आपने फिर सलवा जुडूम जैसा आंदोलन शुरू किया है. इसकी क्या जरूरत है और उद्देश्य क्या है?
यह सलवा जुडूम नहीं है. हम बस्तर विकास संघर्ष समिति के बैनर तले इकट्ठा हुए हैं. सलवा जुडूम पर तो माननीय उच्चतम न्यायालय ने रोक लगा दी है. हां, नई समिति में सभी पुराने जुडूम लीडर एकजुट हुए हैं. लेकिन वास्तव में यह उन ग्रामीणों का प्रयास है जो अपने क्षेत्र में विकास के अलावा एक लोकतांत्रिक सरकार चाहते हैं. दंतेवाड़ा के 15 से 20 गांवों ने नक्सलियों का विरोध करना शुरू कर दिया है. फिर भी हमारी नक्सलियों से कोई सीधी लड़ाई नहीं है. हमारा उद्देश्य केवल अपने इलाके का विकास करना है. सलवा जुडूम के नेता हमेशा मुझसे कहते रहे हैं कि महेंद्र कर्मा के निधन के बाद बस्तर में एक शून्यता आ गई है. विकास के मोर्चे पर भी यह बहुत पीछे है. बस्तर में जमीनी स्तर पर कहीं भी सरकार नहीं है. हमारी समिति की एक बैठक हो चुकी है. जिसमें नेतृत्व को लेकर सवाल उठे थे. मैंने कह दिया था कि आप में से कोई भी नेतृत्व करे, मैं सभी का सहयोग करने के लिए तैयार हूं. लेकिन ग्रामीणों ने मुझे, चैतराम अटामी (पूर्व सलवा जुडूम नेता व वर्तमान भाजपा नेता) और सुखदेव ताती (पूर्व सलवा जुडूम नेता व वर्तमान भाजपा नेता) को समिति का संरक्षक बनाया है. अब हम अपनी अगली बैठक 25 मई को करेंगे. इस दिन महेंद्र कर्मा की पुण्यतिथि है. बैठक में आगे की रणनीति तय की जाएगी. लेकिन इतना तय है कि इस आंदोलन से हम लोगों को कोई नुकसान नहीं होने देंगे.
सलवा जुडूम पर आरोप लगते रहे हैं कि यह केवल उद्योगों के लिए सकारात्मक व सुरक्षित माहौल बनाने को लेकर शुरू हुआ था. इसलिए भाजपा सरकार ने इसका समर्थन भी किया. आपके पिता महेंद्र कर्मा ने जिन परिस्थितियों में सलवा जुडूम शुरू किया था, क्या फिर वैसी ही परिस्थितियां बन रही हैं? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी बस्तर में आकर विकास की बात कर रहे हैं.
देखिए पहले तो मैं यह स्पष्ट कर दूं. मैंने तो मोदी जी के बस्तर आने के पहले ही अपना विरोध जता दिया है. मैं ‘तहलका’ के जरिए एक बात और कहना चाहता हूं कि छविंद्र कर्मा का शुरू से ही एक ही स्टैंड रहा है कि बस्तर का विकास होना चाहिए. हमारे इलाकों में गांवों तक जाने के लिए सड़कें नहीं है. यदि नक्सलियों को मेरी बात सही लगती है तो उनका भी मेरे मंच पर स्वागत है. लेकिन विकास विरोधियों के लिए हमारे मन में कोई जगह नहीं है. मोदी जी भी जिस औद्योगिक
विकास की बात कर रहे हैं, हम उसका विरोध करते हैं क्योंकि स्थानीय आदिवासी को केवल मजदूर बनानेवाला औद्योगिक विकास हमें नहीं चाहिए.
नक्सली जन अदालत लगाकर खौफ फैला रहे हैं. बंदूक की नोक पर ग्रामीणों से कहते हैं कि वे स्वीकार कर लें कि वे पुलिस के मुखबिर हैं
उनका और आपका तो एक ही उद्देश्य है बस्तर का विकास?
बस्तर का विकास तो हम तत्काल चाहते हैं लेकिन औद्योगिकीकरण अभी नहीं चाहते. पहले बस्तर के आदिवासियों की उद्योगों में भागीदारी सुनिश्चित की जाए. उसे इन उद्योगों से क्या फायदा होगा, यह सुनिश्चित किया जाए. तब तो उद्योगों का स्वागत है, अन्यथा नहीं. इसका कारण है कि बस्तर में तो एनएमडीसी (नेशनल मिनरल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन) और एस्सार जैसे बड़े उद्योगों के प्लांट लगे ही हुए हैं लेकिन इससे बस्तर को कोई फायदा नहीं हुआ.
स्थानीय लोग आज भी बेरोजगार हैं. उलटा इलाके में नक्सली गतिविधियां बढ़ गईं. मैं दावे के साथ कहता हूं कि एस्सार कंपनी नक्सलियों को फंडिंग करती है. आप ही बताइए, जहां सरकार नहीं पहुंच पाती, जहां सुरक्षा बल नहीं पहुंच पाते, वहां से एस्सार अपनी पाइप लाइन सुरक्षित बिछाकर लौह अयस्क सप्लाई कर रहा है. यह नक्सलियों से बगैर सांठ-गांठ किए कैसे संभव है. सभी को पता है कि नक्सलियों ने एस्सार की पाइपलाइन क्षतिग्रस्त कर दी थी. बगैर नक्सलियों की अनुमति के वह कैसे दुरुस्त की गई.
नक्सली आरोप लगाते हैं कि सलवा जुडूम के नाम पर निर्दोष आदिवासियों की हत्या की गई. दो दिन पहले ही नक्सलियों के प्रवक्ता गुड्सा उसेंडी ने विज्ञप्ति जारी कर आपके नए आंदोलन पर भी सवाल उठाए हैं. गुड्सा ने आपके आंदोलन को लेकर विरोध भी जताया है.
कोई साबित तो करे कि जुडूम की आड़ में लोगों ही हत्या हुई है. केवल आरोप लगाने से क्या होगा. दूसरी बात यह कि ऐसा केवल नक्सलियों के पैरोकार ही कहते हैं कि सलवा जुडूम ने निर्दोष आदिवासियों का खून बहाया है. उस वक्त बंदूक लेकर एसपीओ (स्पेशल पुलिस ऑफिसर) चल रहे थे, जुडूम कार्यकर्ताओं के पास तो बंदूकें नहीं थी. एसपीओ राज्य सरकार ने जुडूम कार्यकर्ताओं की सुरक्षा के लिए लगाए थे. जो खून बहा, वह जुडूम कार्यकर्ताओं ने नहीं बहाया. नक्सली ही कभी मुखबिरी के आरोप में तो कभी जनविरोधी होने के आरोप में लोगों की हत्या करते रहे हैं. तब कोई मानव अधिकार कार्यकर्ता नहीं आया आवाज उठाने. क्या महेंद्र कर्मा बंदूक लेकर नक्सलियों से लड़ रहे थे? क्या लोकतंत्र में विरोध करने का भी अधिकार नहीं है? क्या आपके आसपास कुछ गलत हो रहा है तो आप विरोध भी नहीं कर सकते? नक्सली जनअदालत लगाकर खौफ फैला रहे हैं. बंदूक की नोक पर ग्रामीणों से कहते हैं कि वे स्वीकार कर लें कि वे पुलिस के मुखबिर हैं, जनविरोधी हैं. ये कैसी जन अदालत है, जहां जनता तो कोई फैसला नहीं करती, उल्टे नक्सली बंदूक की नोक पर फैसला सुनाते हैं. जहां तक बात गुड्सा उसेंडी की है, तो उनका बयान यही साबित करता है कि नक्सली विकास की बात पर बौखला गए हैं. यही हमारी जीत है.
आप छत्तीसगढ़ कांग्रेस के प्रदेश सचिव हैं, क्या आपने अपने आंदोलन के लिए पार्टी के वरिष्ठ सदस्यों से अनुमति ली है?
अभी हमें नहीं लगता कि किसी की अनुमति की जरूरत है लेकिन भविष्य में जरूरत पड़ी तो पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से बात की जाएगी. वैसे भी यह राजनीतिक आंदोलन नहीं है. यह हमारे घर की समस्या को सुलझाने के लिए एक पहल है. हमारी समिति में शामिल चैतराम अटामी और सुखदेव ताती, भाजपा के नेता हैं. हम सबका स्वागत कर रहे हैं, जो हमारे साथ चलने को तैयार है. सलवा जुडूम के बंद होने के बाद हमारे बहुत सारे साथी मारे गए. इसलिए हमें एक आंदोलन की जरूरत तो महसूस हो ही रही थी. खुद हमारे परिवार ने पिताजी (महेंद्र कर्मा) समेत 93 लोगों को खोया है लेकिन इतना जरूर बता दूं कि सलवा जुडूम चल रहा होता तो नक्सली कभी महेंद्र कर्मा की हत्या नहीं कर पाते. हमारे परिवार में तो शहादत की परंपरा ही चल निकली है. मैंने अपने पिता के अलावा भाइयों, चाचा, ताऊ, मामा और न जाने कितने रिश्तेदारों को खो दिया. अब हम अपने साथियों का और अहित नहीं चाहते हैं बल्कि सब साथ बैठकर इलाके के विकास के लिए काम करना चाहते हैं. यह भी स्पष्ट कर दूं कि यह मेरी राजनीति चमकाने का तरीका नहीं है, जैसा लोग सोच रहे हैं. मेरे पिता परिवार के बीच हमेशा कहते थे कि उनकी मौत नक्सलियों के हाथों होगी. मैं भी जानता हूं कि नक्सली कभी भी मुझे अपना शिकार बना सकते हैं. मैं तो केवल अपने पिता के सपने को पूरा कर रहा हूं, जो अधूरा रह गया था. मुझे इस बात का संतोष है.
क्या राज्य सरकार से समर्थन की उम्मीद रखते हैं आप?
मैं सरकार से समर्थन के लिए बात करना उचित नहीं समझता. छत्तीसगढ़ में कितने कांड हो चुके हैं, रानी बोदली, एर्राबोर, ताड़मेटला और अंत में झीरम घाटी हमला. मैंने झीरम घाटी नक्सल हमला होने के 2 साल बाद तक इंतजार किया कि सरकार नक्सल समस्या को लेकर कोई गंभीर कदम उठाएगी लेकिन नतीजा सिफर रहा. पहले लोगों को लगता था कि राज्य और केंद्र में अलग-अलग पार्टी की सरकार होने से समस्या का सही हल नहीं हो पा रहा है. लेकिन अब तो केंद्र में भी साल-भर से भाजपा की ही सरकार है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दो घंटे के लिए बस्तर आए और चले गए. मैं कहता हूं कि यदि नक्सल समस्या को समझना है तो पहले बस्तरवासियों की मनःस्थिति समझनी पड़ेगी. उस दंश को समझना होगा, जो वे झेल रहे हैं. वे क्यों नक्सलियों की मदद करने को मजबूर हैं, यह समझना होगा. यह दो घंटों में समझ नहीं आएगा. मैं समझता हूं कि नक्सली समस्या का सबसे आसान समाधान है वार्ता और विकास साथ-साथ चलें. लेकिन राज्य सरकार ने 11 साल में कुछ नहीं किया, जिससे स्थितियां भयावह हो गई हैं. अभी अब सरकार को लगता है तो वह हमारे आंदोलन को सुरक्षा दे सकती है क्योंकि हमारे पास तो बंदूके हैं नहीं. हम तो केवल इतना चाहते हैं कि आंदोलन से जुड़नेवाले लोगों को सुरक्षा मिले. लेकिन यह कहने हम सरकार के पास नहीं जाएंगे, इसे वे खुद समझें तो बेहतर होगा.
कितने लोग हैं आपके साथ?
पुराने सभी जुडूम नेता हमारे साथ हैं. जनाधार भी है. लेकिन कौन हैं, कितने हैं, इसका खुलासा अभी नहीं कर सकता. अंत में इतना जरूर कहना चाहता हूं कि हम चाहते हैं कि अब सरकार और नक्सली दोनों स्पष्ट करें कि आखिर वे चाहते क्या हैं? सरकार का रवैया नक्सल समस्या को लेकर गंभीर नहीं है. बस वे केंद्र से नक्सल समस्या के नाम पर बड़ा बजट मंगाने के अलावा कुछ नहीं कर रही है. नक्सली भी वसूली में लगे हैं. दोनों का उद्देश्य केवल जनता को लूटना है.