मेरा देश और जुगनू में वे स्टाइलिश और एक्शन हीरो के तौर पर उभरे.’ आज भी वे कैमरा के सामने शानदार परफॉर्मर के तौर पर जाने जाते हैं. सायरा बानो के शब्दों में, ‘वे हीरोइनों के चहेते थे.’ वहीदा रहमान कहती हैं, ‘वे एक संपूर्ण अभिनेता हैं जिन्होंने हर फिल्म में अपनी एक खास छाप छोड़ी. राजनीति उनके बस की बात नहीं है. हैरत की बात नहीं कि वे संसद में जाने की बजाय खेती-किसानी को तरजीह देते रहे.’ उनके मुरीद कहते भी हैं कि धर्मेंद्र भाषण देने या रिबन काटने के लिए बने ही नहीं हैं.
पहचान भले ही हीमैन के तौर पर ज्यादा हो मगर धर्मेंद्र की कई फिल्में ऐसी भी हैं जिनमें उनके चरित्रों से सरोकार और सामाजिक यथार्थ झलकता है. सत्यकाम व आदमी और फरिश्ता में वे एक ईमानदार इंजीनियर हैं तो ममता में एक बैरिस्टर. बंदिनी में वे एक जेल डॉक्टर हैं, मेरा गांव मेरा देश में एक ईमानदार पुलिसवाले और यादों की बारात में अपने भाइयों से बेहद प्यार करने वाला एक शख्स.
फिल्मकार समर खान कहते हैं, ‘आप ही बताइये बंगाल के साहित्यिक आदर्शवाद को हिंदी सिनेमा में इतने आदर्श तरीके से किसने दिखाया है?’ उनका इशारा ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म सत्यकाम की तरफ है. 1969 में आई इस फिल्म को हिंदी सिनेमा के इतिहास में मील का पत्थर कहा जाता है. इसमें धर्मेंद्र ने एक ईमानदार सिविल इंजीनियर की भूमिका निभाई थी जो अपने फैसलों से कइयों को मुसीबत में डाल देता है. इनमें से सबसे दुस्साहसिक फैसला होता है एक ऐसी लड़की से शादी करना जिसका एक बिगड़ैल शहजादे ने बलात्कार किया है और जो गर्भवती हो गई है.
टिप्पणीकारों ने स्क्रीन पर उनके उपनिवेश विरोधी राष्ट्रवादी आदर्शों की तुलना इंदिरा गांधी द्वारा नेहरू के बाद समाजवाद का एक नया दौर शुरू करने के लिए किए गए कांग्रेस के विभाजन से की. संयोग ही था कि वह साल भी 1969 ही था. धर्मेंद्र खुद भी सत्यकाम का सबसे अच्छा दृश्य उसे मानते हैं जहां उनका चरित्र अवैध संतान के रूप में अपने पिता अशोक कुमार का सामना करता है जो उसे फटकार लगा रहा होता है. गुलजार कहते हैं, ‘धर्मेंद्र के पास कोई डायलॉग्स नहीं हैं. वे बस अशोक कुमार की बात सुनते हैं और उनकी चिंताओं को हंस कर उड़ा देते हैं.’ गुलजार ये भी जोड़ते हैं कि कई मायनों में सत्यकाम 1973 में आई प्रकाश मेहरा की जंजीर की प्रस्तावना थी जिसने अमिताभ को सुपरस्टार बना दिया. संयोग की बात है कि मेहरा ने ये स्क्रिप्ट पहले धर्मेंद्र को दिखाई थी मगर उन्होंने ये फिल्म करने से सिर्फ इसलिए मना कर दिया था क्योंकि उस समय वे बहुत व्यस्त थे.
1973 में एक तरफ जहां जंजीर आई तो दूसरी तरफ श्याम बेनेगल की अंकुर और एमएस सथ्यू की गरम हवा के साथ समानांतर सिनेमा का भी उद्भव हुआ. इसी साल राजकपूर की फिल्म बॉबी आई जिसे खूब कामयाबी मिली. हिंदी सिनेमा का मिजाज अब बदल रहा था. ये बदलाव धर्मेंद्र से ज्यादा दूसरों के लिए फायदेमंद साबित हुआ. अब सलीम खान और जावेद अख्तर यानी सलीम-जावेद की जोड़ी का बोलबाला था जिनकी कहानियां अमिताभ के बगावती तेवरों पर ज्यादा फिट बैठती थीं. इस बदलाव का नतीजा ये हुआ कि अगले दो दशक तक सिल्वर स्क्रीन की धारा बदली रही. यही वजह रही कि 1975 में शोले और चुपके-चुपके के साथ अपनी लोकप्रियता के चरम पर पहुंच जाने के बावजूद धर्मेंद्र को वह जगह नहीं मिल पाई जिसके वे हकदार थे.
हालांकि उनके लिए फिर भी कुछ राहत थी. रहेजा बताते हैं कि 1980 के दशक में मारधाड़ वाली फिल्मों के चलन की वजह से कई अभिनेताओं का करिअर लंबा खिंच गया. वे कहते हैं, ‘इससे 1970 के दौर के और 40 से अधिक उम्र के तीन अभिनेताओं का करिअर लंबा हो गया – धर्मेंद्र, विनोद खन्ना और शत्रुघ्न सिन्हा.’ रहेजा आगे जोड़ते हैं कि सामंतवादी ठाकुर के शोषण से लड़ते जाट हीरो को लोगों ने पसंद किया और गुलामी, यतीम, बंटवारा और क्षत्रिय जैसी फिल्मों से धर्मेंद्र हीरो के रूप में थोड़ा लंबे समय तक चल पाए. मगर ये वह दौर था जो फौरन ही खत्म भी हो गया.
धर्मेंद्र को फिल्म इंडस्ट्री में 50 साल हो गए हैं. जल्द ही वे अपने बेटों सन्नी और बॉबी के साथ फिल्म चीयर्स-सेलिब्रेट लाइफ में नजर आएंगे. सन्नी कहते हैं, ‘दरअसल ये फिल्म डैड के फिल्म इंडस्ट्री में 50 साल पूरे होने की खुशी मनाने की एक कोशिश है. यानी सत्यकाम का सत्यप्रिय एक नई भूमिका के लिए फिर से तैयार है.’