‘शराफत गली में मुड़ गई, मैं देखता रह गया…’

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‘भइया, कहां तक जाओगे? धर्मशिला अस्पताल से होते हुए जाओगे क्या?’ कार सर्विसिंग के लिए गई थी, इसलिए दफ्तर जाने के लिए मैंने ऑटो कर लिया था. घर के पास वाले तिराहे पर बत्ती लाल हुई तो ऑटो थोड़ी देर के लिए रुक गया. तभी सड़क पर पैदल चल रहा यह शख्स अचानक ऑटोवाले से मुखातिब हुआ था.

मैंने उसे गौर से देखा. धूल सनी पैंट-शर्ट और हवाई चप्पल पहने हुए करीब 35-40 साल का एक आदमी. उसका बायां हाथ एक डोरी के सहारे कंधे से लटका हुआ था.

मैं कुछ कहता उससे पहले ऑटोवाला रूखे स्वर में बोला, ‘नहीं, दूसरी तरफ से जाना है.’

वह बोला, ‘भइया जी, मुझे भी थोड़ा आगे तक ले चलो, धर्मशिला के आस-पास कहीं भी मुझे उतार देना. हाथ में थोड़ी दिक्कत हो गई है. गरीब आदमी हूं. बसों में बड़ी भीड़ है. हाथ किसी से जरा सा भी छू जाए तो बहुत दर्द होता है.’

मेरे मन में अचानक कुछ पुरानी स्मृतियां उभरीं. दिल्ली आए मुझे कुछ ही दिन हुए थे जब एक दिन घर के पास वाली सरकारी डिस्पेंसरी के बाहर एक बुजुर्ग महिला मुझसे टकरा गई थी. उसका कहना था कि हिसार से इलाज के लिए यहां आई है, सारे पैसे खत्म हो गए इसलिए अब वापस जाने के लिए किराये की समस्या है. मैं थोड़ा भावुक हो गया था. पढ़ाई के दिन थे, इसलिए जेब में ज्यादा पैसे तो नहीं थे, लेकिन 65-70 जितने भी रुपये निकले उसे दे दिए.

लेकिन ऐसी भावुकता को किस तरह पेशेवर तरीके से भुनाया जा सकता है, यह मुझे चार दिन बाद ही मालूम हो गया जब वह बुढ़िया मुझसे फिर किसी दूसरी जगह पर टकरा गई. इस बार उसके पास एक नई कहानी थी.

इसके कुछ महीने बाद मैं एक नए तरीके से ठगा गया. कुछ अपने इन दो तजुर्बों और बाकी दूसरे दोस्तों के ऐसे ही अनुभवों से धीरे-धीरे समझ में आ गया कि दिल्ली में यह भी ठगी का एक चोखा तरीका है. शायद उस ऑटोवाले का वास्ता भी ऐसी कुछ घटनाओं से पड़ा ही होगा इसलिए वह भी चेहरे पर बिना कोई भाव लाए आगे देखे जा रहा था. बत्ती हरी होने में कुछ सेकंड ही बचे थे. उसकी रूखाई देखकर वह आदमी बोला, ‘भइया, हम भी कंडक्टरी करते हैं 511 के रूट पे. सच में दिक्कत है, थोड़ा आगे ही उतर जाऊंगा. बड़ी मेहरबानी होगी. कोई दूसरा ऑटो इतनी पास तक जाने को तैयार ही नहीं हो रहा.’

जाने क्या सोचकर मैंने कहा, ‘ठीक है, बैठ जाओ, जहां उतरना हो बता देना.’ इतना सुनना था कि वह लपककर मेरी ही बगल में बैठ गया. मैंने भी मानसिक रूप से खुद को तैयार करना शुरू कर दिया कि थोड़ी देर में जब यह पैसे मांगेगा तो कैसे इससे पिंड छुड़ाना है.

जैसा कि अपेक्षित था, उसने आते ही अपनी रामकहानी शुरू कर दी. ‘क्या बताएं भइया. बहुत मुसीबत में हैं. तीन महीने पहले एक एक्सीडेंट हो गया था. हाथ में फ्रैक्चर हो गया. ईएसआई अस्पताल गए थे. वहां डॉक्टरों ने लापरवाही कर दी. हाथ में वह रॉड लगा दी जो पांव में लगती है. केस बिगड़ गया. फिर एक प्राइवेट अस्पताल गए. वहां दोबारा ऑपरेशन हुआ. 30 हजार रुपया लग गया. लेकिन अब भी आराम नहीं है. हाथ में जरा छू जाए तो ऐसा दर्द उठता है कि पूछो मत. अब डॉक्टर कह रहे हैं कि फिर ऑपरेशन करना पड़ सकता है.’

मैं और ऑटोवाला दोनों इस दौरान सपाट चेहरे और अनमने भाव के साथ हूं-हां करते रहे. उधर, वह बोलता जा रहा था, ‘घर में और कोई नहीं है. सिर्फ बूढ़ी मां है. मेरी ही कमाई से घर चल रहा था.’ मैं पूरी कोशिश कर रहा था कि चेहरे पर कोई नरमाहट न दिखे. मन में यही उत्सुकता, भूमिका तो बढ़िया बना रहे हो बच्चू, अब देखते हैं प्वाइंट पर कब आते हो?

इस बीच धर्मशिला अस्पताल आ गया. ऑटोवाला बोला, ‘आ गया तुम्हारा अस्पताल.’ वह बोला, ‘भइया, इससे बस थोड़ा ही आगे जाना है, आप चलते रहो. मैं बता दूंगा.’ अब तो मुझे पक्का यकीन हो गया. ये उन्हीं में से एक है.

उसकी कहानी जारी थी. ‘अब इलाज कराने का तो बूता रहा नहीं, भइया. सुना है यहां पास में एक वैद्य जी रहते हैं जिनकी दवा से कैसा भी दर्द हो आराम हो जाता है. सोचा, यहां भी किस्मत आजमा लें. बस भैया, यहीं रोक लेना.’

वह ऑटो से उतरकर कुछ कहने की मुद्रा में खड़ा हो गया. मैंने भी आखिरी हमले के लिए खुद को तैयार कर लिया.

‘मेहरबानी भइया. आपका बड़ा सहारा हो गया. नहीं तो इस धूप में तीन-चार किलोमीटर पैदल आना पड़ता. मेरे पास ज्यादा तो नहीं हैं फिर भी…’, यह कहते हुए उसने सकुचाते हुए 10 रुपये का एक नोट ऑटोवाले की तरफ बढ़ा दिया.

मुझे झटका लगा. आशंका के उलट हुई इस बात से ऑटोवाला भी अचकचा गया और बोला, ‘अरे क्या कर रहे हो यार, कोई बात नहीं.’

आंखों से आभार झलकाते हुए वह मुड़ा और सड़क पार करते हुए एक गली में दाखिल हो गया.