किसी अवश्यंभावी युद्ध के लिए आमने-सामने खड़ी दो सेनाओं में से किसी एक सेना के कुछ बड़े सिपाही अगर ऐन मौके पर लड़ने से इंकार कर दें, और कुछ प्रतिपक्षी बेड़े में शामिल होने लगें तो यह स्थिति उस सेना के गिरते मनोबल को साफ तौर पर दर्शाती है. सामान्य बुद्धि व्यवहार से लेकर आदर्शवाद तक का तकाजा कहता है कि ऐसी स्थिति में उस सेना के सेनापति को सामने आकर अपने सैनिकों का हौसला बढ़ाना चाहिए और खुद पहल करते हुए विपक्षी दल पर पहला वार करना चाहिए. लेकिन अगर वह सेनापति ऐसा करने के बजाय पहले ही लड़ाई के मैदान में उतरने से इंकार कर चुका हो और उसकी जगह पर सेना की अगुआई करने के लिए भी कोई लड़ाका सामने न आए तो ऐसी स्थिति में उस सेना की हार अवश्यंभावी हो जाती है. इस सबके बीच एक अहम सवाल यह भी पैदा होता है कि इतिहास में उस सेनापति को किस तरह याद रखा जाएगा?
देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस के मौजूदा हालातों पर यह काल्पनिक कहानी और इसके पात्र पूरी तरह फिट बैठते नजर आते हैं. आगामी चुनावों के लिए यह पार्टी मैदान में उतर चुकी है. तयशुदा हार को देखते हुए उसके कई प्रमुख नेता चुनाव लड़ने से इंकार कर चुके हैं, और कुछ दलबदलू बन कर विपक्षी जहाज में चढ़ गए हैं. सेनापति की भूमिका वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह मोर्चा संभालने के बजाय पहले ही चुनाव लड़ने से इंकार कर चुके हैं और पार्टी उनके बगैर बिना किसी घोषित नाम की अगुआई के चुनाव मैदान में खड़ी है. इन परिस्थियों को देखते हुए बहुत से राजनीतिक पंडित पार्टी की हार को तय मान रहे हैं. यदि हार-जीत के सवाल को अलग भी रख दिया जाए तब भी ऊपर वाली कहानी की भांति यहां भी वैसा ही अहम सवाल पैदा होता है – इतिहास उन मनमोहन सिंह को किस तरह याद रखेगा जिनके द्वारा पार्टी की अगुआई से हाथ खींचने के बाद उनकी जगह लेने के लिए कोई दूसरा शख्स सामने ही नहीं आया?
इस सवाल का जवाब ढूंढ़ने के लिए मनमोहन सिंह के दशक भर लंबे कार्यकाल का लेखा-जोखा खंगालने के साथ ही उन घटनाओं, परिस्थितियों तथा परिणामों का आकलन करना जरूरी है जो कुछ लोगों के लिए उनके व्यक्तित्व को विरासत-विहीन बताने का आधार तैयार करती हैं.
2004 में यूपीए की पहली पारी की कमान संभालने से पहले मनमोहन सिंह को राजनीतिक मायनों मे लो-प्रोफाइल से भी नीचे की जमात का व्यक्ति माना जाता था. इसकी बहुत बड़ी वजह उनका 24 कैरेट ब्यूरोक्रेट वाला कलेवर और गैर-राजनीतिक प्रवृत्ति का होना था. लेकिन देश की कमान संभालने के बाद इस शर्मीले सरदार का पूरा व्यक्तित्व अनिवार्य रूप से राजनीतिक परिधि में आ गया. यहीं से उनको पास और फेल की कसौटी पर तौलने की प्रक्रिया भी शुरू हो गई.
इससे पहले मनमोहन सिंह राजीव गांधी की सरकार में योजना आयोग का दफ्तर संभालने से लेकर रिजर्व बैंक के गवर्नर और देश के वित्तमंत्री रह चुके थे. 1991 में वित्तमंत्री बनने के बाद उन्होंने ही देश में आर्थिक सुधारों के दरवाजे खोले थे. इस सबके बावजूद शायद ही किसी को भी इस बात का भान रहा होगा कि वे कभी हमारे देश के प्रधानमंत्री भी बन सकते हैं. 2004 में अनुकूल परिस्थियों के बावजूद विदेशी मूल के मुद्दे पर जब सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री बनने से इंकार कर दिया था तो तब भी अटकलों का पेंडुलम शुरुआती दौर में प्रणव मुखर्जी और अर्जुन सिंह जैसे बड़े नामों की तरफ ही झुका था. लेकिन सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह पर मुहर लगा दी और वे प्रधानमंत्री बन गए. तभी से उन पर सोनिया गांधी की कृपा से सात रेसकोर्स रोड पहुंचने वाले शख्स का तमगा भी चस्पा कर दिया गया. वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई कहते हैं, ‘गैर राजनीतिक पृष्ठभूमि के बावजूद सोनिया गांधी का उन्हें प्रधानमंत्री बनाना इस बात की तरफ साफ इशारा था कि वे दस जनपथ के द्वारा ही गवर्न किए जाएंगे.’
सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान बहुत सारी घटनाओं ने इस धारणा को धार देना शुरू किया. बाद में यह धारणा तब और भी बलवती हो गई जब मनरेगा और आरटीआई जैसी महत्वपूर्ण उपलब्धियां मनमोहन सरकार के बजाय सोनिया गांधी के खाते में जाती दिखीं. यहां तक कि 2009 के चुनाव में उतरते वक्त भी पार्टी ने इनका श्रेय सोनिया गांधी को ही दिया. इस मामले में सबसे बड़ी विडंबना यह रही कि इस सब पर प्रधानमंत्री ने कभी कोई आपत्ति तक नहीं की. कई जानकारों के मुताबिक यह एक तरह से मनमोहन सिंह की हाईकमान के प्रति अगाध आस्था का परिचायक थी. इसके बाद बहुत से और भी मौके आए जब मनमोहन सिंह पूरी तरह दस जनपथ के रंग में रंगे मिले. धीरे-धीरे लोगों के मन में उनके रोबोट प्रधानमंत्री होने की धारणा इस कदर घर कर गई कि अखबारों में छपने वाले कार्टूनों से लेकर सोशल मीडिया तक में यह साफ दिखने लगा. कार्टूनों के जरिए जहां सांकेतिक तौर पर उन्हें सोनिया गांधी के इशारे पर चलने वाला प्रधानमंत्री बताया गया, वहीं सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर इस बारे में खुलकर कमेंटबाजी होने लगी. मौजूदा राजनीतिक जमात में सबसे सीनियर और प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा के नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने उन्हें अब तक का सबसे कमजोर और लाचार प्रधानमंत्री तक करार दिया. अपने दस साल के कार्यकाल की शुरुआत में अंतर्राष्ट्रीय फलक पर सुर्खियां और सराहना बटोरने वाले मनमोहन सिंह अपने दूसरे कार्यकाल में वहां भी गरियाये जाने लगे. पश्चिमी मीडिया के निशाने पर आए प्रधानमंत्री को पहले टाइम पत्रिका ने ‘अंडरअचीवर’ की संज्ञा दी और फिर इंडिपेंडेंट ने भी उनकी आलोचना में लेख छापा. अमरीका के जाने-माने अखबार ‘वाशिंगटन पोस्ट’ ने तो उनकी काबिलियत पर सवाल उठाते हुए यहां तक लिख दिया कि, ‘मनमोहन सिंह के सर पर इतिहास में एक विफल नेता के तौर पर याद किये जाने का खतरा है.’
जानकारों की मानें तो देश से लेकर दुनिया भर में हो रही इस आलोचना के पीछे बेशक बहुत सारे दूसरे कारण भी माने जा सकते हैं लेकिन बारीकी से देखा जाए तो सबसे बड़ा कारण उनका दस जनपथ के इशारे पर चलने वाली इमेज में बंधा होना ही था. अपनी सरकार की उपलब्धियों का सारा श्रेय सोनिया गांधी के सुपुर्द करने से लेकर राहुल गांधी के लिए किसी भी वक्त कुर्सी छोड़ने के लिए तैयार रहने जैसे वक्तव्य देकर मनमोहन सिंह ने कई मौकों पर इस बात को चरितार्थ भी किया है. जेएनयू में प्रोफेसर पुष्पेश पंत कहते हैं, ‘दागी जन प्रतिनिधियो के संबंध में सरकार द्वारा लाए गए अध्यादेश को राहुल गांधी की नाराजगी के बाद तुरंत वापस लेने की घटना से भी इस बात को बहुत हद तक समझा जा सकता है कि दस जनपथ के प्रति वे किस कदर आस्थावान हैं.’
हालांकि इस सबके बावजूद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कुछ मौकों पर इस धारणा को तोड़ने का प्रयास भी किया. परमाणु करार के मुद्दे पर लेफ्ट पार्टियों द्वारा सरकार गिराने की धमकी के बावजूद टस से मस न होने के उनके फैसले को इस नजरिए से बेहद अहम कहा जा सकता है. जानकारों का मानना है कि पूरे कार्यकाल में एकमात्र इस मौके पर ही ऐसा हुआ जब मनमोहन सिंह दस जनपथ के खोल से बाहर निकल कर काम करते दिखे. गौरतलब है कि परमाणु करार के मुद्दे पर मनमोहन सिंह अपनी शांत छवि के विपरीत एक ऐसे जिद्दी सरदार के रूप में तब्दील हो गए थे जिसने अपनी कुर्सी दांव पर लगी होने के बावजूद इस करार को लेकर गजब की प्रतिबद्धता दिखाई. इस करार पर उनके दस्तखत करते ही बाहर से समर्थन दे रही वाम पार्टियों ने सरकार को तलाक देकर उसके सामने शक्ति परीक्षण की चुनौती रख दी थी. हालांकि तब समाजवादी पार्टी ने उसे जरूरी आक्सीजन मुहैया करा दी लेकिन इस दौरान एक ऐसी घटना भी हुई जिसने मनमोहन के इस फैसले को अपनी कालिख से धुंधला कर दिया. परमाणु करार के मुद्दे पर जिस वक्त संसद में शक्ति परीक्षण हो रहा था, उसी वक्त कुछ सांसदों ने लोक सभा में नोटों की गड्डियां लहरा दीं. इन सांसदों का आरोप था कि परमाणु करार पर समर्थन जुटाने के लिए उन्हें रिश्वत दी गई थी. इस घटना ने भारतीय लोकतंत्र के मुंह पर जोरदार तमाचा तो मारा ही साथ ही मनमोहन सरकार पर भी संदेह की सुइयां टिका दीं. जानकारों की मानें तो यह मामला सिर्फ नोट लहराने या सरकार बचाने भर का नहीं था. चूंकि उस वक्त प्रधानमंत्री की कुर्सी पर मनमोहन सिंह बैठे थे इस लिए कई लोग इस घटना के लिए उन्हें भी कम से कम नैतिक रूप से दोषी मानते हैं.
प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह पर इसके अलावा दूसरी संवैधानिक संस्थाओं का मानमर्दन करने के आरोप भी लगे. ऐसे में एक नजर उन घटनाओं की तरफ डालना जरूरी है जिनके जरिए ऐसी संवैधानिक संस्थाओं पर पड़ी चोटों के निशान ढूंढे जा सकते हैं.
सबसे पहले सीएजी को लेकर प्रधानमंत्री और उनकी सरकार के रवैये का जिक्र करते हैं. कोल आवंटन को लेकर हुई तमाम गड़बड़ियों के संदर्भ में मनमोहन सिंह के कार्यकाल को देखा जाए तो मालूम पड़ता है कि इस बेहद सम्मानित संवैधानिक संस्था पर तब जम कर बरछे, भाले बरसाए गए जब उसने 2012 में अपनी रिपोर्ट में इन गड़बड़ियों को उजागर किया. सीएजी ने 2006 से 2010 के बीच हुए कोयला ब्लाक आवंटन में हुई अनियमितताओं के चलते देश को 1.86 लाख करोड़ रुपये का नुकसान होने की बात उजागर की थी. इस दौरान एक लंबे समय तक प्रधानमंत्री खुद ही कोयला मंत्रालय का काम संभाल रहे थे. लेकिन इस पर कोई जवाब देने के बजाय प्रधानमंत्री और उनकी टीम ने सीएजी पर ही सवाल उठाने शुरू कर दिए. उसकी रिपोर्ट को विवादास्पद बताते हुए मनमोहन सिंह का कहना था कि इस रिपोर्ट को लोक लेखा समिति (पीएसी) के सामने आने पर चुनौती दी जाएगी. जानकारों की मानंे तो यह कृत्य पूरी तरह से एक संवैधानिक संस्था के अधिकारों को चुनौती देने की संज्ञा में आता है. तब प्रधानमंत्री द्वारा सीएजी पर सवाल उठाने की घटना से हैरानी जताने वालों में एक दौर में राज्यसभा में उनके साथी रहे और राजीव गांधी सरकार के दौरान सीएजी रहे टीएन चतुर्वेदी भी शामिल थे. उनका कहना था कि, ‘सीएजी की रिपोर्ट को पीएसी में चुनौती देने की बात प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा किस आधार पर कही जा सकती है जबकि उन्हें मालूम होना चाहिए कि पीएसी सरकार की नहीं बल्कि संसद की होती है, और इसके कामकाज का निर्धारण सरकार का मुखिया नहीं कर सकता.’
यहां पर एक और घटना का जिक्र किया जाना बेहद प्रासंगिक है. दरअसल 1952 में पहली बार संसद में सीएजी को लेकर कुछ सांसदों ने नाराजगी का भाव दिखाया था. लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इसका पुरजोर विरोध करते हुए कहा था कि, ‘संसद में सीएजी की आलोचना करना उसके संवैधानिक अधिकार को चुनौती देना है.’ जानकारों की नजर में नेहरू के इस वक्तव्य में संवैधानिक संस्था के रूप में सीएजी के प्रति उनके सम्मान और आस्था का भाव तो था ही साथ ही एक अहम संदेश यह भी था कि भविष्य में संसद को सीएजी की आलोचना से बचना चाहिए. लेकिन इस घटना के छह दशक बाद जब उन्हीं की पार्टी की सरकार ने सीएजी की भूमिका पर संसद में सवाल उठाए तो मनमोहन सिंह ने इन आवाजों को और भी ऊंचा सुर दे दिया.
मनमोहन सरकार के कार्यकाल में संवैधानिक संस्थाओं को चुनौती देने का एक और पड़ाव था केंद्रीय चुनाव आयोग. दरअसल इसी साल – 2012 में – उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव हो रहे थे. इस दौरान दो केंद्रीय मंत्रियों सलमान खुर्शीद और बेनी प्रसाद वर्मा को चुनाव आयोग ने आदर्श चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन करते हुए धर लिया. एक चुनावी रैली में कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने मुस्लिम आरक्षण का लॉलीपाप निकालते हुए कहा कि कांग्रेस के सत्ता में आने की स्थिति में मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में नौ प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा. आयोग ने इसे आचार संहिता का उल्लंघन माना और खुर्शीद से जवाब तलब किया. लेकिन अपनी गलती मानने के बजाय उन्होंने चुनाव आयोग को उन्हें सूली पर लटका देने की चुनौती दे डाली. इसके बाद व्यथित चुनाव आयोग ने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर इस मामले में हस्तक्षेप की मांग की जिसके बाद चौतरफा दबाव को देते हुए खुर्शीद को औपचारिक तौर पर माफी मांगनी पड़ी.
इसी तरह की एक और गुस्ताखी इसके ठीक दो दिन बाद केंद्रीय इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा ने भी की. उन्होंने भी मुस्लिम आरक्षण का वही लालीपाप निकाल कर मुस्लिम वोट साधने की जुगत भिड़ाई. चुनाव आयोग को अपने खिलाफ कार्रवाई करने की चुनौती देने के बाद उन्होंने बाद में अफसोस जताने की औपचारिकता भी निभाई, इस पूरे मामले पर पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी का कहना था, ‘नेताओं द्वारा माफी मांग लिए जाने की सूरत में आयोग उनके खिलाफ कुछ नहीं कर सकता लेकिन संबंधित दलों को ऐसे नेताओं के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए ताकि भविष्य में इस तरह की घटनाओं पर अंकुश लग सके.’ लेकिन इस मामले में कुरैशी की राय से सरकार का कितना इत्तफाक रहा, यह इससे समझा जा सकता है कि बेनी प्रसाद वर्मा और सलमान खुर्शीद न तो मंत्रिमंडल से हटाए गए और न ही कांग्रेस पार्टी ने उन्हें कोई डांट पिलाई.
संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप की मानें तो ऐसा नहीं है कि सलमान खुर्शीद या बेनी प्रसाद वर्मा को चुनाव के कायदे पता नहीं थे. इसके बावजूद अगर वे आयोग से टकराए तो इसके छिपे अर्थों को समझना जरूरी हो जाता है. वे कहते हैं, ‘ऐसे समय में जब देश की ज्यादातर संवैधानिक संस्थाओं की साख घटती जा रही है, चुनाव आयोग पर इस तरह के हमले होना लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है.’
चुनाव आयोग की साख गिराने के बाद मनमोहन सरकार पर सीवीसी यानी केंद्रीय सतर्कता आयोग का मान गिराने का आरोप भी लगा. बताया जाता है कि मुख्य सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति में उनकी सरकार ने कानूनी पहलुओं की पूरी तरह अनदेखी की और पामोलिन तेल आयात घोटाले में शामिल होने के आरोप वाले पीजे थॉमस को इस पद पर बिठा दिया. लोकसभा में विपक्ष की नेता होने के नाते सीवीसी की चयन समिति की सदस्य रहीं सुषमा स्वराज ने समिति की बैठक में यह मुद्दा उठाया भी था. लेकिन सरकार ने इस बात की अनदेखी कर दी. बाद में मामला देश की सबसे बड़ी अदालत में पहुंचा और उसने थॉमस की नियुक्ति को अवैध करार दिया था. इस मामले में महत्वपूर्ण यह था कि भ्रष्टाचार के मामलों की पड़ताल करने वाली सीवीसी की कमान मनमोहन सरकार ने एक ऐसे व्यक्ति के हाथ में देने की कोशिश की थी जिस पर खुद भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे थे.
बेशक इस मामले में सरकार को सुप्रीम कोर्ट के आगे झुकना पड़ा लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि देश की सबसे बड़ी अदालत के प्रति मनमोहन सरकार का रवैया हमेशा ‘यस मी लार्ड’ वाला ही रहा हो. दरअसल मनमोहन के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के कई सदस्यों ने कई मौकों पर प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से न्यायपालिका को अपने दायरे में रहने की गैर-जरूरी सलाह दी है. इस सबकी शुरुआत तब हुई जब सुप्रीम कोर्ट ने टू-जी मामले में जांच की निगरानी समेत कई दूसरे मामलों को भी अपने हाथों में लेना शुरू किया. सरकार और अदालत का टकराव उन स्थितियों में ज्यादा दिखा जब चुनावी लाभ कमाने की मंशा से शुरू की गई सरकारी योजनाओं को अदालत ने सेंसर करना शुरू किया. अध्यादेश रूपी ब्रह्मास्त्र की आड़ में कई मौकों पर मनमोहन सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को पलटने का काम भी करने लगी. हाल ही में दागी जन प्रतिनिधियों के चुनाव लड़ने पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा रोक लगाए जाने के बावजूद जिस तेजी से सरकार ने इस बाबत अध्यादेश लाने का उपक्रम किया था वह भी सुप्रीम कोर्ट के प्रति उसके दुराग्रह को साफ दर्शाता है.
मनमोहन सरकार के कार्यकाल में सरकार और सेना के बीच टकराव की घटना भी हुई. पूर्व सेना प्रमुख जनरल वीके सिंह की जन्म तिथि को लेकर शुरू हुए विवाद ने प्रधानंमत्री मनमोहन सिंह और उनकी सरकार पर किसी खास व्यक्ति को सेनाध्यक्ष बनाने के लिए मुहिम चलाने का ऐसा आरोप लगाया जिसने एक संस्थान के रूप में सेना की प्रतिष्ठा पर जबरदस्त चोट पहुंचाने का काम किया. इस प्रकरण में आरोप लगा कि सिख अधिकारी विक्रमजीत सिंह को सेना प्रमुख बनाने की चाह में सरकार ने जनरल वीके सिंह के खिलाफ काम किया. यानी इस मामले में भी यूपीए की सरकार साफ तौर पर सेना जैसी सम्मानित संस्था के खिलाफ टकराव मोल लेती दिखी.
कुल मिलाकर देखा जाए तो सीएजी से लेकर सुप्रीम कोर्ट और सेना तक के मामले में शायद ही कोई ऐसी संवैधानिक संस्था होगी जिसके प्रति मनमोहन सिंह ने प्रेम और अनुराग की मिसाल छोड़ी हो. यूपीए सरकार ने हरसंभव हाथ आए मौकों पर इन संवैधानिक संस्थाओं की साख को धता बताने का काम बेरोकटोक और मनमर्जी से किया. एक हैरान करने वाली बात यह भी है कि यह सब कुछ उन मनमोहन सिंह की सरपरस्ती में हुआ जिन्हें सौम्य, विनम्र और भलेमानस की संज्ञा दी जाती रही है.
हांलांकि कांग्रेस पार्टी द्वारा समय-समय पर मनमोहन सरकार के इन फैसलों को क्लीन चिट दी जाती रही है. लेकिन बावजूद इसके यह सवाल तो उठता ही है कि अगर मनमोहन सिंह सरकार द्वारा किए गए ये कृत्य कहीं से भी गलत नहीं हैं तो फिर क्यों कांग्रेस पार्टी उनके इन कामों को आधार बना कर आगे बढने का साहस नहीं कर पाई ? सवाल तो यह भी है कि क्या वाकई में मनमोहन सिंह की ऐसी कोई विरासत है भी कि जिस पर इतराया जा सकता है.
जानकारों की मानें तो एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि मनमोहन सिंह के दस साला कार्यकाल में महंगाई का सूचकांक जिस रफ्तार से ऊंचाई को छूकर निकला है उससे भी उनकी विरासत संभालने से काग्रेस पार्टी हिचक रही है. यह भी एक विसंगति ही कही जानी चाहिए कि एक कुशल अर्थशास्त्री की संज्ञा प्राप्त मनमोहन सिंह के कार्यकाल में रुपया अब तक के सबसे निचले स्तर तक पहुंचा.
इस पूरी कथा में लोकपाल बिल का जिक्र करना भी बेहद महत्वपूर्ण होगा. अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद फजीहत झेल चुकी सरकार ने लोकपाल बिल को जब अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में मंजूरी दी तो उसने इसे अपनी महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में भुनाना चाहा. लेकिन उसकी इस कोशिश को तब जोरदार झटका लगा जब पहले प्रख्यात अधिवक्ता फाली नरीमन ने लोकपाल चयन के लिए बनी कमेटी का हिस्सा बनने से इनकार कर दिया और फिर न्यायमूर्ति केटी थॉमस ने भी खुद को यह कहते हुए अलग कर लिया कि चयन प्रक्रिया की निष्पक्षता पर उन्हें संदेह है. यह घटना संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर बनाने की कवायद में मनमोहन सरकार की एक और कोशिश की तरफ साफ इशारा करती है. इस तरह देखा जाए तो कहा जा सकता है कि मनमोहन सिंह की सरकार के दस बरस तमाम संवैधानिक संस्थाओं की खिलाफत करने में समर्पित रहे हैं.
इस दौरान बहुत से मौके ऐसे भी आए जब खुद प्रधानमंत्री पद की गरिमा को भी लड़खड़ाते देखा गया. कुछ घटनाओं की पड़ताल करने पर यह बात और भी आश्चर्यजनक ढंग से सामने आती है कि अधिकतर मौकों पर ऐसा करने वाले खुद प्रधानमंत्री ही थे. इस बात का सबसे सटीक उदाहरण उनके उस वक्तव्य में देखा जा सकता है जब वे बार-बार राहुल के नेतृत्व में काम करने और उनके लिए किसी भी वक्त कुर्सी छोड़ने के लिए तैयार रहने की बात करते हैं. इसके अलावा दागी सांसदों के चुनाव लड़ने संबंधी फैसले पर सुप्रीम कोर्ट की ‘ना’ के बाद मनमोहन सरकार द्वारा पहले अध्यादेश लाने का फैसला करना और फिर राहुल गांधी के इंकार के बाद इससे पलट जाना भी प्रधानमंत्री पद की गरिमा के विपरीत जाता है. कई कांग्रेसी भी अनौपचारिक बातचीत में इस बात को स्वीकार कर चुके हैं कि उनके मंत्रिमंडल तक में उन्हें गंभीरता से लेने वाले गिने-चुने ही हैं. इसके अलावा बहुत सी दूसरी घटनाएं और भी हैं जो दिखाती हैं कि मनमोहन सिंह के कार्यकाल में प्रधानमंत्री पद की साख पर आंच आई है. हाल ही में तेलंगाना विधेयक को संसद में पेश करने के दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के भाषण के वक्त कुछ सांसदों द्वारा जिस तरह हो हल्ला मचाया गया उससे भी इस बात को समझा जा सकता है.
एक सबसे अहम उदाहरण का जिक्र किए बगैर यह प्रसंग अधूरा कहा जा सकता है. दरअसल कांग्रेस पार्टी ने सत्ता में आने के फौरन बाद ही राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) नाम की एक समिति बनाई थी. सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली इस समिति को एक प्रकार से सरकार से ऊपर का दर्जा प्राप्त था. कुछ समय पहले तहलका से बात करते हुए पूर्व केंद्रीय मंत्री और भाजपा नेता यशवंत सिन्हा का कहना था कि, ‘मनमोहन सिंह के पास जिम्मेदारी तो है लेकिन ताकत नहीं है, जबकि जिन सोनिया गांधी के पास ताकत है उनके पास कोई जिम्मेदारी नहीं है.’ यशवंत सिन्हा की बातों से निकले मर्म को देश के संदर्भ में निकाला जाए तो एक सवाल खड़ा होता है कि देश को जिस नेतृत्व की इस वक्त सबसे अधिक जरूरत है, क्या मनमोहन सिंह उस खांचे के लिए अनफिट हैं ?
इसके अलावा आगामी चुनावों में मनमोहन सिंह की गौण हो चुकी भूमिका को सिन्हा के कथन के संदर्भ में देखा जाए तो कहीं यही वह वजह तो नहीं कि पार्टी उन्हें विरासत विहीन नेतृत्वकर्ता के रूप में स्वीकार कर चुकी है. इन दोनों सवालों का बेहतर जवाब यदि कोई दे सकता है तो निस्संदेह वह खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ही होंगे. लेकिन वे ‘हजारों जवाबों से बेहतर है मेरी खामोशी..’ वाला शेर सुना कर बहुत पहले ही साफ कर चुके हैं कि उनका जवाब क्या होगा. इसके अलावा एक और तथ्य यह है कि अपने दस साला कार्यकाल में वे सिर्फ तीन बार ही औपचारिक रूप से मीडिया के सामने आए हैं. इस पर भी उनकी बातों का लब्बोलुआब यही रहा है कि उनका मूल्यांकन इतिहास करेगा. ऐसे में अगर इतिहास प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कामों का मूल्यांकन कर भी दे और उन्हें सौ बटा सौ नंबर भी दे दे तब भी क्या वे कभी इस सवाल का सामना कर पाएंगे कि उनकी शख्सियत एक विरासत विहीन नेतृत्वकर्ता की नहीं थी.