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वैवाहिक बलात्कार. भारतीय कानून में अभी इसकी कोई सजा नहीं है. यानी अपनी ही पत्नी से यदि कोई पुरुष बलात्कार करता है तो कानून उसे बलात्कारी नहीं मानता. बलात्कार संबंधी भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के अनुसार यदि पत्नी की उम्र 15 वर्ष से अधिक है तो उसके साथ जबरदस्ती के यौन संबंध को बलात्कार नहीं माना जा सकता. काफी समय से धारा 375 में मौजूद इस प्रावधान का विरोध होता रहा है. कई महिला अधिकार कार्यकर्ता वैवाहिक बलात्कार को दंडनीय घोषित करने की मांग करते रहे हैं. पिछले साल महिला संबंधी कानूनों में जब बदलाव हुए, तब भी यह मांग जोरों से उठी थी. लेकिन उल्टा ये बदलाव ही एक लिहाज से विवाहित महिलाओं के विरोध में चले गये.
पहले धारा 375 में मौजूद बलात्कार की परिभाषा सीमित थी. तब यदि कोई पुरुष किसी महिला के साथ जबर्दस्ती एनल या ओरल सेक्स करता था तो उसे प्रकृति विरुद्ध अपराध माना जाता था. हालांकि तब भी पत्नी के साथ बलात्कार दंडनीय नहीं था लेकिन वह इस तरह के जबरन सेक्स के लिए अपने पति को धारा 377 के तहत सजा दिलवा सकती थी. नए कानून में एनल और ओरल सेक्स को भी बलात्कार की परिभाषा में शामिल कर लिया गया. साथ ही इस परिभाषा में पत्नी के साथ जबर्दस्ती को बलात्कार न मानने वाले प्रावधान में भी कुछ मामूली बदलाव कर दिया गया. इसके बाद से पत्नी के साथ जबर्दस्ती के कैसे भी यौन संबंधों को बलात्कार नहीं माना जा सकता. ऐसे में धारा 377 की जो उपयोगिता पहले पीड़ित पत्नियों के लिए ‘अप्राकृतिक’ यौन उत्पीड़न को लेकर थी अब कानूनी विरोधाभास में उलझ कर रह गई है. दूसरी तरफ यह धारा सहमति से संबंध बनाने वाले समलैंगिकों को आजीवन कारावास तक की सजा दिलाने के लिए पर्याप्त है.
धारा 377 से जुड़ा यह विवाद तो ऐसा है जिस पर अभी चर्चा तक शुरू नहीं हुई है. इससे पहले ही यह धारा आज ऐसे विमर्श को जन्म दे चुकी है जिसके संवैधानिक, विधिक, धार्मिक, सामाजिक, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक और वैज्ञानिक पहलू भी हैं. इन पहलुओं को टटोलने से पहले जानते हैं कि आखिर धारा 377 है क्या? भारतीय दंड संहिता की धारा 377 प्रकृति-विरुद्ध अपराध को परिभाषित करते हुए कहती है कि ‘जो कोई किसी पुरुष, स्त्री या जीव-जंतु के साथ प्रकृति की व्यवस्था के विरुद्ध स्वेच्छया इंद्रिय-भोग करेगा, वह आजीवन कारावास से या दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकेगी, दंडित किया जाएगा और जुर्माने से भी दंडनीय होगा.’ इसी धारा में आगे एक स्पष्टीकरण भी है जो कहता है कि ‘इस धारा में वर्णित अपराध के लिए आवश्यक इंद्रिय भोग करने के लिए प्रवेशन(पेनिट्रेशन) पर्याप्त है.’
आम तौर पर यौन अपराध तभी अपराध माने जाते हैं जब वे किसी की सहमति के बिना किए जाएं. लेकिन धारा 377 में कहीं भी सहमति का जिक्र नहीं है. इस कारण यह धारा समलैंगिक पुरुषों के सहमति से बनाए गए यौन संबंधों को भी अपराध की श्रेणी में पहुंचा देती है. इस धारा के विवादस्पद होने का मुख्य कारण भी यही है. 2009 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस धारा को उस हद तक समाप्त कर दिया था, जहां तक यह सहमति से बनाए गए संबंधों पर रोक लगाती थी. लेकिन दिसंबर 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने इसे दोबारा से इसके मूल स्वरुप में पहुंचा दिया है.
इस धारा के बनने, संशोधित होने और दोबारा से वही बन जाने के सफर को उसी क्रम में देखते हैं.
दिल्ली की एक संस्था है ‘नाज़ फाउंडेशन’. यह संस्था काफी समय से एड्स की रोकथाम और इसके प्रति जागरूकता फ़ैलाने का काम कर रही है. 2001 में इसी संस्था ने दिल्ली उच्च न्यायालय से धारा 377 को गैर-संवैधानिक घोषित करने की मांग की थी. इसके बारे में संस्था की संस्थापक अंजलि गोपालन बताती हैं, ‘समलैंगिक संबंध बनाने वाले पुरुष एड्स होने पर भी सामने नहीं आते. उन्हें डर होता है कि धारा 377 के तहत उन्हें सजा न हो जाए. ऐसे में एड्स की रोकथाम तो क्या संक्रमित लोगों की पहचान भी नहीं हो पाती.’ अंजलि आगे बताती हैं, ‘पुलिस अधिकारियों द्वारा समलैंगिक लोगों के उत्पीड़न के भी कई मामले हुए हैं. ऐसे में वे लोग सुरक्षित यौन संबंध बनाने के लिए चिकित्सकीय सामग्री खरीदते वक्त भी घबराते थे. हमारी संस्था के लोग यह सामग्री उन्हें बांटते थे. ऐसे में हम पर यह आरोप लगता था कि हम धारा 377 के अपराध को बढ़ावा दे रहे हैं. कई बार हमारे कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार भी किया गया.’
इन्हीं कारणों से नाज़ फाउंडेशन दिल्ली उच्च न्यायालय पहुंची. फाउंडेशन की ओर से दाखिल की गई याचिका में कहा गया कि धारा 377 कई लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन कर रही है. साथ ही यह भी कहा गया कि यह धारा समलैंगिक लोगों के एक समूह को ही निशाना बना रही है. इस समूह को अमूमन एलजीबीटी (लेस्बियन, गे, बाईसेक्शुअल, ट्रांसजेंडर) कहा जाता है. इस याचिका के समर्थन में कई अन्य लोग भी उच्च न्यायालय पहुंचे. इनमें एलजीबीटी समुदाय के लोग और उनके अभिभावकों का एक संगठन भी शामिल था. इसी मामले में समलैंगिक लोग पहली बार खुल कर अपने अधिकारों के लिए सामने आए. हालांकि इससे पहले भी एलजीबीटी छोटे-छोटे स्तर पर अपनी पहचान बना रहे थे. मुंबई में 1990 में ही ‘बॉम्बे दोस्त’ नाम से समलैंगिक लोगों का एक अखबार निकलने लगा था. इन लोगों ने 1994 में एलजीबीटी अधिकारों के लिए ‘हमसफ़र’ ट्रस्ट भी बनाया था. लेकिन इतने बड़े पैमाने पर कभी भी एलजीबीटी के अधिकारों की बात पहले नहीं हुई थी.
अब न्यायालय को यह तय करना था कि क्या धारा 377 संविधान के अनुच्छेद 21, 14 और 15 का अतिक्रमण करती है अथवा नहीं. यह फैसला करने में न्यायालय ने लगभग नौ साल का समय लिया. इस बीच धारा 377 के हर पहलू और उसकी संवैधानिक मान्यता पर बहस हुई. नाज़ फाउंडेशन ने अपनी याचिका में यह तर्क भी दिया कि विधि आयोग भी अपनी 172वीं रिपोर्ट में धारा 377 को हटाने की संस्तुति कर चुका है. दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस सन्दर्भ में केंद्र सरकार से जवाब मांगा. केंद्र की तरफ से दो विरोधाभासी जवाब दाखिल किए गए. केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने शपथपत्र दाखिल करते हुए कहा कि यह धारा एड्स की रोकथाम में बाधा उत्पन्न करती है लिहाजा इसे हट जाना चाहिए. दूसरी तरफ गृह मंत्रालय ने इसे बनाए रखने की बात कही. गृह मंत्रालय ने अपने शपथपत्र में कहा कि धारा 377 बच्चों पर होने वाले अपराध एवं बलात्कार संबंधी कानून की कमियों को भरने का काम करती है. हालांकि केंद्र सरकार के इस तर्क का आज कोई महत्व नहीं रह गया है. बच्चों के लिए 2012 में अलग से ‘बच्चों की सुरक्षा के लिए यौन अपराध अधिनियम, 2012’ बन चुका है. साथ ही बलात्कार की परिभाषा की जिन कमियों को धारा 377 पूरा करती थी उन कमियों को भी अब हटाया जा चुका है. जैसा कि जिक्र किया जा चुका है 2013 के संशोधन में बलात्कार की नई परिभाषा बन चुकी है. बहरहाल, अभी लौटते हैं गृह मंत्रालय के शपथपत्र पर. गृह मंत्रालय ने इस धारा को बनाए रखने का दूसरा तर्क दिया, ‘भारतीय समाज इसकी अनुमति नहीं देता और यह कारण ही इस कानून को बनाए रखने के लिए काफी है. कानून समाज से अलग नहीं चल सकता.’
दूसरी तरफ याचिकाकर्ताओं का सबसे बड़ा तर्क था कि यह धारा संविधान के अनुच्छेद 15 का उल्लंघन करती है. उन्होंने बताया कि अनुच्छेद 15 के अनुसार किसी भी व्यक्ति से ‘सेक्स’ के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता जिसमें उस व्यक्ति की ‘सेक्शुअल ओरिएंटेशन'(यौन अभिरुचि) भी शामिल है. लिहाजा किसी के यौन झुकाव के आधार पर भेदभाव करना भी मौलिक अधिकारों का हनन है. इस तर्क ने एक नई बहस को जन्म दिया कि क्या किसी व्यक्ति की यौन अभिरुचि जन्म से ही निर्धारित होती है और क्या उसे बदला जा सकता है अथवा नहीं. याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि समलैंगिक लोग प्राकृतिक रूप से समलैंगिक लोगों के प्रति ही आकर्षित होते हैं. इस तर्क के समर्थन में उन्होंने कई मनोवैज्ञानिकों, मनोचिकित्सकों और यौन-विज्ञानियों की रिपोर्टें पेश की. जिनके अनुसार समलैंगिकता को प्राकृतिक माना गया था. याचिकाकर्ताओं ने यह भी बताया कि दुनिया की सबसे बड़ी मनोचिकित्सक संस्थाएं भी अब समलैंगिकता को कोई मानसिक रोग नहीं बल्कि एक प्राकृतिक लक्षण मान चुकी हैं जिसे बदला या सुधारा नहीं जा सकता. दूसरी ओर प्रतिवादी पक्ष का कहना था कि समलैंगिकता प्राकृतिक नहीं बल्कि एक मानसिक बीमारी है और इसे सुधारा जा सकता है. हालांकि इसे सुधारे जाने के कोई भी वैज्ञानिक तथ्य प्रतिवादी पक्ष ने पेश नहीं किए.
याचिकाकर्ताओं का दूसरा बड़ा तर्क था कि धारा 377 संविधान के अनुच्छेद 21 का भी उल्लंघन करती है. अनुच्छेद 21 के अनुसार हर व्यक्ति को जीने का अधिकार है. इस अधिकार में सम्मान से जीवन जीना और गोपनीयता/ एकांतता का अधिकार भी शामिल है. इसी अनुच्छेद का सहारा लेते हुए याचिकर्ताओं ने कहा कि दो वयस्क व्यक्ति अपनी इच्छा से एकांत में जो भी करते हैं उसका उन्हें पूरा अधिकार है. साथ ही उन्होंने यह तर्क भी दिया कि इस अधिकार पर तभी रोक लगाई जा सकती है जब किसी व्यक्ति द्वारा किया गया कार्य राष्ट्रहित के लिए नुकसानदेह हो.
संविधान के अनुच्छेद 14 के अतिक्रमण की बात भी याचिकाकर्ताओं द्वारा कही गई. उनके अनुसार हर व्यक्ति को बिना भेदभाव के पूरा कानूनी संरक्षण मिलने का अधिकार है. लेकिन समलैंगिक व्यक्ति एड्स जैसी जानलेवा बीमारी होने पर भी स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं ले पाते क्योंकि धारा 377 उन्हें अपराधी घोषित कर देती है. ऐसे में उन्हें स्वास्थ्य सुविधाएं लेने के अधिकार से भी वंचित किया जा रहा है. इस तर्क के विरोध में प्रतिवादी पक्ष ने कोर्ट को बताया कि समलैंगिकता स्वयं में भी एड्स जैसी बीमारी को न्योता देती है. लेकिन कोर्ट ने प्रतिवादी पक्ष के इस तर्क को नकारते हुए माना कि केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय भी धारा 377 को एड्स की रोकथाम में एक बाधा मानता है. साथ ही कोर्ट में ऐसे कोई भी वैज्ञानिक कारण प्रस्तुत नहीं किए गए थे जिनसे साबित होता हो कि समलैंगिकता के कारण एड्स को बढ़ावा मिलता हो.
इन तर्कों के साथ ही याचिकाकर्ता ने धारा 377 के मूल की भी बात कही. उन्होंने बताया कि इस धारा को 1860 में अंग्रेजों द्वारा भारतीय दंड संहिता में शामिल किया गया था. उस वक्त इसे ईसाई धर्म में भी अनैतिक माना जाता था. लेकिन 1967 में ब्रिटेन ने भी समलैंगिक संबंधों को कानूनी मान्यता दे दी है.
केंद्र सरकार ने उच्च न्यायालय में धारा 377 को बनाए रखने के तीन मुख्य कारण बताए थे. वह थे सार्वजनिक नैतिकता, सार्वजनिक स्वास्थ्य और स्वस्थ वातावरण. इस पर उच्च न्यायालय ने माना कि ‘समलैंगिकता, सार्वजनिक स्वास्थ्य और स्वस्थ वातावरण को कैसे नुकसान पहुंचाएगी इसके कोई भी तथ्य केंद्र ने पेश नहीं किए हैं. न कोई शपथपत्र ही दाखिल किया है. और यदि किसी तरह की नैतिकता व्यापक राष्ट्रहित के पैमानों पर खरी उतर सकती है तो वह ‘संवैधानिक नैतिकता’ है ‘सार्वजनिक नैतिकता’ नहीं.’ इसके साथ ही उच्च न्यायालय ने माना कि धारा 377 पहली नज़र में तो किसी विशेष समुदाय को नुकसान पहुंचाती नहीं दिखती लेकिन वास्तव में यह समलैंगिकों के उत्पीड़न का काम करती है.
दो जुलाई 2009 को दिल्ली उच्च न्यायालय ने फैसला याचिकाकर्ता के पक्ष में दे दिया. 105 पन्नों के इस फैसले का सार बताते हुए न्यायालय ने कहा ‘हम घोषित करते हैं कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377, जिस हद तक वह वयस्क व्यक्तियों द्वारा एकांत में सहमति से बनाए गए यौन संबंधों का अपराधीकरण करती है, संविधान के अनुच्छेद 21, 14 और 15 का उल्लंघन है.’ इसके साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा कि इस धारा के प्रावधान बिना सहमति के बनाए गए यौन संबंधों पर पहले की तरह ही लागू होंगे.
यह फैसला पूरे देश में चर्चा का विषय बन गया. एलजीबीटी अधिकारों का समर्थन करने वाले लाखों लोगों ने फैसले का स्वागत किया. समलैंगिकों को सामाजिक स्वीकार्यता दिए जाने के लिए कई शहरों में ‘गे (समलैंगिक) परेड’ आयोजित की गई. एलजीबीटी समुदाय में एक बड़ा हिस्सा किन्नर लोगों का भी है. उन्होंने भी खुल कर इस फैसले का स्वागत किया और इसे समाज में अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने की दिशा में महत्वपूर्ण माना. लेकिन इस फैसले के सात दिन बाद ही दिल्ली के एक ज्योतिषाचार्य ने सर्वोच्च न्यायालय में इसे चुनौती दे दी. ज्योतिषाचार्य सुरेश कौशल इस फैसले को चुनौती देने के बारे में बताते हैं, ‘ऐसा मैंने दो कारणों से किया. एक तो नाज़ फाउंडेशन को विदेशी पैसा मिलता है. इसलिए वो विदेशियों के इशारे पर बहुत ही चुपके से इस मामले को उच्च न्यायालय ले गए थे. लोगों को तो तब पता चला जब फैसला आ गया. ये लोग खुशियां मनाने लगे. इन्होने मंदिरों और गुरद्वारों में समलैंगिक शादियां शुरू कर दी थी. दूसरा कारण था धर्म का. इन लोगों ने तर्क दिया कि इसका धर्म से कोई लेना-देना नहीं है. लेकिन जिस देश में लगभग सभी सरकारी छुट्टियां धर्म के आधार पर ही होती हों, वहां आप धर्म को अनदेखा कैसे कर सकते हो.’
नौ जुलाई 2009 को सुरेश कौशल सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गए. यानी दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले के ठीक सात दिन बाद. इन सात दिनों में कितने समलैंगिक लोग मंदिर-गुरुद्वारों में शादी के लिए पहुंचे होंगे सोचना मुश्किल नहीं हैं. लेकिन फिर भी इसने ज्योतिषाचार्य सुरेश कौशल को सर्वोच्च न्यायालय जाने को प्रेरित कर दिया था. सुरेश कौशल के साथ ही बाबा रामदेव के प्रवक्ता- एसके तिजारावाला, तमिलनाडु मुस्लिम मुनेत्र कषगम, आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, क्रांतिकारी मनुवादी मोर्चा पार्टी, अपोस्टोलिक चर्चेज अलायंस और सनातन धर्म प्रतिनिधि सभा भी इस फैसले के विरोध में सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गए. सभी धर्मों को एक साथ ला देने वाले समलैंगिकता के मुद्दे पर अब सर्वोच्च न्यायालय में बहस शुरू हुई. यहां एक दिलचस्प बात यह भी है कि जो केंद्र सरकार उच्च न्यायालय में याचिका का विरोध कर रही थी, उसने फैसले पर कोई आपत्ति नहीं जताई. बल्कि केंद्र ने सर्वोच्च न्यायालय में शपथपत्र दाखिल करते हुए कहा कि हमें दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले में कोई भी कमी नहीं नजर आती.
उच्च न्यायालय के 105 पन्नों के फैसले को पलटते हुए पिछले ही महीने सर्वोच्च न्यायालय ने भी लगभग सौ पन्नों का फैसला दिया. इस फैसले में सबसे पहले न्यायालय ने इस मुद्दे पर चर्चा की है कि न्यायालय को कानून बनाने का अधिकार है या नहीं. लेकिन सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गई व्याख्या में कई विरोधाभास नजर आते हैं. न्यायालय ने कहा है, ‘हम यह मानते हैं कि उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय को धारा 377 की संवैधानिक मान्यता को जांचने का पूरा अधिकार है. न्यायालय को यह भी अधिकार है कि इस धारा को उस हद तक समाप्त कर दिया जाए जहां तक यह असंवैधानिक है. लेकिन हमें आत्मसंयम बरतना चाहिए.’ यानी एक लिहाज से न्यायालय ने यह माना है कि धारा 377 कुछ हद तक असंवैधानिक है लेकिन फिर भी उसे बदलने से परहेज किया है. इसी व्याख्या में सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि ‘1950 के बाद से भारतीय दंड संहिता में लगभग 30 बार संशोधन हो चुके हैं. 2013 में तो यौन अपराध संबंधी कानून में ही संशोधन हुए हैं. धारा 377 भी उसी का एक हिस्सा है. विधि आयोग की 172वीं रिपोर्ट में तो साफ़ तौर से धारा 377 को हटाने की बात भी कही गई है. लेकिन संसद ने फिर भी इस धारा को नहीं हटाया. इससे साफ़ है कि संसद इसे हटाना ही नहीं चाहती.’
कानूनी और संवैधानिक पहलुओं पर चर्चा करते हुए भी सर्वोच्च न्यायालय ने कई विरोधाभास छोड़ दिए हैं. न्यायालय ने यह तो माना है कि इस धारा का दुरुपयोग होता है और इसकी भाषा ऐसी है कि इसके दुरुपयोग की संभावनाएं भी काफी ज्यादा हैं. लेकिन साथ ही उसने यह भी कहा है कि सिर्फ दुरुपयोग की संभावना के कारण किसी कानून को समाप्त नहीं किया जा सकता. अपने इस अवलोकन को सही ठहराने के लिए न्यायालय ने अन्य ऐसे कानूनों का उदाहरण दिया है जिनकी भाषा स्पष्ट न होने के कारण दुरुपयोग होता है. जैसे कि राष्ट्रद्रोह का अपराध, जिसमें असीम त्रिवेदी को कार्टून बनाने के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया गया था. लेकिन इस मामले में धारा 377 के दुरुपयोग को सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट नहीं किया. हालांकि उसने यह जरूर कहा कि धारा 377 मुख्यतः उन्हीं लोगों के लिए है जिनके साथ यह अपराध उनकी इच्छा के विरुद्ध हुआ हो. इस तरह से न्यायालय सहमति से संबंध बनाने वाले समलैंगिकों पर इस धारा के इस्तेमाल को एक प्रकार से दुरुपयोग मानता है. लेकिन दूसरी तरफ उसी का अंतिम फैसला पुलिस को सहमति से संबंध बनाने वाले समलैंगिकों को गिरफ्तार करने के लिए बाध्य करने वाला है.
उच्च न्यायालय के फैसले के विपरीत सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना है कि धारा 377 मौलिक अधिकारों का हनन नहीं करती. इसके पीछे न्यायालय ने यह तर्क लिया है कि मौलिक अधिकारों पर भी कुछ नियंत्रण लगाए जा सकते हैं. लेकिन यह नियंत्रण सिर्फ व्यापक राष्ट्रहित में ही लगाए जा सकते हैं. सर्वोच्च न्यायालय ने कहीं भी इस बात का जिक्र नहीं किया है कि समलैंगिकों को यौन संबंध बनाने से रोकने में क्या राष्ट्रहित है. न्यायालय ने यह भी माना है कि धारा 377 किसी समुदाय विशेष को निशाना नहीं बनाती. बल्कि यह हर उस व्यक्ति को दंडित करने की बात करती है जो प्रकृति विरुद्ध यौन अपराध करता है. इस संबंध में नाज़ फाउंडेशन की संस्थापक अंजलि गोपालन बताती हैं, ‘एक महिला और एक पुरुष आपसी सहमति से एकांत में क्या करते हैं इसे जानने का हक किसी को नहीं है. इसलिए वो यदि 377 के अनुसार अपराध भी करते हैं तो उन्हें रोकने वाला कोई नहीं. लेकिन समलैंगिक लोग यदि साथ में होते हैं तो कोई भी पुलिस अधिकारी उन्हें उत्पीड़ित कर सकता है. पुलिस के पास यह बचाव होता है कि वो धारा 377 में दंडनीय गंभीर अपराध को होने से रोक रहे हैं.’
बहरहाल 11 दिसंबर 2013 को सर्वोच्च न्यायालय ने अपना फैसला दे दिया है. इसके साथ ही लगभग साढ़े चार साल तक समलैंगिक यौन संबंध कानूनी रहने के बाद फिर से गैर कानूनी हो गए हैं. साथ ही 377 में वर्णित अपराध भी साढ़े चार साल तक प्राकृतिक कृत्य बना रहने के बाद फिर से प्रकृति विरुद्ध अपराध बन चुका है. इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने देश-विदेश के मनोचिकित्सकों के तर्कों और शोध को नकार दिया, एड्स पर कार्य करने वाली संस्थाओं और स्वास्थ्य मंत्रालय की रिपोर्ट को नकार दिया, राम जेठमलानी और फली एस नरीमन जैसे वकीलों के तर्कों को नकार दिया और कानूनों में तार्किक बदलाव की जो परंपरा स्वयं सर्वोच्च न्यायालय ने ही स्थापित की थी उसे भी नकार दिया. इस मामले में जो फैसला न्यायालय ने दिया है उसमें धारा 377 को बनाए रखने का एक भी ठोस कारण मौजूद नहीं है. यही कारण है कि स्वयं केंद्र सरकार ने इस फैसले को कुल 76 बिंदुओं पर चुनौती देते हुए पुनर्विचार याचिका दाखिल की है. इस याचिका में कहा गया है कि ‘सर्वोच्च न्यायालय को 2009 में ही सुरेश कौशल की याचिका को ख़ारिज कर देना चाहिए था क्योंकि वह उच्च न्यायालय में पार्टी तक नहीं थे. कानून की संवैधानिकता का बचाव करना केंद्र का काम है किसी तीसरे व्यक्ति का नहीं.’ वैसे सुरेश कौशल स्वयं भी मानते हैं कि वे तो धर्म और भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय गए थे.
न्यायालय ने भले ही इस मामले में फैसला सुना दिया है लेकिन इस पर बहस आज भी जारी है. हर व्यक्ति के पास इस मुद्दे पर बोलने को कुछ है. एक तरफ एलजीबीटी समर्थक अपने अधिकारों की बात करते हुए धारा 377 का विरोध कर रहे हैं तो दूसरी तरफ धार्मिक संगठनों के लोग 377 के समर्थन में हैं. सर्वोच्च न्यायालय में सुरेश कौशल के साथ ही याचिकाकर्ता रहे बाबा रामदेव के प्रवक्ता एसके तिजारावाला कहते हैं, ‘सेक्स सिर्फ संतान की उत्पत्ति के लिए होता था जिसे हमारे पूर्वजों ने एक नैतिक रंग दिया था. हर मानव समाज ने इसे ऐसे ही स्वीकार भी किया था. लेकिन बाद में कुछ विकृत लोगों ने अपनी बीमार मानसिकता के कारण अप्राकृतिक सेक्स भी शुरू कर दिया. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर समलैंगिकता के नंगे नाच की अनुमति भारतीय समाज में कतई नहीं दी जाएगी.’
अंजलि गोपालन बताती हैं, ‘एलजीबीटी और उनके अधिकारों के प्रति समाज में बहुत ज्यादा अज्ञानता और भ्रम हैं. इसी भ्रम के कारण लोगों के मन में कई तरह के डर भी होते हैं. इसे होमोफोबिया कहते हैं. यानी समलैंगिक लोगों और समलैंगिकता के प्रति डर, पूर्वाग्रह या घृणा होना.’ अंजलि की बातों का समर्थन मशहूर लेखक विक्रम सेठ भी करते हैं. सेठ कहते हैं, ‘समलैंगिकता के खिलाफ कानून विदेशों की देन है. समलैंगिकता नहीं. यह कानून अपने साथ समलैंगिकता नहीं बल्कि होमोफोबिया लेकर आया है.’
समलैंगिकता के प्रति एक विवाद इसके प्राकृतिक या अप्राकृतिक होने का भी है. न्यायालय में भी इस पर काफी बहस हुई थी. दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह कहा था कि मनोविज्ञान और मनोचिकित्सा अब समलैंगिकता को कोई बीमारी नहीं मानता. यह प्राकृतिक होता है जिसे बदला नहीं जा सकता. 1992 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने भी समलैंगिकता को मानसिक बीमारी की सूची से हटा दिया है. लेकिन अधिकतर लोग आज भी इसे अपने दिमाग से नहीं हटा पा रहे और मानसिक बीमारी ही मान रहे हैं. लोगों के ऐसे विश्वास को तब और बल मिल जाता है जब बाबा रामदेव कहते हैं कि ‘समलैंगिकता एक मानसिक बीमारी है और हम इसे योग से ठीक कर सकते हैं’, या जब रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का बयान आता है, ‘समलैंगिकता बिलकुल पीडोफिलिया (बच्चों के प्रति यौन आकर्षण) की तरह है. याचिकाकर्ता सुरेश कौशल कहते हैं, ‘कौन जानता हैं समलैंगिकता को प्राकृतिक बताते वाले मनोचिकित्सक खुद समलैंगिक नहीं हैं? आज समलैंगिकता को प्राकृतिक बता कर कानूनी मान्यता दिए जाने की बात हो रही है. कल बच्चों के या जानवरों के प्रति यौन आकर्षण को भी कानूनी बनाने की मांग हुई तो आप क्या करेंगे?’ इस मामले में प्रतिवादी रहे अधिवक्ता अरविंद नारायण जवाब में कहते हैं, ‘पीडोफिलिया को समलैंगिकता से नहीं जोड़ा जा सकता. आपराधिक कानून नुकसान की बात करता है. आप प्राकृतिक या अप्राकृतिक किसी भी कारण से यदि किसी को नुकसान पहुंचाते हैं तो आपको सजा होगी. लेकिन समलैंगिक किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचा रहे.’
समलैंगिकता को लेकर एक धारणा यह भी है कि इससे एड्स को बढ़ावा मिलता है. सुरेश कौशल कहते हैं, ‘भारत में 25 प्रतिशत एड्स के रोगी समलैंगिक हैं. समलैंगिक ही एड्स को बढ़ावा देते हैं. मैं हिमाचल प्रदेश से हूं. वहां के अधिकतर लोग काम के लिए बड़े शहरों में जाते हैं. वहां वो समलैंगिक संबंध बनाते हैं और फिर वापस अपने गांव में आकर परिवार वालों को भी जानलेवा बीमारी दे देते हैं. हिमाचल में इसी कारण कई लोगों की मौत हो चुकी है.’ जवाब में अंजलि गोपालन बताती हैं, ‘किसी भी तरह के असुरक्षित यौन संबंध से एड्स हो सकता है. एक से ज्यादा व्यक्ति से यौन संबंध बनाने पर एड्स की संभावनाएं और भी बढ़ जाती हैं. ऐसा नहीं है कि समलैंगिक यौन संबंध से ही एड्स होता हो. भारत में एड्स के 75 प्रतिशत रोगी वो हैं जो समलैंगिक नहीं हैं.’
धारा 377 के विवाद में एक पहलू किन्नरों का भी है. सुरेश कौशल कहते हैं, ‘किन्नरों को समलैंगिक लोग अपनी ढाल की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं. किन्नर कितने पढ़े-लिखे हैं? उनको समाज में कितनी स्वीकार्यता मिलती है? उन्हें लगा कि समलैंगिकों के बहाने उन्हें भी पहचान मिल जाएगी इसलिए वो भी इनके साथ शामिल हो गए. उनमें तो पता नहीं यौन संबंध बनाने की इच्छा होती भी है या नहीं.’ क्लिनिकल साइकोलोजिस्ट पुलकित शर्मा इसके जवाब में कहते हैं, ‘यौन इच्छा हर व्यक्ति में होती है. वह उतनी ही किन्नरों में भी होती है जितनी किसी स्त्री या पुरुष में. लोग उन्हें जानते-समझते नहीं तो यह मान लेते हैं कि उनमें शायद इच्छा ही नहीं होती होगी. कई लोगों में यह भ्रम होता है कि किन्नर अन्य लोगों की तरह यौन संबंध नहीं बना सकते तो शायद उन्हें इसकी जरूरत भी महसूस नहीं होती होगी.’
धारा 377 की एक दिलचस्प बात यह भी है कि यह हर तरह के समलैंगिकों पर रोक नहीं लगाती. अधिवक्ता अरविंद नारायण बताते हैं, ‘धारा 377 में विशेष तौर पर यह स्पष्टीकरण लिखा गया है कि ‘इस धारा में वर्णित अपराध के लिए आवश्यक इंद्रिय भोग करने के लिए प्रवेशन(पेनिट्रेशन) पर्याप्त है’. महिला समलैंगिकों के लिए यह संभव ही नहीं है. लिहाजा उनको धारा 377 के अंतरगत दंडित नहीं किया जा सकता.’ हालांकि ऐसे भी कुछ मामले हुए हैं जब समलैंगिक महिलाओं पर भी इस धारा का उपयोग किया गया है. लेकिन एलजीबीटी कार्यकर्ता और कानून के जानकार इसे 377 का दुरुपयोग ही बताते हैं.
समलैंगिकता और धारा 377 से जुड़े मुद्दे यहीं समाप्त नहीं होते. धारा 377 को पुनर्जीवित करवाने वाले ज्योतिषाचार्य सुरेश कौशल काफी आगे की बातें भी करते हैं. वो कहते हैं, ‘समलैंगिकता को अनुमति देना पृथ्वी को उल्टा घुमाने के समान है. समलैंगिक जोड़ों को बच्चे कैसे होंगे? यदि इसको अनुमति दी जाती है तो आने वाले पचास या सौ साल में मानव जीवन समाप्त हो जाएगा.’ अपनी ज्योतिष विद्या का जिक्र करते हुए कौशल बताते हैं, ‘मैंने अपने ज्योतिष के हिसाब से ही उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती दी थी. सर्वोच्च न्यायालय का जब फैसला आने वाला था तभी मुझे अंदाजा हो गया था कि देश की कुंडली में जो विपदा आई थी वो अब समाप्त होने जा रही हैं. समलैंगिकता को मान्यता देकर हम भारतीय संस्कृति को नष्ट नहीं कर सकते. इन समलैंगिक लोगों को इलाज की जरूरत है.’
सुरेश कौशल की ही तरह ऐसे लाखों लोग हैं जो समलैंगिकों को इलाज की सलाह देते हैं. कई ऐसे भी हैं जिनके मन में एलजीबीटी के प्रति कई सवाल हैं. जैसे, एलजीबीटी चाहते क्या हैं? एलजीबीटी आम लोगों की तरह क्यों नहीं हैं? एलजीबीटी जन्म से ही ऐसे हैं या बाद में बने हैं? एलजीबीटी कौन हैं? दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपना फैसला सुनाते वक्त इन सवालों के जवाब तो नहीं दिए थे लेकिन एक महत्वपूर्ण बात कही थी – ‘भारतीय संविधान यह अनुमति नहीं देता कि एक आपराधिक कानून इस लोकप्रिय भ्रम में जकड़ा रहे कि आखिर एलजीबीटी कौन हैं’