हाल ही में जब पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतें बढ़ीं तो सरकार ने पूर्व केंद्रीय सचिव बी के चतुर्वेदी की अध्यक्षता में एक कमेटी भी बनाई. उल्लेखनीय है कि कमेटी को तेल कंपनियों की वित्तीय हालत और दूसरी चीज़ों के साथ-साथ जिस एक और बात का आकलन करना था वो था तेल कंपनियों का असल घाटा. यानी कि देश को तेल बेचने पर 2 लाख से ज्यादा का घाटा दिखा रही सरकार को अब तक खुद ये मालूम नहीं है कि दरअसल ये घाटा अभी है कितना!
दरअसल जिस चीज़ को अक्सर कंपनियों के घाटे की तरह देश के सामने रखा जाता है उसे अंडर रिकवरी कहते हैं और ये कंपनियों की हालत की सही तस्वीर देश के सामने नहीं रखती. असल में खुदरा तेल बेचने वाली हिंदुस्तान पेट्रोलियम या भारत पेट्रोलियम सरीखी कंपनियां तेलशोधक कारखानों से तेल उस कीमत पर खरीदती हैं जिस कीमत पर ये तेल उन्हें आयात करने पर मिला होता. यानी कि इस कीमत में अनावश्यक ही कई तरह के कर और ढ़ुलाई का खर्चा आदि जुड़े होते हैं. ऐसा जोड़-घटाव को आसान बनाने के लिए किया जाता है. इसके अलावा तेल की आपूर्ति करने वाली कंपनियां मांग का करीब 30 प्रतिशत भारत में ही उत्पादन करती हैं और ये कंपनियां जिस कीमत पर विदेश से तेल खरीदती हैं वो भी अंतर्राष्ट्रीय कीमत से काफी कम होती है मगर मार्केटिंग कंपनियों को ये आयात वाले दामों पर ही दिया जाता है. अब इस ज़बर्दस्ती मंहगे खरीदे-बेचे तेल को तेल मार्केटिंग कंपनियां सस्ते में बेच कर जो घाटा कमाती हैं उसे अंडर रिकवरी कहते हैं. एक बात और, तेल कंपनियों को और भी कई तरह के फायदे और अतिरिक्त आय होती है जिन्हें अंडर रिकवरी में शामिल नहीं किया जाता. यानी कि केवल दिखावे का इतना बड़ा घाटा होती है ये अंडर रिकवरी. और अगर ये घाटा है भी तो केवल तेल मार्केटिंग कंपनियों का, तेल को खरीदने और बेचने का असल घाटा नहीं.
अब इस मंहगे तेल को अपनी या अपने देश की ही दूसरी कंपनी से खरीद कर सस्ते में बेचने पर जो घाटा होता है उसे अंडर रिकवरी कहते हैं.अगर अब घाटे के दूसरे पहलू पर नज़र डालें और पेट्रोल का उदाहरण लें तो इसकी कीमत में 55% हिस्सा केवल करों का ही होता है. इनमें से कुछ कर केंद्र सरकार(करीब 25 फीसदी) लगाती है तो कुछ राज्य सरकार(करीब 30 फीसदी). तेल उत्पादों से होने वाली कमाई इतनी है कि केंद्र को उत्पाद और आयात शुल्क से मिलने वाले कुल राजस्व का करीब 40 फीसद औऱ राज्यों को बिक्री कर से मिलने वाले कुल राजस्व का करीब 40 फीसद पेट्रोलियम पदार्थों से ही आता है. कोढ़ पर खाज ये है कि उत्पाद शुल्क का एक हिस्सा और राज्य सरकार द्वारा लगाए जा रहे सभी कर एड वेलोरम हैं यानी कि ये उत्पाद की मात्रा पर नहीं बल्कि उत्पाद की कीमत पर निर्भर करते हैं और अगर उत्पाद की कीमत बढ़ गई तो लगने वाला टैक्स भी बढ़ जाएगा. अगर सीधी साधी तरह से कहा जाए तो इस बार हुई तेल के दामों में बढ़ोत्तरी के बाद अगर राज्य सरकारें बिक्री कर से होने वाली अकूत कमाई को केवल स्थिर ही रखें बढ़ाएं नहीं तो भी पेट्रोल की कीमतों में करीब डेढ़ रुपया, डीज़ल की कीमतों में 50 पैसे से 1 रुपया तक और एलपीजी में 6 रुपये तक घटाये जा सकते हैं. मगर राज्य सरकारें पहले से ही तेल की मंहगाई का सदमा झेल रहे लोगों के टेंटुंवों को कुछ और दबाने से बाज ही नहीं आतीं. यहां ये और दीगर बात है कि हमारे करीब-करीब सारे पड़ोसी देशों में करों की मात्रा हमारे देश से काफी कम है. मसलन भारत के 55 फीसदी के बरक्स श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल में पेट्रोल के लिए ये क्रमश: 37, 24 और 31 फीसदी ही है.
हालांकि प्रधानमंत्री ने राष्ट्र को किए संबोधन में राज्यों से भी अपना दायित्व निभाने की अपील की थी मगर उनके ऐसा करने से किसी पर कुछ फर्क पड़ता नहीं दिखा. हां सोनिया गांधी की कांग्रेस शासित राज्यों से अपील ने ज़रूर थोड़ा असर दिखाया जिससे कुछ राज्यों में दामों में हल्की गिरावट देखी गई और बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह को भी बीजेपी शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों से इसी तरह की अपील करनी पड़ी. मगर यहां सवाल ये उठता है कि पहले से ही सभी राज्यों से विचार करके कोई सुसंगत कदम क्यों नहीं उठाया गया? मान लिया कि सरकार जनता के गुस्से से बचने के लिए महीनों से कीमतों की बढ़ोत्तरी को टाल रही थी मगर जो करों में अब थोड़ा बहुत बदलाव किया गया है कम से कम वो तो पहले किया जा सकता था. प्रधानमंत्री भी तो केंद्रीय मंत्रियों से विभागों के खर्चे कम करने की अपील और इसके दिशानिर्देश पहले ही जारी कर सकते थे.
दामों में बढ़ोत्तरी के बाद अगर राज्य सरकारें बिक्री कर से होने वाली अकूत कमाई को केवल स्थिर ही रखें तो भी पेट्रोल की कीमतों में करीब डेढ़ रुपया, डीज़ल की कीमतों में 50 पैसे से 1 रुपया तक और एलपीजी में 6 रुपये तक घटाये जा सकते हैं.
कुछ दिन पहले सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियों को कंगाली से बचाने के लिए वाम दलों ने भी सरकार को कुछ उपाय सुझाए थे मगर सरकार ने उनमें से ज़्यादातर को बिल्कुल ही नज़रअंदाज़ कर दिया गया. कर ढ़ांचे में बदलाव की सिफारिश करने के साथ वाम दलों का कहना था कि देश के निजी तेल उत्पादकों को सपने में भी ये उम्मीद नहीं रही होगी कि दुनिया में तेल की कीमतें और इसलिए उनका मुनाफा इस तरह कई सौ फीसदी बढ़ जाएगा, इसलिए निजी उत्पादकों पर एक समय अमेरिका द्वारा लगाए गए ‘अप्रत्याशित लाभ कर’ जैसा कर लगाया जाना चाहिए. वामदल ये भी चाहते थे कि 2007-08 में उत्पाद शुल्क और कॉरपोरेट शुल्क में रियायत से सरकार को करीब 1 लाख 40 हज़ार करोड़ रुपये का नुकसान हुआ और अगर इस शुल्क के एक छोटे से हिस्से को जारी रखा जाए तो इसका इस्तेमाल तेल कंपनियों को कर में छूट देने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है. इसके अलावा वाम नेताओं का कहना था कि तेल उद्योग के विकास के लिए जो 7500 करोड़ रुपये सालाना का उपकर ओएनजीसी और ऑइल इंडिया लिमिटेड से लिया जाता है उसका इस्तेमाल कीमतों को स्थिर रखने के लिए किया जा सकता है.
अब सब उपायों पर न सही तो इनमें से कुछ पर और इन पर भी पूरा नहीं तो आधा-अधूरा अमल तो किया ही जा सकता है. भले इससे सरकार के कथित लाखों के तेल घाटे में कोई खास फर्क नहीं पड़ता मगर सरकार के ही मुताबिक फर्क तो 5, 3 और 50 रुपये बढ़ाकर भी कोई खास नहीं पड़ा है.
एक सरकारी सूत्र के मुताबिक पेट्रोल पर सीधे पांच रुपये बढ़ाने के पीछे सोच ये थी कि कीमतें बढ़ाने के बाद जनता की प्रतिक्रिया और मुद्रास्फीति के हिसाब से यूपीए शासित राज्यों में बिक्री कर कम करवाया जाएगा जिसके परिणामस्वरूप विरोधी दलों द्वारा शासित सरकारों पर भी कीमतें कम करने का दबाव बनेगा. इससे केंद्र को थोड़ा सा राहत मिलेगी और जनता की नाराज़गी भी थोड़ी कम होगी.
यहां विचारने लायक ये भी है कि पट्रोलियम पदार्थों पर सब्सिडी का फायदा उनमें से बहुत कम लोगों को मिलता है जिनके लिए ये घोषित रूप से दी जाती है. होता ये है कि ज़रूरतमंदों और गैरज़रूरतमंदों में भेद करने के लिए ज़रूरी तंत्र और नीतियों के अभाव में और सभी को उतनी सब्सिडी न दे पाने की स्थिति में सरकार कीमतों को कहीं बीच में रख देती है. नतीजा ये होता है कि दाम निचले तबके की जेब से बाहर चले जाते हैं और इसका सबसे ज़्यादा फायदा अनावश्यक रूप से उन्हें मिल जाता है जिन्हें इससे कोई फर्क ही नहीं पड़ता.
अंत में सरकार की मुश्किल ये है कि चूंकि चुनाव सर पर हैं इसलिए थोक के भाव घोषित लोकलुभावन योजनाओं पर खर्च करने के लिए धन चाहिए मगर चुनाव सर पर है इसलिए ही पेट्रो उत्पादों के दाम बढ़ाकर जनता को नाराज़ और कहीं अगर इससे चौतरफा मंहगाई और बढ़ गई तो और भी ज़्यादा नाराज़ भी कैसे किया जा सकता है!
मगर जो कुछ किया जा सकता है वो सरकार ठीकठाक कर रही है ऐसा शायद ही कोई कह सकता हो…
संजय दुबे