इण्डिया गठबंधन की चार बैठकों के बाद भी इस मुद्दे पर अस्पष्टता
जैसे-जैसे कांग्रेस का आत्मविश्वास लौट रहा है, वैसे-वैसे इण्डिया गठबंधन में सहयोगियों से उसकी सीट शेयरिंग का पेच फँसता और लम्बा खिंचता जा रहा है। सीट शेयरिंग पर तीन मुख्य बैठकों और समन्वय समिति की एक बैठक के बाद भी इण्डिया गठबंधन अभी तक लडऩे वाली सीटों का कोई फार्मूला नहीं ढूँढ पाया है। आम आदमी पार्टी, माकपा, सपा, टीएमसी जैसे दलों के साथ कांग्रेस की सीट वाली पटरी बैठना आसान नहीं है। कांग्रेस यदि इन दोनों दलों से समझौता करती है, तो पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और केरल ही नहीं, बंगाल जैसे राज्यों में उसे अपने कई मज़बूत दावे छोडऩे पड़ेंगे। कांग्रेस यह किसी सूरत में नहीं चाहती। ज़ाहिर है कांग्रेस बहुत सोच समझकर ही सीटों के गणित को अंतिम रूप देना चाहती है, ताकि उसका दबदबा कम न हो। कांग्रेस इस साल होने वाले पाँच विधानसभाओं के चुनाव नतीजों का इंतज़ार करना चाहती है, ताकि वह ज़्यादा ताक़त से सीटों की माँग कर सके।
हाल में सीट शेयरिंग को लेकर इंडिया गठबंधन की समन्वय समिति के 14 नेताओं की एनसीपी प्रमुख शरद पवार के आवास पर बैठक हुई थी। लेकिन जानकारी के मुताबिक, सीट शेयरिंग को लेकर इण्डिया गठबंधन के भीतर बहुत बखेड़े हैं। क्षेत्रीय दल कांग्रेस को बहुत ज़्यादा ताक़त नहीं देना चाहते; क्योंकि वो महसूस करते हैं कि यदि कांग्रेस का उभार हुआ, तो इसकी सबसे ज़्यादा $कीमत उन्हें ही चुकानी पड़ेगी।
कांग्रेस महसूस कर रही है कि जनता में उसके प्रति रुझान बढ़ रहा है। आने वाले विधानसभा चुनावों को लेकर भी कांग्रेस बहुत ज़्यादा आश्वस्त है। उसे मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ के अलावा तेलंगाना में अपनी बेहतर सम्भावनाएँ दिख रही हैं। राजस्थान को लेकर तो हाल में राहुल गाँधी भी कह चुके हैं कि वहाँ मुक़ाबला होगा, भले वहाँ किसी के पक्ष में हवा न हो।
कांग्रेस की सबसे बड़ी दिक़्क़त आम आदमी पार्टी (आप) के साथ होने वाली है। वह पंजाब और दिल्ली में सत्ता में है और ज़्यादा सीटों का दावा कर रही है। कांग्रेस यूँ ही इन राज्यों को आम आदमी पार्टी को तश्तरी में रखकर किसी सूरत में नहीं देगी। इन दोनों राज्यों की कांग्रेस इकाइयाँ भी इस हक़ में नहीं है। ऊपर से आप नेता राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में मैदान में उतरने के संकेत दे रहे हैं। कांग्रेस इससे बिफरी हुई है। यदि वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं की बात मानें, तो आम आदमी पार्टी पर कांग्रेस को ज़्यादा भरोसा नहीं। उधर आम आदमी पार्टी की स्थिति कम-से-कम राज्य विधानसभा स्तर पर आज भी मज़बूत दिखती है। आज चुनाव हो जाएँ, तो आम आदमी पार्टी को सत्ता से बाहर करना मुश्किल लगता है। लेकिन लोकसभा सीटों के स्तर पर ज़रूर यह स्थिति नहीं होगी।
कांग्रेस की समस्या माकपा के साथ भी आ रही है। माकपा केरल में सत्ता में है और अगले चुनाव में कांग्रेस वहाँ सत्ता में वापसी की जंग लड़ रही है। वहाँ उसकी सत्ता की लड़ाई है ही माकपा के साथ। दोनों एक-दूसरे के साथ समझौता नहीं कर सकते। कांग्रेस (यूपीए) ने वहाँ सन् 2019 के चुनाव में 20 में से 19 सीटें जीतकर माकपा का स$फाया कर दिया था। अब तो ख़ुद राहुल गाँधी केरल के वायनाड से सांसद हैं। ऐसे में वहाँ कांग्रेस और माकपा में सीटों का समझौता बहुत टेढ़ी खीर है।
हाल में माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी ने साफ़ कहा है कि उनकी पार्टी हर राज्य में गठबंधन नहीं करेगी। येचुरी ने कहा- ‘ज़रूरी नहीं कि जिन राज्यों में कांग्रेस से हमारी लड़ाई होती है, वहाँ गठबंधन किया जाए। इसलिए हर राज्य में गठबंधन नहीं करेंगे। उन राज्यों में गठबंधन नहीं होगा। हम तो यही कहेंगे कि हम जहाँ भी गठबंधन करेंगे ठोस परिस्थितियों के आधार पर करेंगे।’ अब केरल और पश्चिम बंगाल के अलावा माकपा का अन्य राज्यों में ज़्यादा आधार नहीं है। तो कांग्रेस को माकपा के साथ गठबंधन में क्या मिलेगा? ज़ाहिर है माकपा के साथ गठबंधन दूर की कौड़ी रहेगा।
राज्यों में पेच
इण्डिया गठबंधन में लड़ाई दिल्ली और पंजाब की ही नहीं। बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र में भी है और अच्छी-ख़ासी है। उत्तर प्रदेश और बिहार में ऊपर जो शान्ति दिख रही है, वह भीतर नहीं है। इन सभी राज्यों में कांग्रेस ज़्यादा है और सबसे बड़ा कारण है कांग्रेस की राज्य इकाइयाँ जिनका मानना है कि पार्टी बेहतर कर सकती है। दिल्ली, पंजाब और हरियाणा में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की राज्य इकाइयाँ ख़तरनाक तरीक़े से एक-दूसरे से भिड़ी हुई हैं। हरियाणा में कांग्रेस को लग रहा है कि भाजपा-जजपा की गठबंधन खट्टर सरकार से जनता का मोह भंग हो चुका है और वह सत्ता में वापसी की उम्मीद कर रही है।
इन सभी राज्यों में कांग्रेस सबसे ज़्यादा उत्तर प्रदेश में कमज़ोर दिखती है। सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को सिर्फ़ एक सीट मिली थी। उसके बाद विधानसभा के पिछले साल में कांग्रेस के हाथ कुछ नहीं आया। इसके बावजूद कांग्रेस उत्तर प्रदेश में 20 सीटों पर लडऩा चाहती है। इसका कारण सन् 2009 के चुनाव नतीजे हैं, जिनमें कांग्रेस को 22 सीटें मिली थीं। तब कांग्रेस अमेठी, रायबरेली, फ़र्रुख़ाबाद, सुल्तानपुर, फ़ैज़ाबाद, कानपुर, अकबरपुर, बहराइच, बाराबंकी, मुरादाबाद, बरेली, धौरहरा, डुमरियागंज, गोंडा, झाँसी, खीरी, कुशीनगर, महाराजगंज, प्रतापगढ़, श्रावस्ती और उन्नाव जीत गयी थी। भले कहा जाए कि उसके बाद काफ़ी कुछ बदल चुका है, कांग्रेस इन सीटों पर उलटफेर तो कर ही सकती है। हालाँकि समाजवादी पार्टी कभी को नहीं चाहेगी कि कांग्रेस को इतनी सीटें देकर ख़ुद को ही वह कमज़ोर कर ले। कांग्रेस उत्तर प्रदेश में दलित नेता चंद्रशेखर रावण और रालोद नेता जयंत सिंह को साथ ला सकती है।
बिहार की बात करें, तो वहाँ भी पेच जबरदस्त उलझा हुआ है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 25 सितंबर को राजद नेता लालू प्रसाद यादव के साथ गुप्त बैठक की। यही नहीं, नीतीश ने मंत्रिमंडल की बैठक भी की। इससे पहले 02 सितंबर को भी वह लालू से मिले थे। ज़ाहिर है सीटों पर उनकी बात हुई होगी। यह चर्चा भी तेज़ है कि राजद-जद(यू) एक हो सकते हैं। कांग्रेस बिहार में ख़ुद को ज़्यादा सीटों का हक़दार मानती है। बिहार कांग्रेस अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद सिंह कह चुके हैं कि बिहार में कांग्रेस की स्थिति बेहतर है। उनके दावे का आधार यह भी है कि पिछले लोकसभा चुनाव में विपक्ष से एक ही प्रत्याशी जीता था और वह कांग्रेस का था। कांग्रेस बिहार में कम-से-कम 9-10 सीटों पर लडऩा चाहती है। लालू यादव और और नीतीश कुमार के अलावा बिहार में वाम दलों का भी दावा है। महागठबंधन में पहले से ही कुछ छोटे दल भी हैं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन यानी सीपीआई एमएल बिहार महागठबंधन में सात सीटें माँग सकती है। ऐसे में कांग्रेस कैसे ज़्यादा सीटों का रास्ता निकालेगी? यह दिलचस्प होगा।
कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने जहाँ 7 सितंबर, 2022 से 30 जनवरी, 2023 तक 4080 किलोमीटर की भारत जोड़ो यात्रा में पैदल यात्रा की थी; कांग्रेस को लगता है कि उसके प्रति जनता में स्वीकार्यता बढ़ी है। इनमें महाराष्ट्र भी है। कांग्रेस का मानना है कि अब उसका सीटों का हिस्सा एनसीपी और शिवसेना (यूटी) की टक्कर का होना चाहिए। कांग्रेस की इस माँग के पीछे ज़मीनी तर्क भी है; क्योंकि हाल के महीनों में एनसीपी और शिवसेना के कई विधायक टूटकर भाजपा में जा चुके हैं। कांग्रेस ख़ुद को टूट से बचाने में सफल रही है। पिछले चुनाव में शिवसेना ने 18, एनसीपी ने चार सीटें जीती थीं, जबकि कांग्रेस ने सिर्फ़ एक सीट जीती थी। लेकिन निश्चित ही परिस्थितियाँ अब बदल चुकी हैं। बंगाल इण्डिया गठबंधन के लिए अगला मुश्किल राज्य है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अधीर रंजन चौधरी, जो पार्टी के लोकसभा में नेता भी हैं; ने 25 सितंबर को मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की आलोचना की थी। वह किसी भी सूरत में ममता के साथ नहीं जाना चाहते। ममता कांग्रेस को साथ लेने को तो तैयार हैं; लेकिन वाम दलों को किसी सूरत में नहीं। इस साल हुए दो विधानसभा उपचुनावों में एक बार कांग्रेस और एक बार टीएमसी जीत चुकी है।
कांग्रेस पंजाब में भी आम आदमी पार्टी के सामने खड़ी दिखती है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अमरिंदर सिंह राजा वडिंग ही नहीं, विधानसभा में पार्टी के नेता प्रताप सिंह बाजवा भी आप से गठबंधन के सख़्त ख़िलाफ़ हैं। वडिंग पहले ही आलाकमान को संदेश दे चुके हैं कि प्रदेश इकाई की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ कोई फ़ैसला न किया जाए। पार्टी के एक और क़द्दावर नेता नवजोत सिंह सिद्धू भी आम आदमी पार्टी के साथ जाने के ख़िलाफ़ दिखते हैं। आम आदमी पार्टी की पंजाब इकाई और मुख्यमंत्री भगवंत मान भी कह चुके हैं कि पार्टी अकेले लडऩा और जीतना जानती है। पिछले साल के विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को 42.3 फ़ीसदी, जबकि कांग्रेस को 23.1 फ़ीसदी वोट मिले थे। वहीं सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 40.6 फ़ीसदी वोट शेयर के साथ लोकसभा की आठ सीटें मिली थीं; जबकि आम आदमी पार्टी को महज़ एक सीट।