बजट : राहत या दिखावट

पड़ोस में किराए के एक मकान में जगदीश गुप्ता जी रहते हैं. करीब चालीस साल के गुप्ता जी के परिवार में उनकी मां, पत्नी, एक बेटी और बेटा हैं. अगर दस साल की बेटी को भी गिन लिया जाए तो कुल मिलाकर घर में तीन महिला सदस्य हैं. गुप्ता जी की मासिक आय करीब 25-26000 रुपये है. हिसाब लगाएं तो साल भर में अगर अपनी तीन लाख से कुछ ज़्यादा की आमदनी में से वो कुछ भी न बचाएं—दिल्ली में पांच लोगों के परिवार में वैसे भी इतनी तनख्वाह में कोई बचत शायद ही मुमकिन हो—तो उन्हें नये बजट के मुताबिक करीब तीस हज़ार रुपये कर के रूप में सरकार को देने होंगे…

दूसरा उदाहरण मेरा ही लें. दिल्ली में पत्नी के साथ रहता हूं…ठीक-ठाक कमाता हूं, पत्नी भी कमाती है…इस साल तक कर के दायरे में आती थी मगर वित्तमंत्री के फज़ल से कर अयोग्य आय की सीमा एक लाख अस्सी हज़ार हो गई और अगर अगले साल उसकी वार्षिक आय न बढ़ी तो उसे इस सरकारी देनदारी से मुक्ति मिल जाएगी…पुरुषों की आयकर छूट की सीमा बढ़ने से गुप्ता परिवार की तीन ज़रूरतमंद महिलाओं को फायदा मिलता मगर महिलाओं के लिए छूट से ज़्यादातर फायदा उन्हें होगा जिन्हें शायद इससे ज़्यादा फर्क ही नहीं पड़ता.

अब कई सवाल उठते हैं: पहला, हमारे देश में मेरे जैसे परिवार ज़्यादा हैं या जगदीश गुप्ता जी जैसे? दूसरा, मेरी बीवी को कर में ज़्यादा छूट की ज़्यादा ज़रूरत है या गुप्ता जी को? तीसरा ज़्यादा महिलाओं को महिलाओं के नाम पर मिलने वाली आयकर छूट से फायदा होना है या पुरुषों को मिलने वाली आयकर छूट से? 

अगर पुरुषों की आयकर छूट की सीमा और बढ़ जाती तो गुप्ता जी के परिवार की तीन ज़रूरतमंद महिलाओं को इसका कुछ न कुछ फायदा ज़रूर मिलता मगर महिलाओं के लिए बजट में उद्घोषित छूट से ज़्यादातर फायदा उन्हें होगा जिन्हें इतना फायदा होने न होने से कोई खास फर्क ही नहीं पड़ता. 

यानी कि बिना सही ज़रूरतमंदों की पहचान किये उठाया गया ये कदम केवल महिलाओं को चुनावी वक्त में लुभाने की एक लोकलुभावन तरकीब जैसा है…

ऐसा ही कुछ वरिष्ठ नागरिकों के लिए भी कहा जा सकता है. बजट में आयकर छूट की सीमा बढ़ा कर सवा दो लाख कर दी गई है…मगर सोचने योग्य बात ये है कि जो व्यक्ति साठ साल से ऊपर होने के बावजूद महीने के बीस हज़ार रुपये तक कमा रहा होगा वो कोई लल्लू पंजू तो होगा नहीं…फिर ऐसे लोग होंगे भी बहुत कम…और वैसे तो पैसा किसी को भी पूरा नहीं पड़ता मगर उसे इतनी छूट की शायद ही कोई ज़रूरत हो…यानी कि योजना का प्रचार बड़ा है मगर इसका फायदा उठाने वाली जनसंख्या का आकार बड़ा ही छोटा होगा…और जिन्हें इसका फायदा होगा उन्हें इसकी कोई ज़रूरत नहीं…

अब सरकार की बहुप्रचारित राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के भूसे में सुई ढूंढ़ते हैं…

ग्रामीण रोज़गार के लिए सरकार ने कितना बढ़िया काम किया है. एक योजना खत्म कर उसका धन दूसरी में डाला और बिना गांठ का कुछ खर्च किए इसका कार्य क्षेत्र भी बढ़ा दिया.

पता चला है कि इस योजना के मद में इस साल पिछले साल के बारह हज़ार करोड़ के मुकाबले सोलह हज़ार करोड़ रुपयों का आबंटन किया गया है मगर सच ये भी है कि पिछले साल के 330 ज़िलों के मुकाबले इस बार इसका क्षेत्र बढ़ाकर करीब 600 ज़िले कर दिया गया है…यानी कि पैसा बढ़ाया ज़रूर गया है मगर प्रति ज़िला मिलने वाला धन इस साल काफी कम हो गया है. और उस पर भी तुर्रा ये कि साल 2007-2008 में चलने वाली संपूर्ण ग्रामीण रोज़गार योजना को अब बिलकुल खत्म कर दिया गया है जिसके लिए पिछले साल करीब साढ़े तीन हज़ार करोड़ रुपये आबंटित किये गए थे. ज़रा सोचकर देखें कि ग्रामीण रोज़गार को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने कितना बढ़िया काम किया है. एक योजना खत्म कर उसका बचा धन दूसरी में डाला और बिना गांठ का कुछ खर्च किए योजना का कार्य क्षेत्र करीब दुगुना कर दिया यानी कि सूत न कपास गुरूजी का बस लट्ठमलट्ठा.

अब आते हैं किसानों के साठ हज़ार करोड की ऋणमाफी की लगातार की जा रही सरकारी और कांग्रेसी मुनादी पर…इसके मुताबिक दो हेक्टेयर से कम जोत वाले किसानों का बकाया कर्ज़ा माफ कर दिया जाएगा और इससे बड़ी जोत वालों को एकमुश्त भुगतान करने पर केवल तीन चौथाई रकम ही चुकानी होगी. इस मामले में धन कहां से आएगा अभी तक स्पष्ट नहीं है मगर कहीं से भी आए क्या ये ज़रूरतमंदों तक पहुंचेगा?

हकीकत ये है कि बैंकों का ऋण अपेक्षाकृत संपन्न और गिने चुने किसानों को ही मिलता है और ज़्यादातर किसान साहूकारों से मिले कर्ज़ के जाल में गर्दन तक धंसे हुए होते हैं. बैंक ऐसे किसानों को कर्ज़ा देने से हमेशा ही झिझकते रहे हैं जिनसे, सिंचाई वगैरह के उचित संसाधन न होने की वजह से, कर्ज़ा वापस होने की उम्मीद कम हो. ये भी किसी से छिपा नहीं कि बैंक कम जोतों वाले किसानों से भी दूर ही रहना पसंद करते हैं…आखिर उन्हें अपने व्यापारिक हितों को भी तो देखना है. इसके अलावा विदर्भ और बुंदेलखंड में कितने ही ऐसे लोगों ने आत्महत्याएं की हैं या करने की कगार पर हैं जिनकी जोतें कर्ज़माफी के दायरे में ही नहीं आतीं. यानी कि किसानों की समस्याओं को उनकी जोतों के आकार के आधार पर नापना कतई उचित नहीं…पूछा जा सकता है कि छोटी जोत वाले और संकटग्रस्त बड़ी जोत वालों को तो कर्ज़ मिलता ही नहीं तो सरकार कर्ज़माफी देने किसे जा रही है? शायद बहुत थोड़े  बड़ी जोत वाले उन संपन्न किसानों को जो पिछले कर्जे का तीन चौथाई वापस कर अगला कर्ज़ लेने की तैयारी कर रहे हैं.

अब सवाल ये है कि कांग्रेस पार्टी जो बजट के ज़रिए किसानों और दूसरे ज़रूरतमंदों को तरक्की के सब्ज़बाग दिखा खुद भी फिर से सत्ता में आने के ख्वाब देख रही है, लोगों को बजट का असली अर्थशास्त्र समझने का वक्त देती है या नहीं?

संजय दुबे

इस वर्ग की सभी रचनाएं