हिंसा और राजनीति

रामनवमी पर कई राज्यों में हुई हिंसा के असली कारणों को जानना भी ज़रूरी

इस साल रामनवमी से एक दिन पहले देश की सर्वोच्च न्यायालय ने एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा था- ‘देश के लोग यह संकल्प क्यों नहीं करते कि वे दूसरे समुदायों के प्रति सहिष्णुता वाला रवैया अपनाएँगे।’

सर्वोच्च न्यायालय की इस बात पर अमल किया गया होता, तो शायद इस त्योहार के दौरान तीन राज्यों में हिंसा नहीं होती और लोगों की जान नहीं जाती। देश में जब भी साम्प्रदायिक तनाव बनता है, आगजनी और धमाके होना मामूली बात हो जाती है और कई लोगों को जान गँवानी पड़ती है। साथ ही बड़े पैमाने पर संपत्ति का नुक़सान भी होता है। ढेरों आरोप भी हैं।

लिहाज़ा रामनवमी पर हुई हिंसा के कारणों के भीतर जाना और यह  जानना भी ज़रूरी है कि इनमें राजनीति का कितना बड़ी भूमिका है।

दुर्भाग्य से हिंसा रामनवमी के दिन या इसके एक दिन बाद हुई। त्योहार जो भारत में एक दूसरे को जोडऩे का काम करते रहे हैं, अब राजनीति की गंदी चालों का औज़ार बना दिये गये हैं। देश में अचानक साम्प्रदायिक तनाव हो जाना अब आम हो गया है। बंगाल, बिहार और अन्य राज्यों में हाल में जो तांडव दिखा, उससे ज़ाहिर है कि कुछ शक्तियाँ हैं, जो यह सब करवाती हैं। क्या इसके पीछे राजनीतिक मंशा है?

तनाव के कारक देखने से लगता है कि परदे के पीछे से खेल किसी और का होता है और सामने दिखने वाले चरित्र कोई और होते हैं। वैसे सरकारी आँकड़े देखें, तो केंद्र और राज्यों में भाजपा की सरकार आने के बाद सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएँ बढ़ी हैं। ख़ुद केंद्र सरकार ने राज्यसभा में बताया था कि 2017 से 2021 के बीच सांप्रदायिक या धार्मिक दंगों से जुड़े 2,900 से अधिक मामले दर्ज किये गये हैं।

इन धार्मिक तनावों का इतिहास देखें, तो ज़ाहिर होता है कि त्योहारों के आसपास हिंसा बढ़ जाती है। हाल के वर्षों में यह कुछ ज़्यादा ही होने लगा है। इस बार दिल्ली के जहाँगीरपुरी में रामनवमी के दिन हिंसा हुई। जहाँगीरपुरी में रामनवमी के दिन शोभायात्रा निकाले जाने की कोशिश की गयी, पुलिस ने इसकी इजाज़त नहीं दी थी। इस पर वहाँ हिंसा भडक़ी और कुछ लोगों को छतों से पत्थर बरसाते हुए भी देखा गया।

राजधानी से सैकड़ों किलोमीटर दूर पश्चिम बंगाल में हुई हिंसा के पीछे ममता बनर्जी ने भाजपा का हाथ बताया। वहाँ हिंसा के बाद दो समुदायों के बीच तनावपूर्ण माहौल बना रहा। बिहार के सासाराम और बिहारशरीफ़ में भी यही हुआ। बिहार में रामनवमी के त्योहार के बाद इसके शहरों सासाराम और बिहारशरीफ़ से लगातार साम्प्रदायिक तनाव की ख़बरें आयीं। बिहारशरीफ़ में रामनवमी के जुलूस के दौरान पथराव हुआ था। दोनों तरफ़ से किये गये हमलों में दो लोगों को गोली लगी थी, जबकि पथराव में तीन लोग घायल हुए।

रोहतास ज़िले के सासाराम क़स्बे में रामनवमी के बाद दो बार धमाके हुए। पहले ब्लास्ट में एक और दूसरे में छ: लोग घायल हुए। इन सभी जगहों पर हिंसा रामनवमी और रमजान के अवसर पर हुई। देश में जब भी हिंसा होती है, राजनीतिक दल एक-दूसरे पर हमला शुरू कर देते हैं। यह कोशिश नहीं होती कि आग को ठंडा किया जाए। राजनीति का चरित्र बहुत बदल गया है और इंसानी ज़िन्दगियों के मुक़ाबले राजनीतिक मुनाफ़े पर पार्टियों की नज़र ज़्यादा रहती है। रामनवमी पर देश के विभिन्न हिस्सों में हुई हिंसा की घटनाएँ सवाल खड़े करती हैं।

सवाल यह उठता है कि साम्प्रदायिक माहौल बिगाडऩे के पीछे क्या कोई साज़िश होती है और क्या राजनीति से इसका कोई लेना देना है? सवाल यह भी है कि राज्यों में पुलिस बल होने के बावजूद यह हिंसा क्यों होती है? पथराव, आगजनी सब होती है फिर भी उस पर क़ाबू पाने में वक़्त लग जाता है। हाँ, राजनीतिक बयानबाज़ी ज़रूर शुरू हो जाती है।

उधर रामनवमी के मौक़े पर पश्चिम बंगाल के हावड़ा और हुगली में हुई हिंसा में छ: सदस्यीय फैक्ट फाइंडिंग कमेटी ने अपनी अंतरिम रिपोर्ट में दावा किया है कि यह हिंसा पूर्व नियोजित थी। पटना उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश नरसिम्हा रेड्डी के नेतृत्व वाली इस कमेटी ने अंतरिम रिपोर्ट में कहा कि रामनवमी के जुलूस के दौरान हुए दंगे सुनियोजित तरीक़े से उकसाये गये थे। पैनल ने हिंसा की राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (एनआईए) से कराने की सिफ़ारिश भी की है।

पश्चिम बंगाल में हुई हिंसा को लेकर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सीधे तौर पर भाजपा को ज़िम्मेदार ठहराया। ममता ने कहा- ‘वे सांप्रदायिक दंगों के लिए राज्य के बाहर से गुंडे बुलाते रहे हैं। उनके जुलूसों को किसी ने नहीं रोका; लेकिन उन्हें तलवारें और बुलडोजर लेकर मार्च करने का अधिकार नहीं है।’

बिहार के सासाराम और बिहारशरीफ़ में रामनवमी के जुलूस के बाद हुई हिंसा को लेकर बिहार के पुलिस प्रमुख आर.एस. भट्टी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके कहा कि इस घटना में एक व्यक्ति की मौत हुई है और हालात नियंत्रण में है। उन्होंने कहा कि हिंसा के आरोप में कुल 109 लोगों को गिर$फ्तार किया गया है।

उन्होंने कहा कि उपद्रवियों की लगातार पहचान की जा रही है और किसी भी असामाजिक तत्त्व को ब$ख्शा नहीं जाएगा, क़ानून की पूरी ताक़त के साथ उनसे निपटा जाएगा। डीजीपी ने कहा कि राज्य की अमन शांति को भंग करने का यह निश्चित तौर पर एक प्रयास था, जिसको पुलिस और ज़िला प्रशासन ने विफल किया है और पुलिस को अलर्ट पर रखा गया है।

महाराष्ट्र के संभाजीनगर से 31 मार्च की जो तस्वीरें सामने आयीं, उनमें हाथों में डंडे लिए चेहरे पर नक़ाब पहने कुछ लोग एक साथ जाते हुए दिखायी पड़ते हैं। कौन हैं? पता नहीं। नक़ाब पहने दंगाइयों ने कई वाहनों पर हमला किया। एक अन्य वीडियो में दिखता है कि कुछ लोगों ने पुलिस वैन को आग के हवाले कर दिया। दो गुटों के बीच झड़प से हालात तनावपूर्ण हुए और दंगाइयों ने बे$खौफ़ पत्थरबाज़ी, आगजनी, तोडफ़ोड़ और हिंसा की। हिंसा में आधा दर्ज़न से ज़्यादा लोग घायल हुए। गुजरात में भी दो जगह तनाव बना। हिंसा भी हुई और कुछ लोग घायल भी हुए।

सर्वोच्च न्यायालय में मामला

देश में रामनवमी की शोभायात्रा के दौरान देश के कई राज्यों में हुई हिंसा का मामला अब सर्वोच्च न्यायालय पहुँच गया है। शोभायात्रा के दौरान हुई हिंसा पर सर्वोच्च न्यायालय 17 अप्रैल को सुनवाई करेगा। इसे लेकर याचिका ‘हिंदू फ्रंट फॉर जस्टिस’ की ओर से दायर की गयी है। याचिका में जुलूस के दौरान हुए दंगों की जाँच समेत कई माँगें की गयी हैं। याद रहे रामनवमी के दिन 30 मार्च को पश्चिम बंगाल, बिहार, महाराष्ट्र, कर्नाटक, झारखण्ड, तेलंगाना और गुजरात में हिंसा हुई थी। कई जगह शोभायात्रा के दौरान आगजनी की घटनाएँ सामने आयी थीं, जिनमें काफ़ी लोग घायल हुए थे।

फ्रंट की याचिका में माँग है कि हिंसा प्रभावित राज्यों के मुख्य सचिवों से रिपोर्ट तलब की जाए। इस हिंसा में काफ़ी नुक़सान हुआ था। फ्रंट की याचिका में बात है कि घायल हुए लोगों और संपत्ति को नुक़सान का हर्ज़ाना दिया जाए। याचिका में माँग है कि जिन भी लोगों पर हिंसा फैलाने और संपत्ति को नुक़सान का आरोप है, उनसे ही हर्ज़ाना वसूला जाए।

दंगों का काला इतिहास

देश में धर्म आधारित दंगों का लम्बा इतिहास रहा है। अफ़सोस की बात यह है कि दंगों से प्रभावित लोगों को दशकों तक न्याय नहीं मिल पाता। इतिहास की बात करें, तो रामनवमी  के अवसर पर पहला बड़ा दंगा देश में जनता पार्टी के राज के दौरान सन् 1979 में हुआ था, जब जमशेदपुर में 108 बेक़सूर लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। जान गँवाने वालों में 79 मुस्लिम और 25 हिन्दुओं की पहचान सरकारी तरफ़ से की गयी थी। उस समय की मीडिया रिपोट्स के मुताबिक, आरएसएस ने रामनवमी जुलूस निकालने की साल भर की योजना बनायी। इसकी शुरुआत दिमनाबस्ती की एक आदिवासी बस्ती से की गयी, जिसके साथ मुस्लिम-बहुल साबिर नगर पड़ता था।

अधिकारियों ने जुलूस वहाँ से ले जाने का मंज़ूरी नहीं दी; लेकिन आरएसएस का तर्क था कि अपने ही देश में स्वतंत्र रूप से जुलूस निकालने की अनुमति नहीं दी जा रही। इसके बाद गतिरोध बढऩे से इलाक़े का माहौल ख़राब हो गया। सन् 1979 में आरएसएस प्रमुख बालासाहेब देवरस जमशेदपुर गये और ध्रुवीकरण वाला बयान दिया, जिसके बाद  स्थिति ख़राब हो गयी। श्री रामनवमी केंद्रीय अखाड़ा समिति नाम के संगठन ने 7 अप्रैल को हिंसा वाला एक विवादित पर्चा जारी किया। जुलूस निकलते ही बड़ा दंगा भडक़ गया और 108 लोगों की जान चली गयी। इसका इतना असर हुआ कि 10 दिन के भीतर ही कर्पूरी ठाकुर की सरकार गिर गयी।

एक और काला दिन सन् 1984 में आया जब प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की 31 अक्टूबर, 1984 को उनके सुरक्षा कर्मियों के ही हाथों हत्या के बाद दंगे भडक़ गये। सिखों को चिह्नित कर उन्हें निर्दयता से मारा गया और उनकी सम्पत्तियाँ जला दी गयीं। यह भी आरोप है कि उनकी बेटियों से दुव्र्यवहार किया गया। आधिकारिक रिकॉर्ड के मुताबिक, इन दंगों में 410 लोगों की हत्या की गयी और 1,180 घायल हुए। हालाँकि ग़ैर-सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, मरने वालों की संख्या कहीं ज़्यादा थी और इसमें खुलेआम राजनीति से जुड़े लोगों ने हिस्सा लिया था और उनके ख़िलाफ़ मामले भी बने।

इसके बाद सन् 1987 में देश में राजीव गाँधी और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की वीर बहादुर सिंह के नेतृत्व वाली सरकार के दौरान मलियाना का दंगा है, जिसे सबसे भयानक दंगों में गिना जाता है। मई में मेरठ शहर में दो दंगे हुए, 22 मई को हाशिमपुरा और उसके बाद 23 मई को मलियाना के होली चौक का सांप्रदायिक दंगा। मलियाना में 63 लोगों की हत्या कर दी गयी और 100 से ज़्यादा लोग गंभीर घायल हुए। यह दंगे शब-ए-बारात के दिन शुरू हुए और इनकी आग तीन महीने तक जलती रही। घटना यह है कि 23 मई को पीएसी की 44वीं बटालियन और मेरठ पुलिस की बड़ी फोर्स मलियाना पहुँची और दंगे के नियंत्रण के लिए गोलियाँ चलायीं। इन दंगों में मरे लोगों के शव कुएँ तक से मिले और सरकार ने इसकी न्यायिक जाँच की घोषणा की।

सन् 1989 भागलपुर का दंगे को कौन भूल सकता है, जिसमें 1100 से ज़्यादा लोग मारे गये थे। दो महीने से ज़्यादा तक दंगे जारी रहे। सन् 2005 में प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद नीतीश कुमार ने इन दंगों की जाँच का ज़िम्मा न्यायमूर्ति एन.एन. सिंह के नेतृत्व वाले आयोग को सौंपा, जिनकी रिपोर्ट में 125 आईएएस और आईपीएस अधिकारियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की सिफ़ारिश के अलावा उस समय की कांग्रेस सरकार को भी ज़िम्मेदार ठहराया गया था। सिपोट्स के मुताबिक, इस दंगे में न्यायालय से 346 लोगों को सज़ा मिली, जिनमें 128 को उम्र क़ैद थी।

गुजरात में नरेंद्र मोदी की सरकार के समय 2002 में दंगा हुआ। गोधरा स्टेशन पर 27 फरवरी, 2002 को 23 पुरुषों, 15 महिलाओं और 20 बच्चों समेत 58 लोग (रिपोर्ट्स में इन्हें हिन्दू कारसेवक बताया गया है) साबरमती एक्सप्रेस में ज़िन्दा जला दिये गये। इस घटना के बाद पूरा गुजरात सुलग उठा। चारों तरफ़ दंगे भडक़ उठे। हिंदू-मुस्लिम हिंसक टकराव में फँस गये। इसके बाद हुई हिंसा को ‘राजनीतिक हिंसा’ माना जाता है। गुलबर्ग सोसायटी पर बेक़ाबू भीड़ का हमला हुआ, जिसमें कांग्रेस के एक सांसद एहसान ज़ाफ़री सहित 69 लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। इन दंगों में 1,000 से ज़्यादा लोग मारे गये, जिनमें 790 मुस्लिम और 254 हिन्दू शामिल थे।   

चार साल बाद अप्रैल, 2006 में अलीगढ़ का दंगा रामनवमी उत्सव के दौरान हुआ, जिसमें हिंदुओं और मुसलमानों के बीच हिंसा हुई। पाँच लोगों की मौत हो गयी। सन् 2009 में महाराष्ट्र के पुसद में भी रामनवमी जुलूस के दौरान हिंसा हुई। पथराव के बाद हिंसा भडक़ गयी। दंगाइयों ने दर्ज़नों दुकानों को आग के हवाले कर दिया। हज़ारीबाग़ में 2015 में मुहर्रम के जुलूस में लाउडस्पीकर के इस्तेमाल को लेकर दंगा भडक़ा, जिसमें कई लोगों की जान चली गयी। अगले सन् 2016 में झारखण्ड के हज़ारीबाग़ की हिंसा भी रामनवमी उत्सव पर हुई। इसमें सम्पति को नुक़सान पहुँचा। 

पश्चिम बंगाल, जिसमें दंगों और हिंसा का लम्बा इतिहास रहा है; में 2018 में रानीगंज में रामनवमी के जुलूस के दौरान मुस्लिम समुदाय की तरफ़ से लाउडस्पीकर के इस्तेमाल पर आपत्ति के बाद दो समुदायों के बीच हिंसा हुई। इस दौरान बम हमले में पुलिस उपायुक्त अरिंदम दत्ता चौधरी का दाहिना हाथ उड़ गया। हिंसा में काफ़ी नुक़सान हुआ।

साल 2019 में पश्चिम बंगाल के आसनसोल में एक रामनवमी रैली पर पथराव किया गया, जिसके बाद हिंसा बढ़ गयी। इसी साल राजस्थान के जोधपुर में 13 अप्रैल को रामनवमी के जुलूस के दौरान सांप्रदायिक हिंसा हुई। सन् 2022 में गुजरात, मध्य प्रदेश, झारखण्ड और पश्चिम बंगाल में बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा हुई। अप्रैल में रामनवमी पर हुई इस हिंसा में एक व्यक्ति की मौत हुई, जबकि पुलिस के लोगों समेत कई घायल हुए। अब 2023 भी अछूता नहीं रहा और फिर तीन राज्यों में पाँच जगह हिंसक झड़पें हुईं और लोगों को अपनी जान और सम्पति का नुक़सान झेलना पड़ा।

दंगों की बढ़ती संख्या 

केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने संसद में बताया था कि साल 2017 से 2021 के बीच सांप्रदायिक या धार्मिक दंगों से जुड़े 2,900 से अधिक मामले दर्ज किये गये हैं। राय ने राज्यसभा के एक सवाल के लिखित जवाब में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आँकड़ों का हवाला देते हुए कहा कि सन् 2021 में सांप्रदायिक या धार्मिक दंगों के 378, सन् 2020 में 857, सन् 2019 में 438, सन् 2018 में 512 और सन् 2017 में 723 मामले दर्ज किये गये।

आँकड़ों की जंग

सन् 2020 में सांप्रदायिक हिंसा की कुल 857 घटनाएँ हुईं। यह 2019 की तुलना में 94 फ़ीसदी ज़्यादा थीं। सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं का केंद्र इस दौरान राजधानी दिल्ली रहा है। सन् 2014 और सन् 2019 के बीच दिल्ली में सांप्रदायिक दंगों की महज़ दो घटनाएँ हुईं। लेकिन सन् 2020 में दिल्ली में सांप्रदायिक दंगों की 520 घटनाएँ हुईं। केंद्रीय गृह मंत्रालय के संसद में दिये आँकड़ों के मुताबिक, देश में सन् 2016 और सन् 2020 के बीच सांप्रदायिक और धार्मिक दंगों से जुड़ीं 3,399 घटनाएँ हुईं। एनसीआरबी के रिकॉर्ड के मुताबिक, देश में भाजपा की सरकार आने के बाद 2014 से 2020 के बीच सांप्रदायिक दंगों की 5417 घटनाएँ दर्ज की गईं। देश में अक्सर दंगों के लिए कांग्रेस और भाजपा में ठनी रहती है।

दोनों एक दूसरे के ख़िलाफ़ यह लगाते हैं कि उनके शासनकाल में सांप्रदायिक हिंसा ज़्यादा हुई। वैसे तो ऐसी तुलना करना दंगों से होने वाले भीषणता को नज़रअंदाज़ करने जैसा है। लेकिन गृह मंत्रालय के मुताबिक, सन् 2008 में केंद्र में यूपीए सरकार के समय सबसे 943 साम्प्रदायिक घटनाएँ हुईं। उधर एनसीआरबी के मुताबिक, सन् 2014 में देश में 1,227 सांप्रदायिक घटनाएँ हुईं। यदि दोनों बड़ी पार्टियों (यूपीए और एनडीए) की सरकार की तुलना ही करें, तो सन् 2006 से सन् 2012 के यूपीए (कांग्रेस) के छ: साल के कार्यकाल में सांप्रदायिक हिंसा की कुल 5,142 घटनाएँ दर्ज की गयीं।

उधर एनडीए (भाजपा) के 2014-2020 के छ: साल के दौरान सांप्रदायिक हिंसा की इससे कुछ ज़्यादा 5,417 घटनाएँ दर्ज की गयीं। सरकारी आँकड़े ज़ाहिर करते हैं कि सन् 2014 में जो 1,227 सांप्रदायिक घटनाएँ हुईं, उनमें 2,001 लोग; जबकि सन् 2018 की 512 घटनाओं में 812 लोग पीडि़त हुए। इससे यह संकेत मिलता है कि प्रभावित होने वाले लोगों की संख्या होने वाली घटनाओं से लगभग दोगुनी रहती है।