हम दोनों एक ही उम्र के थे और साथ-साथ बढ़े हुए थे. बचपन में हम आधी बनी इमारत के सामने मौजूद रेत के टीलों पर खेला करते थे.11 साल की स्वर्णा बिलकुल मेरी तरह थी. हर सुबह वह मुझे रेत के टीलों के पास बच्चा-गाड़ी को खींचते हुए एक बच्चे के साथ मिलती. वह नौकरी करती थी और मैं पढ़ाई. वह ज्यादातर आर्मी अफसरों के यहां काम करती थी जिनका अकसर तबादला होता रहता था, लेकिन फिर भी हमारे रास्ते मिलते रहे. मेरे स्कूल खत्म करने से पहले स्वर्णा की शादी हो गई. और मेरे स्नातक होने से पहले ही वह दो बच्चों की मां और एक विधवा थी. उसने दोबारा शादी की, इस बार शारीरिक रूप से विकलांग आदमी से. समाज की चुभती निगाहों से बचने के लिए उसने यह फैसला किया था, भले ही इसकी एवज में अब उसे एक बड़े आदमी के लिए खाने और कपड़ों की व्यवस्था करनी पड़े. दूसरी शादी से उसे एक और बच्चा हुआ.
‘स्वर्णा अब तीन कमरों के पक्के घर में रहती है और खुद का बिजनेस कर रही है’
अकसर अपने बच्चों को साथ लेकर स्वर्णा मेरे घर के सामने से गुजरा करती और एक घर से दूसरे घर की परिक्रमाएं लगाकर रोज अपना काम पूरा करती. जब सालों बाद मैंने स्वर्णा को अपने घर पर नौकरी के लिए रखा तो एक-दूसरे को अच्छी तरह समझने की वजह से वह मेरे घर का काम अपनी सहूलियत से करती और हर हफ्ते हम एक बार जरूर मिलते. स्वर्णा ने मुझे उस वक्त भी बेहद करीब से देखा था जब मैं मातृत्व और नौकरी की जद्दोजहद से गुजर रही थी. मैं समझ पाती उससे पहले ही स्वर्णा अपने न थकने वाले स्वभाव की वजह से मेरे लिए प्रेरणा बन चुकी थी. सुबह नौकरानी, दोपहर में खाना बनाने वाली, शाम को सब्जी बेचने वाली और इन सभी कामों के साथ कर्तव्यनिष्ठ मां और गृहिणी की दोहरी भूमिका को भी वह आसानी से निभा लेती थी. वहीं उसका घर वक्त के साथ बदलता रहता, कभी किसी टूटे-फूटे घर की सीढ़ियां तो कभी किसी घर का बरामदा तो कभी कोई गैराज. काम नहीं करने की हठ रखने वाले पति से बेहद परेशान होने के बावजूद उसने उसे प्रेरित करके बावर्ची के काम पर लगवाया. उसने अपने तीनों बच्चों को पढ़ने के लिए स्कूल भी भेजा. स्वर्णा एक ऐसी महिला थी जो कभी उम्मीद नहीं छोड़ती और निराशा को तो अपने पास फटकने भी नहीं देती थी.
आत्मविश्वासी स्वर्णा अकसर ऐसी किसी मदद के लिए मना कर देती थी जो उसे दया या उपकार लगती. वहीं जब मेरा पहला बच्चा माध्यमिक विद्यालय में पहुंचा तब स्वर्णा के सबसे बड़े लड़के ने अपना एम.काॅम पूरा कर लिया था और दूसरी नौकरी कर रहा था. स्वर्णा ने उसकी शादी बैंक में काम कर रही लड़की से करवाई और साथ ही उसके लिए दो कमरों का मकान भी बनवाया जिसमें बोरवेल था. अब दो बच्चों का पिता यह लंबा-चौड़ा नौजवान मेडिकल ट्रांस्क्रिपशन कंपनी चलाता है जिसमें 200 लोग उसके अधीन हैं. उसने अपने लिए एक फ्लैट और कार भी खरीद ली है. स्वर्णा का दूसरा लड़का थोड़ा जिद्दी था लेकिन स्वर्णा ने उसको सही रास्ता दिखाया और अब वह अपनी खुद की दुकान चलाता है. उसकी हमेशा खुश रहने वाली लड़की ने ग्रैजुऐशन पूरा कर लिया था, फर्राटेदार अंग्रेजी बोलती थी और दुनिया का सामना करने के लिए तैयार थी.
अपना घर बदलने के सालों बाद मैंने हाल ही में स्वर्णा से फिर बात की. अब वह तीन कमरों के पक्के घर में रहती है और नौकरानी और खाना बनाने की नौकरी छोड़ अपना खुद का बिजनेस कर रही है. इडली-डोसा के अपने इस नये उद्यम के लिए स्वर्णा ने मुझे भी न्योता भेजा है और मैं बहुत जल्द स्वर्णा से मिलने और नाश्ता करने वहां जाने भी वाली हूं. एक महिला संगठन की अध्यक्ष रहते हुए मुझे एक बात हमेशा परेशान करती थी. जब भी ऐसी महिलाओं की बात उठती जो समाज के लिए रोल मॉडल हैं, तो स्वर्णा का चेहरा अपने आप ही मेरे सामने आ जाता. जब भी किसी महिला को उघमी होने के लिए सम्मानित किया जाता तब भी मुझे याद आता कि स्वर्णा के पास इस तरह के कोई अवसर नहीं है. ऐसे वक्त में मैं अपने से सवाल करती कि क्या उसके द्वारा दिया योगदान किसी मायने में कम है. जवाब हमेशा यही होता कि स्वर्णा इन सभी से बढ़कर है. मगर फिर क्या वजह है कि हमलोग हमारे आसपास मौजूद स्वर्णा जैसी अनेक महिलाओं को दुनिया के सामने नहीं लाते और लोगों को नहीं बताते कि यही महिलाएं समाज में असल बदलाव लाई हैं? सच तो यह है कि अगर हम समाज को अपना योगदान देने वाली इन जुझारू महिलाओं को मान्यता नहीं देंगे तो फिर हम लोगों के सामने यह उदाहरण रखने से चूक जाएंगे कि हमारे पास मौजूद सबसे बड़ा मानवीय गुण उम्मीद और कड़ी मेहनत है.
(इस आपबीती की लेखिका चंदना चक्रबर्ती अभिनेत्री और समाज सेविका और हैदराबाद में रहती हैं)