सकल ताड़ना के अधिकारी

उत्तर प्रदेश की ब्यूरोक्रेसी इस समय एक ऐसी अंधेरी सुरंग में फंसी हुई है जहां ईमानदारी और नैतिकता की चादर बचाए रखने वाले अधिकारियों का दम घुट रहा है. बेईमान, भ्रष्ट और जमीर से समझौता कर चुके अधिकारी आगे तो बढ़ रहे हैं मगर उन्हें भी यह नहीं मालूम कि इस सुरंग का सिरा कहीं खुलेगा या फिर उन्हें इसी में फंसे रह जाना है.’ लखनऊ में सचिवालय में तैनात प्रमुख सचिव स्तर के एक अधिकारी की यह पीड़ा उत्तर प्रदेश फायर सर्विसेज के डीआईजी डीडी मिश्रा के प्रकरण के बाद अधिकारियों के बीच शुरू हुई आम सुगबुगाहट है. दरअसल मिश्र प्रकरण मायावती सरकार के लिए खतरे की बड़ी घंटी बन गया है क्योंकि इसके बाद से अन्य कई अधिकारी भी तंत्र के भ्रष्टाचार के खिलाफ मुखर होने की हिम्मत जुटाने लगे हैं.

विपक्ष ने भी इस प्रकरण के बाद भ्रष्टाचार के मुद्दे पर मायावती को नए सिरे से घेरना शुरू कर दिया है. समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और भाजपा समेत सभी छोटे-बड़े राजनीतिक दल इस मामले में मुख्यमंत्री मायावती को सीधे-सीधे जिम्मेदार ठहरा रहे हैं. डीआईजी स्तर के वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी मिश्रा को जिस तरह से जोर-जबर्दस्ती और धक्का मुक्की करके उनके दफ्तर से बाहर निकाला गया उससे पुलिस विभाग के अलावा दूसरे विभागों के वरिष्ठ अधिकारी भी भन्नाए हुए हैं. मिश्र से सहानुभूति रखने वाले एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी कहते हैं, ‘टीवी पर मिश्र को जिस तरह धकिया कर गाड़ी में बिठाते हुए दिखाया गया उससे लीबिया में कर्नल गद्दाफी को गिरफ्तार कर गोली मारे जाने वाला दृश्य याद आ गया. वहां एक घोषित युद्ध में एक निहत्थे आदमी के साथ बर्बरता हो रही थी, तो यहां लोकतांत्रिक राज्य में एक अधिकारी के साथ उन्हीं के हमपेशा वर्दीवाले बर्बरता से पेश आ रहे थे.’

दरअसल डीआईजी मिश्रा ने गृह विभाग के प्रधान सचिव फतेह बहादुर सिंह सहित मायावती सरकार के तमाम अफसरों पर भ्रष्टाचार में लिप्त होने के गंभीर आरोप लगाए थे. इसके बाद शासन ने इस मामले को दबा देने की हर संभव कोशिश की. एक ओर मिश्र के आरोपों पर जांच की घोषणा की गई तो दूसरी तरफ उन्हें मानसिक रूप से बीमार घोषित करने के लिए भी पेशबंदी शुरू हो गई (बॉक्स देखें). हालांकि शायद ब्राह्मण और दलित गठजोड़ वाली उत्तर प्रदेश की राजनीति मिश्रा के काम आ गई और उनकी जान जल्दी ही छूट गई. जानकारों का मानना है कि चूंकि मिश्रा के साथ जो कुछ हुआ उसके तुरंत बाद ही बसपा  ब्राह्मण सम्मेलन आयोजित करने वाली थी इसलिए वे सस्ते में छूट गए. मगर ईमानदार अधिकारियों से निपटने का उत्तर प्रदेश के बेईमान और भ्रष्ट अफसरों का यह तरीका बेहद पुराना है और ऐसा केवल बसपा की सरकार कर रही हो ऐसा भी नहीं है. हां मायावती सरकार ने इसे नई ऊचाइयों तक जरूर पहुंचा दिया है. सही और धारा के विरूद्ध आवाज उठाने वाले अधिकारियों को पहले भी इसी तरह से पागल ठहराया जाता रहा है. उत्तर प्रदेश और एक तरह से देश भर में ब्यूरोक्रेसी के भ्रष्टाचार के खिलाफ पहली बड़ी आवाज उठाने वाले आईएएस अधिकारी धर्मसिंह रावत को भी इसी तरह पागल ठहराने की कोशिश की गई थी. यह भी संयोग ही है कि 1986 में जिस वक्त धर्म सिंह रावत ने प्रशासन में भ्रष्टाचार के विरोध में और जवाबदेही लाने के लिए उपवास शुरू किया था उस वक्त वे भी उसी इंदिरा भवन में तैनात थे जहां से मिश्रा को रात दस बजे जबरन बाहर निकाला गया. रावत दस से पांच तक अपने जिस कार्यालय में नौकरी करते थे, रात भर उसी कक्ष में उपवास पर बैठते थे.

उत्तर प्रदेश में तैनात कई वरिष्ठ अधिकारी डीडी मिश्रा के साथ हुए व्यवहार से छुब्ध हैं. वे दबी जुबान में कहते हैं कि यह मामला यूं ही खत्म नहीं होगा

उस दौर के हिसाब से रावत का उपवास एक क्रांतिकारी घटना थी. वीरबहादुर सिंह की कांग्रेस सरकार की छवि को इससे गहरा आघात लगा था. लेकिन तब भी रावत को दफ्तर से जबरन बाहर नहीं फेंका गया था. सिर्फ उनका निलंबन ही हुआ जो जांच पूरी होने के बाद समाप्त हो गया था. रावत ने जो मुहिम तब शुरू की थी वही बाद में उत्तर प्रदेश के प्रशासनिक अधिकारियों के बीच तीन महाभ्रष्ट अधिकारी चुनने तक पहुंची और एक प्रकार से रावत की मुहिम ही सूचना के अधिकार की पूर्व पीठिका भी बनी क्योंकि रावत ने ही पहली बार प्रशासनिक अधिकारियों की जवाबदेही का मुद्दा उठाया था. तो क्या रावत की ही तरह अब मिश्र की मुहिम भी किसी बड़े अंजाम तक पहुंच सकेगी?

उत्तर प्रदेश के कई वरिष्ठ अधिकारी यह मानते हैं कि यह मामला यूं ही खत्म नहीं होगा. इसके परिणाम दूरगामी होंगे. पूर्व पुलिस प्रमुख एमसी द्विवेदी कहते हैं, ‘अब ऐसी स्थिति हो गई है कि हर अधिकारी भविष्य की चिंता से डरने लगा है.’ यह बात तय है कि उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों के बाद अगर राजनीतिक सत्ता बदलती है तो कई लोगों को मुसीबतों का सामना करना पड़ सकता है. शायद इसी से बचने के लिए अब कई अधिकारी अपना पिंड छुड़ाने के फेर में पड़ गए हैं. एक दिलचस्प चलन यह है कि जब-जब मायावती सत्ता से बाहर हुई हैं तब-तब उनके प्रिय अधिकारियों को खामियाजा भुगतना पड़ा है. मायावती के तीसरे कार्यकाल में मुख्य सचिव रहे डीएस बग्गा की पेंशन अब तक रुकी है. दूसरे प्रमुख सचिव पीएल पुनिया को भी कई विवादों का सामना करना पड़ा था. ताज कॉरिडोर प्रकरण में आईएएस अधिकारी आरके शर्मा को भी लंबे समय तक निलंबित रहना पड़ा था.

वर्तमान में उत्तर प्रदेश की प्रशासनिक मशीनरी कैसे काम कर रही है इसका उदाहरण राज्य के दो-चार प्रमुख विभागों के काम-काज से ही मिल जाता है. सूबे में मनरेगा के भ्रष्टाचार को लेकर केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश द्वारा करोड़ों रुपये के घोटाले के आरोप को भले ही मुख्यमंत्री मायावती ने राज्य पुलिस की विशेष आर्थिक अपराध शाखा से जांच करवाने की बात कह कर टाल दिया हो लेकिन मनरेगा की मलाई काट रहे तंत्र को इस बात का अंदेशा है कि अगर मामला अदालत तक पहुंचा तो गर्दन बचाना मुश्किल हो जाएगा.

राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) के घोटाले में तो तीन-तीन सीएमओ स्तर के डॉक्टरों की जान तक जा चुकी है. इस मामले की सीबीआई जांच जारी है. सीबीआई तीनों वरिष्ठ डॉक्टरों के हत्यारों तक पहुंचने के साथ-साथ सैकड़ों करोड़ के गबन की तह में पहुंचने की कोशिश भी कर रही है. बिजली महकमे के कई सौदे लोकायुक्त की जांच के घेरे में हैं तो नोएडा, ग्रेटर नोएडा समेत कई हाईवे, जमीन अधिग्रहण और आवंटन के मामलों में या तो अदालती डंडा चल चुका है या फिर किसी न किसी स्तर पर जांच जारी है. पुलिस महकमा तो भ्रष्टाचार के संरक्षक और सहयोगी के रूप में ही चर्चित हो चुका है. अन्ना हजारे के अनशन के दौरान नई दिल्ली में उनके मंच पर आकर उत्तर प्रदेश पुलिस में चल रहे संस्थागत भ्रष्टाचार की पोल खोलने वाले पुलिस कांस्टेबल कमलेश यादव को बर्खास्त तो कर दिया गया है लेकिन इससे भी पुलिस के दामन का दाग छिप नहीं सका है. डीडी मिश्र के प्रकरण ने तो विभाग के काम-काज की गड़बडि़यों की सिर्फ एक दो पर्तें ही उधाड़ी हैं. अभी ऐसे ही और बहुत सारे मामले सामने आने बाकी हैं.

वैसे भी उत्तर प्रदेश पुलिस की फायर सर्विसेज पहले से ही विवादों की प्रिय चरागाह रही है. मायावती सरकार के दूसरे कार्यकाल में इसी विभाग के 2.5 करोड़ रुपये के एक घोटाले ने मायावती को मुसीबत में डाल दिया था. मामला फ्लोट पंपों की खरीद का था. ठेका चेन्नई की एक फर्म को मिला था जिसका मालिक बीएसपी की तमिलनाडु शाखा का अध्यक्ष था. इस मामले में एक दलित पुलिस अधिकारी सीडी कैंथ ने जब पम्पों की खरीद पर संस्तुति करने से इनकार कर दिया तो उन्हें मायावती सरकार ने निलंबित कर दिया. कहा जाता है कि 1997 में एडीजी स्तर के उस अधिकारी ने इसी तनाव के चलते अपने बाथरूम में खुद को गोली मार ली थी. मायावती के मौजूदा कार्यकाल में खुद को गोली मार कर आत्महत्या करने वाले वरिष्ठ आईएएस अधिकारी हरमिंदर राज सिंह की तरह कैंथ की आत्महत्या का राज भी अब तक राज ही बना हुआ है. मायावती के बाद मुख्यमंत्री बने कल्याण सिंह ने जब इस मामले की सीबीआई जांच का फैसला किया तो मायावती को दिल्ली हाई कोर्ट से अग्रिम जमानत लेनी पड़ी थी. सीबीआई ने इस मामले में मायावती और सात अधिकारियों के खिलाफ मामला भी दर्ज किया था. उनके चौथे कार्यकाल में उसी फायर सर्विसेज के एक और घोटाले में एक आईपीएस अधिकारी ने मायावती पर फिर उंगली उठाई है तो ऐसा माना जा रहा है कि इस बार भी यह घोटाला कुछ न कुछ रंग जरूर दिखाएगा.

सरकार जवाबदेही से बच रही है. पत्रावलियों पर मुख्यमंत्री की बजाय विशेष सचिव स्तर के अधिकारियों को दस्तखत करने को मजबूर किया जा रहा है

हालांकि सत्ता के गलियारों में इस बात की भी चर्चा है कि मायावती इस बार बेहद फूंक-फूंक कर काम कर रही हैं. उनकी रणनीति यह है कि वे यदि सत्ता से बाहर भी हो जाएं तो भी सीधे-सीधे किसी मामले में उनके खिलाफ कानूनी शिकंजा कसा न जा सके. सचिवालय के एक अधिकारी के मुताबिक मौजूदा सरकार में हर अधिकारी अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही से बचना चाहता है. जिन पत्रावलियों पर मुख्यमंत्री के हस्ताक्षर होने चाहिए उन पर पहले प्रमुख सचिव स्तर के अधिकारियों से दस्तखत करवाए जाते थे, मगर अब विशेष सचिव स्तर के अधिकारियों को दस्तखत करने को मजबूर किया जा रहा है. हर बड़ा अफसर अपनी गर्दन बचाने की जुगत में है. ज्यादातर पत्रावलियों में ‘मुख्यमंत्री के निर्देश पर …’ आदेश हो रहे हैं. कल को कोई जांच हुई तो साबित करना मुश्किल होगा कि उन्होंने निर्देश दिया भी था या नहीं. सारा मामला जुबानी जमा-खर्च है, लिखा-पढ़ी में कुछ भी नहीं. राज्य के कैबिनेट सचिव के बारे में तो मशहूर है कि वे अपनी सभी पत्रावलियों को पेंसिल से ही मार्क करते हैं.

मिश्रा प्रकरण ने तंत्र को घुन की तरह खोखला कर रहे भ्रष्टाचार की ओर भी इशारा किया है और साथ ही अधिकारियों पर बढ़ रहे दबाव तथा तनाव की ओर भी. 19 जुलाई, 1986 को तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह को लिखे एक लंबे पत्र में निलंबित आईएएस अधिकारी धर्म सिंह रावत ने लिखा था, ‘मैं ही अकेला ईमानदार अधिकारी यहां पर नहीं हूं, इस व्यवस्था में ज्यादातर अधिकारी व कर्मचारी ईमानदार हैं. पर अधिकांश अधिकारी अपनी ईमानदारी के संबंध में अपने को अकेला समझते हैं.’ कमोबेश यही स्थिति आज भी है. बल्कि ईमानदार अधिकारी आज और भी अकेले तथा अलग-थलग हो चुके हैं. अब तो उत्तर प्रदेश में आईएएस और आईपीएस एसोसिएशन भी पूरी तरह निष्क्रिय हो चुके हैं. इसलिए सही ढंग से काम करने वाले अधिकारियों  को किसी भी प्रकार का सांगठनिक समर्थन नहीं मिल रहा है.

गुजरात में संजीव भट्ट के खिलाफ पुलिसिया कार्रवाई के तरीके पर वहां के पुलिस अधिकारियों का बड़ा तबका आवाज उठा लेता है मगर उत्तर प्रदेश में मिश्र के मामले में इक्का-दुक्का अधिकारी ही दबी जुबान में कुछ कह पाने की हिम्मत कर पाते हैं. हालांकि राज्य के प्रायः सभी पूर्व पुलिस प्रमुख यह स्वीकार करते हैं कि भ्रष्टाचार ने सिस्टम को इस तरह शिकंजे में कस लिया है कि उसमें ईमानदार अधिकारी के लिए काम करना मुश्किल हो गया है और उसे शर्तिया तनावग्रस्त होना ही है.इससे दो ही तरीकों से निपटा जा सकता है. या तो राजनीतिक नेतृत्व भ्रष्टाचार के खिलाफ दृढ़ इच्छाशक्ति वाला हो या फिर सूचना के अधिकार, लोकपाल, जनहित याचिकाओं आदि के द्वारा भ्रष्टाचार के खिलाफ व्यापक मोर्चा शुरू हो. उत्तर प्रदेश में उम्मीद दूसरे तरीके से ही अधिक दिखाई देती है. खास तौर पर तब, जब अन्ना हजारे उत्तर प्रदेश में व्यापक जन जागरण और कार्यक्रमों की घोषणा कर चुके हैं.उम्मीद की लौ कुछ पूर्व अधिकारियों ने भी जला रखी है. मायावती सरकार में ‘जातिराज’ किताब लिख कर चर्चा में आए पूर्व पीसीएस अधिकारी लक्ष्मीकांत शुक्ल और पूर्व आईपीएस अधिकारी अजय सिंह राज्य में व्याप्त अराजकता के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं. हालांकि इनकी इच्छा भी राजनीति में उतरने की है लिहाजा यह यकीन कर पाना मुश्किल है कि काजल की कोठरी में घुसकर वे बेदाग बाहर निकल पाएंगे.