देश और समाज के जनमानस और जीवन की बहुत सी बातें, इतिहास, घटनाएं आदि आपस में इस तरह से घुली-मिली रहती हैं कि मिथक, विभ्रम या फिर गल्प कथा की शक्ल ले लेते हैं. आधुनिक भारत के जीवन में भी ऐसी अनेक कथाएं हैं जो लगती तो इतिहास हैं पर हैं विभ्रम या गल्प शिल्प का गजब संजोग. इस संजोग की एक खास बात है जैसे बिना धुएं के आग नहीं होती वैसे ही बिन घटना के कोई बात नहीं होती. कुछ होता है जो घटा होता है जिस पर गल्प और भ्रम सवार होकर जनमानस में बस जाते हैं. कई बार तो इस हद तक रच-बस जाते हैं कि इन्हें इतिहास माना जाने लगता है. जन इस रसिक गल्प इतिहास का पान अपनी आवश्यता के अनुसार गाहे-बगाहे करता रहता है.
इन गल्प कथाओं का अपना एक देशज भूगोल होता है, संस्कृति होती है और साथ-साथ एक विशिष्ट राजनीति होती है. दरअसल हर गल्प कथा का आवरण राजनीति से ही संबल पाता है. यह संबल ही इन्हें संजीवनी प्रदान करता है. ऐसी परिकथा के दुखांत-सा किस्सा है जयपुर राजघराने के खजाने का जिसे आज तक राजनीति की संजीवनी ने राजस्थान समेत उत्तर भारत से लेकर बंगाल-बिहार तक जिंदा रखा हुआ है.
जयपुर का राजघराना मुगलों के वक्त से लेकर आधुनिक भारत तक किसी न किसी रूप में चर्चा में रहा है. गायत्री देवी की विश्व प्रसिद्ध सुदंरता के किस्से हों या राजा जयसिंह द्वितीय का शिल्प प्रेम, सभी किस्से जनमानस में रच-बस गए हैं. इन सब कहानियों पर सबसे भारी एक किस्सा पड़ता है.
यह बतकही इंदिरा काल की है. आपातकाल का दौर था. आज की भारतीय जनता पार्टी का पूर्ववर्ती जनसंघ लोकतंत्र के साथ-साथ तत्कालीन राजतांत्रिक शक्तियों को भी साधने की जी-तोड़ कोशिशें कर रहा था. इंदिरा गांधी द्वारा राजाओं-सामंतों को मिल रही सुविधाओं को बंद करने की वजह से इनमें सरकार को लेकर खासा असंतोष था. जनसंघ और आरएसएस इस असंतोष को अपने पक्ष में करने में सफल हो चुका था. जयपुर राजघराने की गायत्री देवी और ग्वालियर राजघराने की विजयराजे सिंधिया के साथ संघ करीबी राजनीतिक संबंध स्थापित कर चुका था.
खजाना और राजकुमारियां लोकतांत्रिक समाज के स्वप्नों से अभी पूरी तरह से खारिज नहीं हुए हैं, इसीलिए आज भी जब उन्नाव में एक बाबा द्वारा खजाना छिपा होने की तथाकथित भविष्यवाणी की जाती है तो पूरे देश की निगाहें अपना सारा काम-धाम छोड़कर उसी पर लग जाती हैं. मीडिया रोज इस खजाने का नया इतिहास तक खोज लाता है. बाबा जनाब के भक्त चारों ओर नए-नए किस्सों को जनमानस में फैलाते हैं और जनता खजाने के रसास्वादन में डूब जाती है.
चार्ली चैपलिन की एक फिल्म ‘गोल्ड रश’ में कुछ इसी किस्म की लोभी मानव वृत्ति का बेहद सजीव चित्रण हुआ है. कुल जमा बात यह है कि खजाना प्राप्ति एक ऐसा मुफ्त का चंदन है जिसे हर कोई अपने माथे पर सजाना चाहता है. भले ही इसके लिए उसे कितने ही अनजाने सांपों से क्यों न भिड़ना पड़े. यह अलग बात है अगर किसी को किस्से में भी इसके मिलने का जिक्र हो तो सीने पर सांप भी कम नहीं लोटते हैं. तिसपर अगर जिक्र भारत के प्रधानमंत्री का हो तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि लोग सामान्य तर्क को भी चूल्हे में फेंकने में वक्त नहीं गंवाते हैं. ऐसा ही किस्सा है आमेर के खजाने का. पांच वर्ष पूर्व अपने तीन वर्ष के जयपुर प्रवास के दौरान चाय की थड़ी से लेकर आमेर के गाइड तक से इस किस्से को सुना. यही नहीं आज भी गाहे-बगाहे कई ब्लॉग और खबरिया वेबसाइट इस किस्से की याद को ताजा कर देते हैं. इतना तो तय है कि यह अनंत कथा आज माता-पिता बन चुकी पीढ़ी ने अवश्य सुनी होगी. इसे सुनाने और फैलाने में जनसंघियों की खासी भूमिका रही है. आज भी कुछ स्वघोषित स्वामी टाइप लोग इस गल्प को जिंदा रखने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे हैं.
किस्सा कुछ यूं फैलाया गया है कि जयपुर राजघराने के आमेर महल में छिपे खजाने को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने निकालकर सीधे विदेश भेज दिया था. इस काम में उनके बेटे संजय गांधी और बांग्लादेश के राजनेता मुहम्मद युनुस ने मदद की थी. इस छिपे खजाने को खोजने और कब्जा करने के पीछे वजह इंदिरा गांधी की जयपुर राजघराने से तथाकथित नाराजगी थी. वह राजघराने की गायत्री देवी से नाराज थी. बात यहीं तक नहीं रुकी. इस पूरे मामले में व्यक्तिगत छींटाकशी भी बेहद निम्न स्तर तक जाकर की गई. विपक्ष ने न केवल प्रधानमंत्री के पद की गरिमा-मर्यादा को चोट पहुंचाई बल्कि व्यक्तिगत चरित्र हनन तक इस मामले में किया. यहां तक कहा-सुना गया कि इंदिरा गांधी की हत्या और अल्प आयु में संजय गांधी की मृत्यु के पीछे भी मुख्य वजह इस खजाने को लूटने का श्राप था. आमेर महल के गाइड के मुताबिक तो इस महल के खजाने की खोज में इंदिरा गांधी को तीन माह का समय लगा और खजाना मिलने के बाद तीन दिन के लिए दिल्ली-जयुपर हाईवे आम आवाजाही के लिए पूरी तरह बंद कर दिया गया. आर्मी के लगभग साठ ट्रकों में खजाने को भरकर सीधे एयरपोर्ट भेजा गया. कहा यह भी जाता है कि यह खजाना मान सिंह प्रथम ने अफगानिस्तान युद्घ में विजय के बाद हासिल किया था. तब से यह खजाना जयपुर के राजाओं के पास सुरक्षित रखा गया था. गाइड साहब इसकी सुरक्षा व्यवस्था के प्रमाण में आमेर संग्रहालय में रखी एक चाभी भी दिखाते हैं जिसके ताले में एक खास कोड पड़ा था और वह सिर्फ राजा को मालूम था. राजा जब भी खजाने का मुआयना करने जाते तो कारिंदों की आंखों में पट्टी बांध दी जाती ताकि कोई खजाने और ताले के कोड को देख न सके. यानी यह एक ऐसा खजाना था जिसे राजा और उसके परिवार के अलावा किसी ने नहीं देखा था. और इंदिरा गांधी द्वारा विदेश भेजने तक भी इसके दर्शन किसी ने नहीं किए. जो फौजी ट्रक इसे भरकर ले गए थे और जिन फौजियों ने इसे ट्रकों में भरा था आज तक उनकी ओर से इसकी कोई आधिकारिक तस्दीक नहीं की है कि किसी ने खजाना देखा था या फिर वह उसे सीधे एयरपोर्ट लेकर गए थे. लगता है कि सदाबहार देवानंद की तरह खजाने की भी अंतिम इच्छा रही होगी कि कोई रसिक और प्रशंसक उसका अंतिम दर्शन न करे. पर इसके बावजूद किस्सा है कि हर बार कुछ नए रंग लेकर सामने आ जाता है. हर बार नई बात और कुतर्क के साथ इसका रसास्वादन करने का मौका जनता को मिल ही जाता है.
गौर फरमाएं
इस पूरे किस्से पर अगर ज्यों का त्यों यकीन कर लिया जाए तो सबसे बड़ा सवाल तो भारतीय फौज की निष्पक्षता और देशभक्ति पर खड़ा हो जाएगा. कैसे भारतीय फौज सिर्फ एक व्यक्ति के हित में देश का अहित कर सकती है. यह संभव नहीं है. अगर खजाना मिला भी होगा तो फौज ने उसे राजकोष में जमा कराया होगा न कि विदेश पहुंचाया होगा. इसके अलावा यह एक ऐसा खजाना था जिसका इस्तेमाल खस्ताहाल राजघराने ने अपने सबसे बुरे दिनों में भी नहीं किया. सवाल उठता है कि क्यों नहीं किया. क्या इस किस्से का प्रिवी पर्स और बैंकों के राष्ट्रीयकरण से अप्रत्यक्ष संबंध नहीं दिखाई देता. क्या वजह है कि आज तक इस बात का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं दिया गया कि इस खजाने को गांधी परिवार ने अपनी निजी संपत्ति बनाकर रखा है जबकि तत्कालीन विपक्षी दलों के वंशज कई बार केंद्र और राज्य सरकार में आ चुके हैं. आज भी राज्य और केंद्र में उनकी ही सरकार है. अगर यह इतनी अहम बात है तो आज तक कोई जांच क्यों नहीं करवाई गई. आज तक क्यों राज परिवार के अलावा किसी ने इस खजाने के दर्शन नहीं किए. यह कुछ ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब इस बतकही में नहीं मिलता .