वीरेंद्र सहवाग मेरे प्रिय बल्लेबाज नहीं हैं, लेकिन उन्हें बल्लेबाजी करते देखना हमेशा मुझे रास आता रहा. क्रिकेट में जिसको अनिश्चितता का तत्व कहते हैं वह उनकी बल्लेबाजी में बिल्कुल अनूठे रूप में दिखाई पड़ता है. वे कभी भी बहुत कमजोर गेंद पर बहुत लापरवाह शॉट लगाकर आउट हो सकते हैं. लेकिन वे कभी भी किसी बहुत अच्छी गेंद को छह रन के लिए ऐसे कोने में भेज सकते हैं जिसके बारे में गेंदबाज ने सोचा भी न हो, और वह भी ऐसे मौके पर, जब कोई दूसरा बल्लेबाज यह दुस्साहस न करे. 80 रन पार करने के बाद बल्लेबाज ठिठक जाते हैं. 90 के बाद तो वे बिल्कुल क्रीज से चिपके रहना चाहते हैं और गेंद को किसी तरह इधर-उधर ठेल कर शतक पूरा करने की कोशिश करते हैं. लेकिन अक्सर इसके आसपास वीरेंद्र सहवाग की बल्लेबाजी में पंख लग जाते हैं. वे 80 से 100 तक या फिर दोहरे और तिहरे शतक तक इस अंदाज में पहुंचते हैं जैसे बिजली पर सवार हों. मुल्तान में अपना पहला तिहरा शतक उन्होंने छक्का लगाकर पूरा किया था तो लाहौर में 183 रन पर पहुंचने के बाद लगातार चार गेंदों पर चार चौके जड़े और पांचवीं गेंद पर एक रन लेकर अपना दोहरा शतक पूरा किया.
हालांकि इस दुस्साहस ने कई बार सहवाग को झटका भी दिया है. एक बार वे दोहरे शतक के बिल्कुल करीब, 195 रन बनाकर आउट हो चुके हैं तो एक बार तिहरे शतक तक पहुंच कर अटक गए हैं. वे उस पारी में 293 रन पर आउट हुए. अगर वह तिहरा शतक लग गया होता तो विश्व क्रिकेट में वीरेंद्र सहवाग अकेले बल्लेबाज होते जिनके पास तीन तिहरे शतक होते. फिलहाल ब्रैडमैन, लारा और क्रिस गेल के साथ वे चौथे बल्लेबाज हैं जिनके खाते में दो तिहरे शतक हैं.
उनमें विवियन रिचर्ड्स वाला दबदबा है, एडम गिलक्रिस्ट वाला बेलौसपन, जावेद मियांदाद वाली दादागीरी और सचिन तेंदुलकर वाला स्ट्रोक प्ले
तो क्या यह शतक पूरा करने की बेताबी है जो सहवाग को ताबड़तोड़ रन बनाने की प्रेरणा देती है और इसीलिए वे कई बार शतक के करीब पहुंच कर भी आउट हो जाते हैं? लेकिन आंकड़े इसकी तस्दीक नहीं करते. वे बताते हैं कि दूसरे खिलाड़ी शतक के पास पहुंच कर ज्यादा लड़खड़ाते रहे हैं. सहवाग वनडे और टेस्ट मैच दोनों में 90 से 100 के बीच पांच-पांच बार आउट हो चुके हैं. जबकि द्रविड़ और तेंदुलकर टेस्ट पारियों में 10-10 बार 90 से 100 के बीच आउट हुए हैं, और लारा और पॉन्टिंग छह बार नर्वस नाइंटीज के शिकार हुए हैं. ठीक है कि इन लोगों ने ज्यादा टेस्ट खेले हैं, लेकिन इस मामले में सहवाग का औसत फिर भी इनसे बेहतर ठहरता है. सहवाग की ही तरह, गैरी सोबर्स, सुनील गावसकर और जाक कैलिस भी पांच-पांच बार टेस्ट मैचों में शून्य पर आउट हुए हैं. वनडे में भी सहवाग दूसरों के मुकाबले इस मुकाम पर कहीं ज्यादा स्थिर नजर आते हैं.
कहने का मतलब यह कि 90 से 100 के बीच का दबाव सतर्क रहकर खेलने वाले बड़े बल्लेबाजों को ज्यादा तोड़ता रहा है, बेलौस और लापरवाह सहवाग के किले को भेदने के मौके उसे कम मिले हैं. इसलिए कि सहवाग की बल्लेबाजी में एक तरह की उन्मुक्तता दिखती है, उल्लास दिखता है. वे रिकाॅर्ड बनाने के दबाव में बल्लेबाजी नहीं करते हैं, वे कला और कौशल दिखाने के लिए बल्लेबाजी नहीं करते हैं, वे बस स्ट्रोक लगाने और रन बनाने के लिए बल्लेबाजी करते हैं. जैसे-जैसे उनकी पारी आगे बढ़ती है, वैसे-वैसे उनकी आंख जमती जाती है और गेंद के साथ उनका व्यवहार और निर्मम होता जाता है. यही वजह है कि सहवाग के खाते में लंबी पारियां अपने दूसरे साथियों के मुकाबले कहीं ज्यादा हैं.
दरअसल सहवाग की खूबी यह है कि वे एक बार रन बनाना शुरू करते हैं तो फिर रुकते ही नहीं. शायद ब्रैडमैन के अलावा वे अकेले दूसरे बल्लेबाज हैं जिनके पास इतनी तेज रफ्तार से और इतनी देर तक रन बनाने का हुनर हो. वे जैसे सौ मीटर की रेस वाली रफ्तार से मैराथन दौड़ते हैं. दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ उन्होंने सिर्फ 278 गेंदों पर 300 रन बना डाले. यह रफ्तार वनडे ही नहीं, ट्वेंटी-20 मुकाबलों में भी किसी के लिए ईर्ष्या का विषय हो सकती है, लेकिन यह सहवाग का स्वाभाविक खेल है. टेस्ट मैचों में जो सबसे तेज दस दोहरे शतक हैं, उनमें से पांच सहवाग के हैं और शुरुआती चार सबसे तेज दोहरे शतकों में तीन सहवाग के हैं. इन तीनों दोहरे शतकों के लिए सहवाग ने 200 से भी कम गेंदें खेली हैं. वनडे मैचों में से भी सहवाग ने छह शतक 60 से 77 गेंदों के बीच बनाए हैं.
आखिर वह कौन-सी चीज है जो सहवाग को यह रफ्तार भी देती है और टिकाऊपन भी? इस सवाल के जवाब के लिए हमें एक और चीज समझनी होगी. हर विधा का- चाहे वह खेल हो, कविता हो, कला हो या भाषा हो- अपना एक व्याकरण होता है, अपने कुछ नियम होते हैं. लेकिन हर व्याकरण का आखिरी नियम यही होता है कि उसका कोई नियम नहीं होता. किसी भी विधा पर अंतिम पकड़ का यही मतलब होता है कि आप उसके व्याकरण को तोड़कर अपना व्याकरण बनाते हैं.
वीरेंद्र सहवाग ठीक यही काम करते हैं. वे सिर्फ गेंदबाजों की धज्जियां नहीं उड़ाते, क्रिकेट के व्याकरण के भी चीथड़े-चीथड़े कर देते हैं. जिसे कॉपी बुक क्रिकेट कहते हैं, वह उनके खेल में कहीं नहीं है. जिसे शास्त्रीयता कहते हैं, उसकी सहवाग को जैसे जरूरत नहीं पड़ती. जिसे नफासत और कलात्मकता कहते हैं, उससे भी वे कोसों दूर हैं. उनके फुटवर्क की बहुत आलोचना की जाती है, लेकिन वे जैसे अंगद की तरह क्रीज पर होते हैं. उनकी निगाह गेंद पर होती है और पकड़ बल्ले पर, जिसके सहारे वे किसी भी गेंद को पूरी निर्ममता से सीमा पार भेज देते हैं. जहां यह संतुलन टूटता है, सहवाग पैवेलियन जाते दिखते हैं, लेकिन ऐसे मौके वे कम आने देते हैं. वे अपनी तरह से अपनी बल्लेबाजी शैली विकसित करते हैं. बल्कि विकसित करने जैसी कोशिश भी उनके यहां नहीं दिखती, वहां सब कुछ स्वाभाविक है, सब कुछ कुदरती.
टीएस इलियट ने कविता के संदर्भ में परंपरा और प्रतिभा पर जो लेख लिखा है, सहवाग के संदर्भ में उसकी याद आती है. निश्चय ही क्रिकेट की या बल्लेबाजी की परंपरा से सहवाग ने बहुत कुछ हासिल किया होगा, लेकिन उनकी अपनी प्रतिभा ने उस परंपरा की बिल्कुल अलग लकीर बना दी है. जिन लोगों ने सहवाग को बहुत शुरू से खेलते देखा है, उन्हें याद होगा कि वे एक दौर में बल्लेबाजी करते हुए सचिन की तरह दिखते थे, लेकिन अब वे मुकम्मिल सहवाग हैं जिनकी बल्लेबाजी का रंग बिल्कुल अलग है, जिसमें कई रंग पहचाने जा सकते हैं- उसमें विवियन रिचर्ड्स वाला दबदबा है, गिलक्रिस्ट वाला बेलौसपन, जावेद मियांदाद वाली दादागीरी और सचिन तेंदुलकर वाला स्ट्रोक प्ले.
इंदौर वनडे में जो 219 रनों की पारी सहवाग ने खेली उसमें यह सहवागी अंदाज खूब पहचाना जा सकता था. वे अपनी मर्जी से स्ट्रोक लगा रहे थे- बिल्कुल सहज और बिल्कुल अप्रत्याशित. 50 ओवर खेलने का धीरज उन्होंने यहां भी नहीं दिखाया. लेकिन उनकी तूफानी रफ्तार ने वेस्टइंडीज के गेंदबाजों के छक्के छुड़ा दिए. बाद में सहवाग ने कहा भी कि वे जहां चाह रहे थे वहां छक्के लगा रहे थे.
यहां दो बातें और ध्यान देने लायक हैं. सहवाग की यह पारी किसी शून्य से नहीं निकली थी. इसके पीछे पिछली कुछ पारियों की नाकामी से उपजी खीझ भी रही होगी. कहीं अपनी कप्तानी में अपनी बल्लेबाजी के न खिल पाने का गुस्सा रहा होगा. अपनी छिटपुट आलोचनाओं के बीच कहीं न कहीं यह साबित करने की इच्छा रही होगी कि अब भी उनका कोई सानी नहीं. दरअसल ऐसी विराट पारियां सिर्फ प्रतिभा से नहीं, एक तरह की इच्छाशक्ति से भी खेली जाती हैं. सहवाग ने यही किया और एक ऐसा रिकाॅर्ड बना डाला जिसके पार जाना आसान नहीं.
दूसरी बात यह कि भारतीय क्रिकेट बहुत दूर तक बाजार का खेल बन गया है. आईपीएल संस्करण इस बाजारूकरण का ही एक रूप है, जिसने क्रिकेट को बड़ी पूंजी की गोद में ला बैठाया है और क्रिकेटरों को विज्ञापनबाज सितारों में बदल डाला है. सहवाग भी इस प्रक्रिया के शिकार हुए हैं. लेकिन ध्यान से देखें तो वीरेंद्र सहवाग के पूरे व्यक्तित्व में एक तरह का देशज अनगढ़पन है- वे न सचिन की तरह कुलीन लगते हैं, न धोनी और युवराज की तरह स्ट्रीट स्मार्ट. इस लिहाज से वे बाज़ार के सामने कहीं ज़्यादा मुश्किल खड़ी करते हैं. उनसे काम लेने के लिए बाजार को अपनी कसौटियां बदलनी पड़ती हैं. अगर वे इतने कामयाब बल्लेबाज न होते तो शायद बाजार उन्हें अब तक धूल में मिला चुका होता. बस दो-तीन साल पहले ही सहवाग को खराब प्रदर्शन की वजह से टीम से बाहर बैठने की नौबत झेलनी ही पड़ी थी.
बहरहाल, मैंने टीवी पर ग्वालियर में सचिन का लगाया दोहरा शतक भी देखा है. वह दोहरा शतक क्रिकेट के जीनियस का अद्भुत प्रमाण है. सचिन ने उस पारी में बिल्कुल कलाकार की तरह स्ट्रोक लगाए. काफी नपे-तुले ढंग से गढ़ी गई वह पारी बताती थी कि कायदे से सचिन को ही वनडे का पहला दोहरा शतक लगाना चाहिए था जो उन्होंने लगाया. मुझे सचिन की वह पारी सहवाग के 219 रनों की पारी से ज्यादा सुंदर और संपूर्ण लगती है. लेकिन सचिन ने कसौटी बनाई तो सहवाग उस कसौटी के पार गए. सहवाग ने याद दिलाया कि कुदरती तौर पर वही वनडे मैचों में दोहरा शतक लगाने के हकदार हैं. सच तो यह है कि सचिन से हम वनडे के दूसरे दोहरे शतक की उम्मीद नहीं कर सकते- अब उम्र भी उनके साथ नहीं है और मिजाज भी उनका ऐसा नहीं है. लेकिन वीरेंद्र सहवाग वह बल्लेबाज हैं जो फिर से दोहरा शतक लगा सकते हैं, अपना रिकार्ड बेहतर कर सकते हैं.