संवैधानिक पदों की गरिमा ताक पर

The President, Smt. Droupadi Murmu, during her swearing-in-ceremony at Central Hall, Parliament, in New Delhi on July 25, 2022.

शैलेंद्र कुमार ‘इंसान’

संविधान की गरिमा होती है। इस गरिमा का सम्मान हर नागरिक को करना चाहिए। परन्तु अब संविधान की धज्जियाँ सरेआम उड़ायी जाती हैं। कई संवैधानिक पदों का तिरस्कार कर नये-नये शब्दों को गढ़ा जाने लगा है। जैसे इस बार राष्ट्रपति को महामहिम न कहकर माननीय कहा जाने लगा। अर्थात् देश के सर्वोच्च पद पर बैठे पहले नागरिक को सामान्य सांसदों की श्रेणी में लाने की यह एक कोशिश हुई है, जो आने वाले समय में राष्ट्रपति का सम्मान कम कराएगी। इसकी शुरुआत भी केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी द्वारा हो चुकी है, जिन्होंने राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू को बेचारी ग़रीब आदिवासी महिला तक कह दिया, जो कि बचाव के नाम पर सीधा-सीधा राष्ट्रपति का अपमान था।

इसी प्रकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी बार-बार आदिवासी राष्ट्रपति कहकर उनका अपमान किया। इससे पहले पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का भी कई बार अपमान किया गया। देखा गया कि उन्हें राष्ट्रपति होने के बावजूद रामनाथ कोविंद और उनकी पत्नी को कथित रूप से पुष्कर मन्दिर, जगन्नाथपुरी मन्दिर में नहीं घुसने दिया गया। वह हाथ जोड़ते थे, तो भी प्रधानमंत्री से लेकर गृहमंत्री यहाँ तक कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी उन्हें नमस्कार नहीं करते थे। इन लोगों ने उन्हें अपने सामने कभी रेड कारपेट पर नहीं चलने दिया।

इससे पता चलता है कि संवैधानिक पदों पर बैठे स्वयंभू लोग ख़ुद को ऊँचा मानने वाले जातिवाद से बाहर नहीं निकलते। विचारणीय है कि जब ये लोग इनके समान तथा इनसे उच्च पदों पर बैठे छोटी जाति के लोगों की इज़्ज़त नहीं करते, तो फिर ये सामान्य जनता में निम्न वर्ग के लोगों को किस खेत की मूली समझते होंगे। सामान्य वर्ग के लोगों को तो ये लोग वैसे भी कुछ नहीं समझते। इनमें उन माननीयों की भी बड़ी ग़लती है, जो निम्न वर्गों से आते हैं और अपने अतिरिक्त अपने वर्ग के लोगों के अपमान को बर्दाश्त करते हैं। निम्न वर्गों के जन प्रतिनिधि विधानसभा और संसद में पहुँचने के बाद ख़ुद को उच्च मानने लगते हैं तथा अपने वर्ग के लोगों के साथ उसी तरह का व्यवहार करते हैं, जो व्यवहार उनसे स्वयंभू उच्च वर्गों के जन प्रतिनिधि करते हैं। परन्तु उनका सम्मान फिर भी स्वयंभू उच्च वर्ग के जन प्रतिनिधि नहीं करते। भाजपा में तो निम्न वर्गों के जन प्रतिनिधियों और स्वयंभू उच्च वर्ग के जन प्रतिनिधियों के बीच एक भेदभाव की खाई सदैव रहती है, जो अमूमन सार्वजनिक मंचों पर भी दिखायी दे जाती है।

अब स्वयंभू उच्च वर्गों के जन प्रतिनिधियों के महिमामंडन को भी देख लें, जिसमें संवैधानिक पदों का मखौल उड़ाये जाने का स्पष्ट रूप दिखायी देता है। सभी जानते हैं कि प्रधानमंत्री का पद एक संवैधानिक पद है। लोकसभा का चुनाव जीतने के बाद बहुमत वाली पार्टी, जो केंद्र में सरकार बनाने की स्थिति में होती है, उसके लोकसभा सदस्यों की सहमति से संवैधानिक रूप से किसी सांसद को प्रधानमंत्री चुना जाता है तथा प्रधानमंत्री को संवैधानिक भाषा में प्रधानमंत्री ही बोला जाता रहा है। जबकि गरिमापूर्ण संबोधन के लिए माननीय प्रधानमंत्री कहा जाता है। लेकिन अब प्रधानमंत्री को सरेआम प्रधान सेवक बोला जाने लगा है, ख़ासकर भाजपा के नेताओं, सांसदों, विधायकों और मंत्रियों द्वारा, वह भी संसद में।

दूसरी बात संवैधानिक भाषा में प्रधानमंत्री को माननीय कहकर संबोधित किया जाना चाहिए, परन्तु अब भाजपा के नेता, सांसद, विधायक और मंत्री प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यशस्वी प्रधानमंत्री या यशस्वी प्रधान सेवक कहकर संबोधित करते हैं। तीसरी बात, पहले केंद्र की सत्ता को केंद्र सरकार या भारत सरकार कहा जाता था, लेकिन अब भाजपा के कार्यकर्ताओं से लेकर नेता, विधायक, सांसद और मंत्री तक मोदी सरकार कहते हैं। यहाँ तक कि लगातार कथित आरोप लग रहे हैं कि प्रधानमंत्री ख़ुद को चमकाने में लगे रहते हैं। उनका हर मंत्रालय में इतना दख़ल है कि उस मंत्रालय को सँभालने वाले मंत्री को भी अपने विभाग के निर्णय लेने का अधिकार नहीं है।

यह सब भले ही कथित आरोप हैं, परन्तु ऐसे आरोप यूँ ही नहीं लगते। अक्सर देखा गया है कि हर क्षेत्र में उद्घाटन, शिलान्यास तथा विकास कार्यों की घोषणा प्रधानमंत्री ही करते हैं। जबकि यह काम उस मंत्री का होता है, जिसके मंत्रालय के तहत वह काम हुआ हो। ऐसे ही तस्वीरें खिंचाने और वीडियोग्राफी कराने का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का शौक़ किसी से छिपा नहीं है। कई बार उन्हें कैमरे के सामने आने वालों को सामने से हटने का इशारा करते देखा गया है। सार्वजनिक स्थलों से लेकर मंदिरों तक में उन्हें साफ़-साफ़ कैमरे पर फोकस करते देखा गया है। जानकार कहते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी कहीं भी जाएँ, उनके साथ दर्ज़नों कैमरे रहते हैं।

क्या यह जानबूझकर किया जा रहा, ताकि देश की जनता के दिमाग में यह घुसाया जा सके कि मोदी ही सरकार हैं और सर्वोपरि हैं। क्या नरेंद्र मोदी वन मैन पॉवर बनने की कोशिश में लगे हैं? क्या वह जनतांत्रिक रूप से सत्ता को अपने हाथ की कठपुतली बनाकर आजीवन जबरन सत्ता में बने रहना चाहते हैं?

यह सब अनायास ही नहीं कहा जा रहा है। सन् 2014 में उनके सत्ता में आने के बाद यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि मोदी के अलावा किसी में प्रधानमंत्री बनने की क्षमता नहीं है। जबकि नरेंद्र मोदी की योग्यता के बारे में भी सब जानते हैं। उनकी डिग्रियों तक को लेकर संदेह बना हुआ है। आज भी उनकी डिग्रियों को लेकर सवाल खड़े हैं, जिनका जवाब नहीं दिया जाता है। ऐसे ही उनके नौ वर्ष के कार्यकाल को कई ऐसी घटनाएँ हुई हैं, जिन्हें भूले से भी नहीं भुलाया जा सकता। सन् 2014 में उनके लिए पागल हो चुकी जनता में अधिकतर लोग अब उनके ख़िलाफ़ दिखायी देने लगे हैं। पिछले चार-पाँच वर्षों के सर्वे बताते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता लगातार गिर रही है। विपक्षी दलों का उनके ख़िलाफ़ एकजुट होने का यही कारण है।

उनके पसंदीदा कामों में पार्टी प्रचार, यात्राएँ, कैमरे के सामने सूटबूट में रहना तथा खचाखच भरी जनसभाएँ हैं। प्रचार सभाओं में विपक्षियों को लगातार कोसना भी उनके काम का हिस्सा बन चुका है। चुनाव किसी भी राज्य के हों, दर्ज़नों रैलियाँ तथा जनसभाएँ उनकी ही होती हैं। छोटे से लेकर बड़े चुनाव भी वह अपने नाम पर लड़ते हैं। अगर इस सबको प्रधानमंत्री अपना काम समझते हैं, तो उन्हें प्रधानमंत्री के उत्तरदायित्वों को एक बार फिर समझने की ज़रूरत है। उन्हें ख़ुद इस बात को समझने की ज़रूरत है कि जब उनकी चुनावी रैली और चुनावी सभाओं में लोग आते तक नहीं हैं, तो उन्हें एक बड़ी जीत कैसे मिल जाती है? इस सवाल पर देश की जनता, चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायालय को भी ध्यान देने की आवश्यकता है।

प्रधानमंत्री का पद संवैधानिक गरिमा के साथ-साथ देश की दिशा तय करने वाला शक्तिशाली पद है। इसे हल्के में लेना तथा उत्तरदायित्वों की जगह चेहरा चमकाने वाले कार्यों को करके इतिश्री समझना एक बड़ी भूल है। प्रधानमंत्री पद पर बैठे व्यक्ति को संवैधानिक द्वारा दी गयी शक्तियों से अतिरिक्त मनमानी करने का अधिकार नहीं होता है। उसे स्वयंभू अथवा निरंकुश बनने का कोई अधिकार है ही नहीं। उसे वही कार्य करने का अधिकार संविधान ने दिया है, जो देश और जनहित में हों। साथ ही प्रधानमंत्री पद पर बैठे व्यक्ति की अपने देश और जनता के प्रति जवाबदेही भी तय होती है, जिसके लिए वह उत्तरदायी है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद-75 के अनुसार, संसद के मंत्रि परिषद् का नेता प्रधानमंत्री होता है, जिसकी नियुक्ति राष्ट्रपति तब करता है, जब यह मंत्री परिषद् उसे प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार करने पर राजी होता है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद-78 प्रधानमंत्री के कर्तव्यों को निर्धारित करता है। संविधान में दिये गये प्रधानमंत्री के कर्तव्यों तथा अधिकारों के अनुसार ही देश के हर प्रधानमंत्री को अपना कार्य करना चाहिए।

साथ ही किसी भी जन प्रतिनिधि को यह अधिकार नहीं है कि वह संवैधानिक पदों पर बैठे अन्य जन प्रतिनिधि को संवैधानिक संबोधन के अतिरिक्त गरिमाहीन तथा अतिरिक्त गरिमामयी शब्दों के संबोधन से अपमानित तथा सम्मानित करने की कोशिश करे। परन्तु पिछले कुछ वर्षों से इस तरह की परंपरा पड़ती दिख रही है कि निम्न वर्ग के जन प्रतिनिधियों को गरिमाहीन शब्दों से संबोधित करके उनका अपमान किया जाने लगा है, जबकि स्वयंभू उच्च वर्गों के जन प्रधिनिधियों को गढ़े गये गरिमामयी शब्दों से सम्मानित किया जा रहा है, जिसकी अनुमति संविधान नहीं देता है।

प्रधान सेवक, यशस्वी, पूज्यनीय, अवतार, भगवान, विकासपुरुष, चौकीदार, सबसे लोकप्रिय, इनके अतिरिक्त और कोई नहीं इत्यादि इसी प्रकार के गढ़े हुए शब्द जबरन सम्मान कराने के लिए बार-बार बोले जाने लगे हैं। ऐसे ही आदिवासी ग़रीब महिला, दबे-कुचले, दलित, बेचारा-बेचारी, दया के पात्र इत्यादि गरिमाहीन शब्दों से तथा प्रतिष्ठित संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों का सम्मान न करने से अपमानित करने पर भी रोक लगनी चाहिए। भारतीय संविधान तथा संवैधानिक पदों की गरिमा बचाये तथा बनाये रखने के लिए इन दोनों ही प्रकार की स्थितियों पर पूरी तरह रोक लगनी चाहिए।